भांग पीवे तौ जल्दी आ
होली की मस्ती हो और चतुर्वेदी समाज में भंग का रंग न चढ़े यह कैसे हो सकता है। इसके बिना तो होली का आनंद ही अधूरा रह जाएगा। इसके बगैर तो सत्कार भी नहीं हो सकेगा। जैसे-जैसे होली निकट आ रही है अखाड़े भी इसके रंग में सराबोर हो रहे हैं। सुबह-सायं चक्क ठंडाई घुट रही है। होली के रसिया हो रहे हैं। दुनिया के लिए भांग भ
मथुरा। होली की मस्ती हो और चतुर्वेदी समाज में भंग का रंग न चढ़े यह कैसे हो सकता है। इसके बिना तो होली का आनंद ही अधूरा रह जाएगा। इसके बगैर तो सत्कार भी नहीं हो सकेगा। जैसे-जैसे होली निकट आ रही है अखाड़े भी इसके रंग में सराबोर हो रहे हैं। सुबह-सायं चक्क ठंडाई घुट रही है। होली के रसिया हो रहे हैं।
दुनिया के लिए भांग भले ही नशा है, मगर ब्रज के चतुर्वेदी समाज के लिए ये अतिथि को बुलावा है, सत्कार का दस्तूर है। चौबिया अखाड़ों में मौसम के साथ भांग का मेन्यू ही बदल जाता है। आम दिनों की बात करें तो सर्दी में शरबत बनता है तो गर्मी में ठंडाई। मगर होली पर भंग का रंग न चढ़े, और वो भी ब्रज में तो, होरी किस बात की।
एक मान्यता है कि कंस का वध करके श्रीकृष्ण अपने भाई बलदाऊ के साथ जब विश्राम घाट आये तब चतुर्वेदी समाज ने उनके स्वागत-सत्कार की योजना बनायी। भगवान को पत्रम के रूप में भांग की पत्ती, पुष्प के रूप में गुलाब, सतपुष्प के रूप में सोंप, फल के रूप में मेवा का मिश्रण बनाया। अतिरिक्त तत्व के रूप में मिश्री मिलाकर भगवान को भेंट की थी। तब से चतुर्वेदी समाज में सत्कार के लिए ठंडाई का दस्तूर बन गया।
चूहा जो पिए, बिल्ली पर झपट जाए-चूहा जो पिए तो झपट पड़े बिल्ली पे, बिल्ली जो पिए तो झपट पड़े श्वान पे, श्वान जो पिए तो सिंह रूप पे वार करे,
सिंह जो पिए तो मारे गजराज को, चिड़िया जो पीए तो झपड़ पड़े बाज पे।
ब्रज के राजा बलदाऊ महाराज को तो प्रतिदिन भांग का भोग लगता है। चौकी अखाड़ा के विनोद चतुर्वेदी, अशोक चतुर्वेदी, माधव मुरारी चतुर्वेदी, पप्पन चतुर्वेदी कहते हैं कि होली का आनंद ही भांग में हैं। जब तक तरंग न चढ़े तो आनंद कैसा।
ब्रज में फूल, अबीर-गुलाल, लड्डू, रसगुल्ले और जलेबी की होली के दौर शुरू होने वाले हैं। रंग-बिरंगी इस फुहार के साथ ही चौबिया अखाड़ों में होली की अलग ही तैयारियां हैं। भांग की पत्तियां सुखाई जा रही हैं। काली मिर्च, सौंफ, पिस्ता-बादाम आदि का स्टॉक कर लिया गया है। अब इंतजार है दुल्हैणी का, जब सिल और लोढ़ी पर भांग घुटेगी और कान्हा का आहवान होगा-'आओ हो, दाऊ के दयाल कृष्ण कन्हैया, ब्रज के राजा।
दुनिया के लिए भांग भले ही नशा है, मगर ब्रज के चतुर्वेदी समाज के लिए ये अतिथि को बुलावा है, सत्कार का दस्तूर है। चौबिया अखाड़ों में मौसम के साथ भांग का मेन्यू ही बदल जाता है। आम दिनों की बात करें तो सर्दी में शरबत बनता है तो गर्मी में ठंडाई। मगर होली पर भंग का रंग न चढ़े, और वो भी ब्रज में तो, होरी किस बात की।