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मृतात्मा के पिंड से वसूले जाते 'शुल्क'

श्रद्धा.. श्राद्ध.. और शुल्क। ये तीन शब्द गयाजी के कर्मकांड में मायने रखता है। इन्हीं शब्दों पर एक पखवारे का मेला चलता है। पूरी आस्था और उससे जुड़ी अर्थव्यवस्था इन्हीं शब्दों पर आधारित है। यहां हर कुछ इन्हीं में मिलता है। लाखों की तादाद में आ रहे श्रद्धावान लोग अपने पितरों को तृप्त करने का मनोभाव लेकर आते हैं और श्र

By Edited By: Published: Thu, 26 Sep 2013 02:16 AM (IST)Updated: Thu, 26 Sep 2013 03:25 AM (IST)
मृतात्मा के पिंड से वसूले जाते 'शुल्क'

गया, [कमल नयन]। श्रद्धा.. श्राद्ध.. और शुल्क। ये तीन शब्द गयाजी के कर्मकांड में मायने रखता है। इन्हीं शब्दों पर एक पखवारे का मेला चलता है। पूरी आस्था और उससे जुड़ी अर्थव्यवस्था इन्हीं शब्दों पर आधारित है। यहां हर कुछ इन्हीं में मिलता है। लाखों की तादाद में आ रहे श्रद्धावान लोग अपने पितरों को तृप्त करने का मनोभाव लेकर आते हैं और श्रद्धा और श्राद्ध के बाद लगने वाला शुल्क का उन्हें क्षणिक भी एहसास नहीं होता।

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यहां जिस 'शुल्क' की बात कर रहे हैं वह तीर्थपुरोहितों के दान-दक्षिणा या कर्मकांड कराने वाले ब्राह्माणों की देय राशि नहीं जुड़ा है। यह वह राशि है जो या तो लुप्त है या उसकी जानकारी देना लोग उचित नहीं समझते। यह शुल्क सीधे पिंडदान स्थल से वसूला जाता है। सिर्फ विष्णुपद वेदी ही नहीं बल्कि लगभग सभी वेदियों पर अलग-अलग ढंग से इसकी वसूली की जाती है।

श्री विष्णु पद वेदी और उससे जुड़े फल्गु तट पर हो रहे पिंडदान के कर्मकांड के वक्त संग्रहकर्ता के रूप में नियुक्त युवक ब्राह्माण से संपर्क करता है और उन्हें जितने पिंड हो रहे हैं उतने के हिसाब से राशि ले लेता है। यहां एक पिंड पर 5 रुपये की दर निर्धारित है। इसके एवज में संग्रहकर्ता द्वारा एक रसीद दी जाती है। जिस पर श्री विष्णुपद प्रबंधकारिणी समिति लिखा है। इस रसीद पर किसी के दस्तखत या मोहर की जरूरत नहीं है। निर्धारित दर के अनुसार भुगतान होते ही उतनी की रसीद उसे दे दी जाती है।

चलिए, यहां तो कम से कम शुल्क वसूली के एवज में रसीद की प्राप्ति हो जाती है। पर सीता कुंड, अक्षयवट, गौ प्रचार और प्रेतशिला में सिर्फ वसूली होती है। जानकार बताते हैं कि उक्त पिंडवेदियों के अलावा और कई स्थानों पर पिंड की गिनती से वसूली की जाती है। लेकिन यहां इनका दर काफी कम है। प्रत्येक पिंड पर 1 रुपया लिया जाता है। संग्रह करने वाला व्यक्ति कोई अंजान नहीं होता बल्कि उस वेदी स्थल का 'स्वयंभू मालिक' होता है।

गौरतलब है कि इस शुल्क की वसूली सीधे यजमानों से नहीं की जाती। यानी पिंड देने वाले व्यक्ति से पैसे की मांग नहीं होती। बल्कि उनके साथ आए पुरोहित जन से यह मांग होती है और वे इसे सामान्य रूप से एक बंधा-बंधाया रकम मानकर स्वयं दे देते हैं। प्रश्न यह है कि यह कौन सी राशि है? जो मृतात्माओं के पिंड से वसूली जाती है। बताया तो यह जाता है कि प्राचीन काल से यह परंपरा चली आ रही है। जिसका निर्वहन आज भी हो रहा है। भले ही इसे देखने वाले का नजरिया अलग है। क्या इसे धर्म के नाम पर वसूली नहीं कहा जा सकता?

इस संबंध में विष्णुपद प्रबंधकारिणी समिति के अध्यक्ष कन्हैया लाल मिश्र का स्पष्ट कहना है कि विष्णुपद क्षेत्र में जो राशि ली जाती है। वह कहीं से शुल्क या कर नहीं है। वह भगवान (विष्णु) के राजभोग के लिए लिया जाता है। यह भी एक श्रद्धा है जो यात्री गयाजी आते हैं और अपने पितरों को तृप्त करने के निमित पिंडदान करते हैं तो उन्हीं से ली गई राशि भगवान के भोग के लिए भी उपयोग होती है।

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