राहु और केतु को हमारे कई पौराणिक शास्त्रों में विशेष स्थान प्रदान किया गया है
चतुर्थ भाव में शनि व द्वादश भाव में राहु हो तो उस भाव में नंदी योग बनता है। इस योग के फलस्वरूप जातक कपटी, धूर्त, चालबाज व दुश्चरित्र होता है।
राहु और केतु सूर्य व चंद्र मार्गों के कटान के प्रतिच्छेदन बिंदु हैं जिनके कारण सूर्य और चंद्रमा की मूल प्रकृति, गुण, स्वभाव में परिवर्तन आ जाता है। यही कारण है कि राहु और केतु को हमारे कई पौराणिक शास्त्रों में विशेष स्थान प्रदान किया गया है। कहा गया है कि-
राहु और केतु के मध्य कुंडली में जब समस्त ग्रह आ जाते हैं तब कालसर्प योग की उत्पत्ति होती है। विद्वानों के अनुसार यह 144 प्रकार का होता है। कालसर्प योग के प्रमुख दुष्प्रभावों का विवरण इस प्रकार है: मानसिक व शारीरिक क्षमता में न्यूनता। जातक का ज्ञान व शिक्षा आजीविका व अर्थोपार्जन में सहायक नहीं होती। संतानहीनता, और यदि हो तो भी संतान से दुखी। जीवनसाथी मनोनुकूल न मिलना। स्वास्थ्य का डगमगाना या कई रोगों से पीड़ित होना। आकस्मिक धनहानि, अकाल मृत्यु, भाइयों से झगड़े, गृह क्लेश, जेल की सजा आदि। निम्नलिखित ग्रह स्थितियों में कालसर्प योग का प्रभाव कम हो जाता है।
जब गुरु लग्नस्थ हो और द्वितीय भाव में शनि तथा तीसरे में राहु हो तो जन्म के पश्चात जल्द ही बालक माता से बिछड़ जाता है। या तो माता बालक को छोड़ देती है या बालक के जन्म के पश्चात मर जाती है।
चंद्र व मंगल के साथ राहु या केतु चतुर्थ घर में स्थित हो तो जातक की 40 वर्ष की आयु में उसकी माता का देहांत होता है ऐसा एक ऋषि का मत है।
यदि किसी स्त्री की कुंडली में अष्टम भाव में मंगल व राहु की युति से गंदर्भ योग हो तो वैधव्य योग होता है। जातका विवाह के एक निश्चित समय बाद विधवा हो जाती है। अतः जातका की शादी विलंब से करनी चाहिए। जितने विलंब से उसकी शादी की जाएगी, वैधव्य योग उतना ही टलता जाएगा।
मेष, वृष या कर्क लग्न में पहले, दूसरे, तीसरे, चैथे, पांचवें, छठे, सातवें या बारहवें घर में राहु हो तो परमसुख योग होता है और यदि कोई अन्य लग्न हो तो महान कष्टदायक योग होता है।
मेष, वृष या कर्क लग्न में बारहवें घर में राहु हो तो दूसरों से सम्मान दिलाता है और विदेश यात्रा योग बनाता है।
मेष, कर्क या वृश्चिक लग्न में राहु नवम, दशम या एकादश भाव में हो तो परमसुख योग होता है। इस योग के फलस्वरूप जातक को यश, सम्मान, धन, कीर्ति और समृद्धि प्राप्त होती है।
राहु जन्य विशेष सुख योग:
राहु छठे भाव में और शुक्र केंद्र में स्थित हो तो प्रबल धन योग होता है।
राहु लग्न, तीसरे, छठे या ग्यारहवें घर में हो और चंद्र, बुध, गुरु और शुक्र में से कोई भी ग्रह राहु को देख रहा हो तो धन योग होता है।
दशम भाव में राहु और लग्नेश स्थित हों तो भाग्यवान योग होता है। अतः जातक जिस चीज की कामना करता है वह उसे मिल जाती है और जो नहीं चाहता वह नहीं मिलती।
यदि कुंडली में किसी भी भाव में राहु शनि से युत हो तो सर्वसुखशाली योग होता है। जातक धन, यश, सुख व समृद्धि का स्वामी होता है।
जब स्थिर लग्न (वृष, सिंह, वृश्चिक, कुंभ) में सूर्य और राहु त्रिकोण, पंचम या नवम में स्थित हों तो ग्रहण योग होता है। इस योग के फलस्वरूप यश, मान सम्मान, प्रसिद्धि व धन की प्राप्ति होती है।
राहु निर्मित कुछ कुयोग:
राहु निर्मित निम्नलिखित कुयोग जातक की विचारधारा बदल देते हैं-
चतुर्थ भाव में शनि व द्वादश भाव में राहु हो तो उस भाव में नंदी योग बनता है। इस योग के फलस्वरूप जातक कपटी, धूर्त, चालबाज व दुश्चरित्र होता है।
चंद्र व शनि का कुंडली में संबंध विष योग बनाता है।
चंद्र व राहु लग्न में हो तो जातक को भूत-प्रेत बाधाओं का सामना करना होता है।