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Pitru Paksha 2021: कृतज्ञता ज्ञापन का पर्व है पितृपक्ष, शाहजहां ने भी की थी श्राद्ध की प्रशंसा

Pitru Paksha 2021 भारतीय संस्कृति के सबसे प्राचीन ग्रंथ वेद हैं। उनमें पितृयज्ञ का वर्णन मिलता है। वास्तव में पितृयज्ञ का ही दूसरा नाम श्राद्ध है। ब्रह्म पुराण में श्राद्ध के संबंध में कहा गया है देशे काले च पात्रे च श्रद्धया विधिना च यत्। पितृनुदिश्य विप्रेभ्यो दत्तं श्राद्धमुदाहृतम्।।

By Kartikey TiwariEdited By: Published: Tue, 21 Sep 2021 10:33 AM (IST)Updated: Tue, 21 Sep 2021 11:49 AM (IST)
Pitru Paksha 2021: कृतज्ञता ज्ञापन का पर्व है पितृपक्ष, शाहजहां ने भी की थी श्राद्ध की प्रशंसा
Pitru Paksha 2021: कृतज्ञता ज्ञापन का पर्व है पितृपक्ष, शाहजहां ने भी की थी श्राद्ध की प्रशंसा

Pitru Paksha 2021: भारतीय संस्कृति के सबसे प्राचीन ग्रंथ वेद हैं। उनमें पितृयज्ञ का वर्णन मिलता है। वास्तव में पितृयज्ञ का ही दूसरा नाम श्राद्ध है। ब्रह्म पुराण में श्राद्ध के संबंध में कहा गया है: देशे काले च पात्रे च श्रद्धया विधिना च यत्। पितृनुदिश्य विप्रेभ्यो दत्तं श्राद्धमुदाहृतम्।।अर्थात् उचित देश, काल और पात्र में जो भी भोजनादि श्रद्धापूर्वक पितरों के निमित्त दिया जाता है, वह श्राद्ध है। इससे ज्ञात होता है कि सनातन हिंदू धर्म में श्राद्ध की प्रथा अति प्राचीन है, जो अबाध गति से अब तक चली आ रही है।

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शाहजहां ने भी की थी श्राद्ध की प्रशंसा

कहा जाता है कि इस श्राद्ध की प्रशंसा मुगल बादशाह शाहजहां ने भी की थी, जब उसके पुत्र औरंगजेब ने उसे कारागार में डाल दिया। तब उसने जेल से अपने पुत्र के लिए पत्र लिखा था कि 'तू अपने जीवित पिता को पानी के लिए तरसा रहा है। शत-शत बार प्रशंसनीय हैं वे हिंदू, जो अपने मृत पितरों को जलांजलि देते हैं।' (ऐ पिसर तू अजब मुसलमानी, ब पिदरे जिंदा आब तरसानी। आफरीन बाद हिंदवान सद बार, मैं देहंद पिदरे मुर्दारावा दायम आब)।

अटूट रिश्तों का संबंध

प्राचीन सभ्यताओं में भी मृतक को दफनाते समय कब्र में दैनिक भोग की आवश्यक सामग्री रखने की प्रथा थी, जो श्राद्ध का ही एक रूप थी। 'सर्वे भवन्तु सुखिन:' का उद्घोष करने वाली भारतीय संस्कृति दुनिया में सबसे विलक्षण संस्कृति है, क्योंकि यह मानवतावादी है। इसलिए इसका हर विधान लोक मंगलकारी है। इसमें संशय की कोई गुंजाइश नहीं होती। मानवीय संबंधों की गहराई जितनी भारतीय संस्कृति में है, उतनी दुनिया में कहीं नहीं। हमारे अटूट रिश्तों का संबंध केवल एक जन्म का नहीं, जन्म-जन्मान्तर का होता है।

ऐसा रिश्ता, जो मरकर भी नहीं मरता। हो भी क्यों न! जिस देश में बच्चे को पहला पाठ 'मातृदेवो भव' और 'पितृदेवो भव' का पढ़ाया जाता है। माता को धरती और पिता को आकाश से भी ऊंचा कहा जाता है। ऐसे आत्मीय रिश्ते को भला मृत्यु भी कैसे तोड़ सकती है। इसीलिए वे पितर पितृलोक में निवास करते हुए सदा अपनी संतानों की मंगल कामना करते हैं। हम तो कृतज्ञता ज्ञापन के लिए नित्य सूर्य और चंद्र को भी अ‌र्घ्य देते हैं, जो हमें ऊष्मा, प्रकाश और शीतलता प्रदान करते हैं। फिर हम उन पितरों को कैसे भूल सकते हैं, जिन्होंने हमें अमूल्य जीवन दिया। शायद उसका ऋण हम कभी नहीं चुका सकते। अत: पितरों के प्रति श्रद्धा से कृतज्ञता ज्ञापन का पर्व है पितृपक्ष।

श्रद्धा से दिया गया दान श्राद्ध

श्रद्धा से दिया गया दान श्राद्ध कहलाता है, इसीलिए पितृपक्ष को श्राद्धपक्ष भी कहते हैं। इस काल में लोग अपने पितरों की स्मृति में पूजन व तर्पण के अतिरिक्त निर्धन व्यक्तियों को भोजन व अन्न-वस्त्र आदि का दान भी करते हैं। विश्वास है कि यह निश्चित रूप से पितरों को प्राप्त होता है। वस्तुत: हमारी संस्कृति में स्थूल शरीर के अतिरिक्त एक सूक्ष्म शरीर भी स्वीकार किया गया है, जो मृत्यु के बाद भी नष्ट नहीं होता, मान्यता है कि पितर इसी सूक्ष्म शरीर से पूजन और तर्पण को ग्रहण करते हैं।

दूसरे, भारतीय संस्कृति समतामूलक है, जिसमें ऐसे अवसरों पर दान क्रियाओं का विधान इसलिए किया गया है, जिससे जरूरतमंद लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति हो सके। भूखों को भोजन मिल सके। पशु, पक्षियों, कीट, पतंगों को भोजन देने का उद्देश्य भी यही है। वैसे भी हमारी संस्कृति में किसी भी रूप में प्राणि जगत की सेवा ईश्वर की ही सेवा होती है।

गीता में कहा गया है कि उचित देशकाल में उचित पात्र को दिया गया दान सफल होता है। अत: सुपात्र को दिये गए दान से पितर अवश्य तृप्त होते होंगे, इसमें कोई संदेह नहीं। यही तो पितृपक्ष की सार्थकता है। पूर्वजों की स्मृति में दिया गया दान किसी भूखे का पेट भर सकता है। किसी जरूरतमंद की जरूरत बन सकता है। श्राद्ध कर्म के विधान को समझना होगा, जो संपूर्ण मानवता को समर्पित है।

डा. सत्यप्रकाश मिश्र, आध्यात्मिक विषयों के लेखक


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