मजबूत हुई आस्था की डोर
तीखी धूप। तल्ख मौसम। अधिकतम तापमान 34.2 डिसे। ऊंचा प्रेतशिला पहाड़। 676 सीढि़यां वो भी सीधी पर उम्र ढलान की ओर। पर आस्था की डोर कमजोर के बजाय और मजबूत होती नजर आई। मंगलवार को पिंडदान के कर्मकांड का प्रथम व द्वितीया तिथि दोनों था। धार्मिक मान्यता के अनुसार जाने-अनजाने अपने पितरों को प्रेतयोणि से मुक्ति दिलाने श्रद्धालुओं के
गया। तीखी धूप। तल्ख मौसम। अधिकतम तापमान 34.2 डिसे। ऊंचा प्रेतशिला पहाड़। 676 सीढि़यां वो भी सीधी पर उम्र ढलान की ओर। पर आस्था की डोर कमजोर के बजाय और मजबूत होती नजर आई। मंगलवार को पिंडदान के कर्मकांड का प्रथम व द्वितीया तिथि दोनों था।
धार्मिक मान्यता के अनुसार जाने-अनजाने अपने पितरों को प्रेतयोणि से मुक्ति दिलाने श्रद्धालुओं के यहां आने का सिलसिला अनवरत जारी था। शहर के पश्चिम रामशिला-प्रेतशिला मार्ग से होकर प्रेतशिला वेदी तक पहुंचने का मार्ग है। प्रेतशिला पहाड़ के तल में निर्मित ब्रह्मकुंड में स्नान के बाद श्रद्धालु 676 सीढि़यां चढ़ने के बाद पहाड़ के उस स्थान पर पहुंचते हैं जो शारीरिक रूप से सक्षम हैं। वे एक-एक सीढि़यां चढ़कर। जो वृद्ध या फिर पैदल चलकर उपर नहीं जाना चाहते। उनके लिए 'पालकी' सहारा है। यह व्यवस्था प्रशासन की ओर से नहीं। स्थानीय गांव के गरीब तबके के लोग पालकी के सहारे तीर्थयात्रियों को उपर तक ले जाते हैं। उपर में एक छोटा सा मंदिर है। इसके आंगन व बरामदे पर पिंडदान का कर्मकांड उनके पुरोहित कराते हैं। जो मंत्रोच्चार करते हुए सत्तु व तिल उड़ाते हुए यही कहते हैं- उड़ल सतुआ, पितरन पैठ, ने बैठवा त जबरन बैठ।
धामी पंडा संजय पांडेय तथा सत्येन्द्र पांडेय बताते हैं कि इसी विधि-विधान से प्रेतयोणि में भटक रहे श्रद्धालुओं के कई कुल के पितरों को मुक्ति मिलती है।