परमहंस-विवेकानंद , जब गुरु-शिष्य का हुआ पहला मिलन
4 जुलाई 2015 को स्वामी विवेकानंद की पुण्यतिथि है। बालक नरेंद्र बचपन से ही मेधावी, स्वतंत्र विचारों के धनी व्यक्ति थे। पढ़ने में बहुत होशियार थे। कम प्रयास में ही विद्यालय में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होते थे और अपने शिक्षकों के प्रिय पात्र थे।
4 जुलाई 2015 को स्वामी विवेकानंद की पुण्यतिथि है। बालक नरेंद्र बचपन से ही मेधावी, स्वतंत्र विचारों के धनी व्यक्ति थे। पढ़ने में बहुत होशियार थे। कम प्रयास में ही विद्यालय में अच्छे अंकों से उत्तीर्ण होते थे और अपने शिक्षकों के प्रिय पात्र थे।
उस समय दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्ण परमहंस एक प्रख्यात ईश्वरप्राप्त व्यक्ति थे। वे मां काली के उपासक थे। दक्षिणेश्वर में रहकर काली की पूजा अर्चना करते हुए उन्होंने चार वर्ष के अंदर ही मां काली का साक्षात्कार किया। उस समय उनका कोई गुरु नहीं था। केवल अंतःकरण की विकलता से ही उन्हें काली का साक्षात्कार हुआ था।
इसके बाद उन्होंने राममार्गी साधुओं से राममंत्र की दीक्षा ली और रामनाम की साधना में व्यस्त हुए। हनुमानजी के रूप में अपने को मानते हुए भगवान राम से साक्षात्कार हुआ। उन्होंने राधा भाव से साधना करते हुए कृष्ण से साक्षात्कार किया। इस्लाम और ईसाईयत के सत्य को भी उन्होंने अनुभूत किया। ऐसे व्यक्ति को विवेकानंद का गुरु होने का सौभाग्य मिला।
गुरु-शिष्य का पहला मिलन
एफए की पढ़ाई करते हुए नरेंद्र अपने नाना के मकान पर अकेले रहते थे और अध्ययन करते थे। एक बार श्रीरामकृष्ण देव उस मोहल्ले में आए और एक भक्त के वहां रुके। सत्संग हो रहा था। भजन के लिए बालक नरेंद्र को वहां बुलाया गया। नरेंद्र का गीत सुनकर रामकृष्ण समाधिस्थ हो गए और जब कार्यक्रम की समाप्ति कर वे दक्षिणेश्वर जा रहे थे, तब नरेंद्र का हाथ अपने हाथ में लेकर बोले - तू, दक्षिणेश्वर जरूर आना। विवेकानंद ने हां कर दिया।
विवेकानंद ने भारतीय और पाश्चात्य दर्शनों का बढ़ी गहराई से अध्ययन किया था। कुछ समय के लिए वे संदेहवादी भी हो गए थे। एक दिन माघ की सर्द रात में वे ईश्वर के बारे में चिंतन कर रहे थे। उन्हें विचार आया कि रवींद्रनाथ टेगौर के पूज्य पिता श्री देवेंद्रनाथ ठाकुर गंगा नदी में नाव पर बैठकर साधना करते हैं। उन्हीं से पूछा जाए।
वे तत्काल गंगा घाट गए और तैरते हुए नाव में पहुंच गए। उन्होंने महर्षि से पूछा, आप तो पवित्र गंगा में रहकर इतने समय से साधना कर रहे हैं, क्या आपको ईश्वर का साक्षात्कार हुआ। महर्षि इस बात का स्पष्ट जवाब नहीं दे सके। केवल इतना कहा, नरेंद्र तुम्हारी आंखें बताती हैं कि तुम बहुत बड़े योगी बनोगे।
नरेंद्र ने कहा, महर्षि, मेरी बात छोड़िए, क्या आपको ईश्वर का साक्षात्कार हुआ है? इस बात का महर्षि के पास कोई जवाब नहीं था। नरेंद्र लौट कर अपने कमरे पर आ जाते हैं और विचार करते हैं कि जब महर्षि जैसे व्यक्ति को ईश्वर साक्षात्कार नहीं हुआ तो मेरे जैसे कि क्या बिसात।
अगले दिन सवेरे, विवेकानंद को रामकृष्ण देव की याद आई। वे दक्षिणेश्वर की ओर चल दिए। वहां पहुंचने पर उन्होंने देखा कि रामकृष्ण भक्तों से घिरे हुए बैठे हैं और आनंदपूर्वक चर्चा कर रहे हैं। नरेंद्र को देखकर रामकृष्ण बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा, तू आ गया। अच्छा किया। परंतु नरेंद्र ने उनसे वही सीधा प्रश्न किया कि क्या आपने ईश्वर को देखा है? तो परमहंस ने जवाब दिया, हां देखा है और मैं तुम्हें भी दिखा सकता हूं। इसके बाद 1881 से 1886 तक नरेंद्र ने रामकृष्ण के शिष्य के रूप में कई रातें दक्षिणेश्वर में बिताईं और साधनाएं कीं।
पहले संचय करो, फिर बांटना
नरेंद्र नीचे बगीचे में बैठकर अपने गुरु भाईयों के साथ ध्यान कर रहे थे। एक गुरुभाई सगुणसाकार ईश्वर में विश्वास करता था। नरेंद्र ने उससे कहा - जब मैं ध्यान करूं, तब तुम मुझे स्पर्श कर लेना। उस व्यक्ति ने वैसा ही किया। और विवेकानंद को छूते ही उसके भाव बदल गए।
ऊपर से आवाज देकर रामकृष्ण ने नरेंद्र से कहा, अरे...पहले संचय करो, फिर बांटना। तू नहीं जानता तूने इसका कितना नुकसान किया। ये अपने भाव से भटक गया है। और किसी के भाव को नष्ट करना एक हिंसा होती है। विवेकानंद को अपनी गलती का अहसास हुआ।
तू इतना स्वार्थी बनेगा
परम जिज्ञासु नरेंद्र का साधकरूप आजीवन बना रहा। उन्होंने एक बार रामकृष्ण से कहा था कि मैं सुखदेव की तरह समाधि में लीन रहना चाहता हूं, तो रामकृष्णदेव ने कहा था कि तेरे से बहुत उम्मीदें हैं। तू इतना स्वार्थी बनेगा।
नरेंद्र ने कहा था, बिना निर्विकल्प समाधि के मैं कुछ भी नहीं कर सकता हूं, तो विवेकानंद को रामकृष्ण ने निर्विकल्प समाधि तक पहुंचाया और फिर कहा कि अब ताला बंद है और चाबी मेरे पास है। तू तो क्या तेरी हड्डियों से भी विश्व कल्याण के कार्य होंगे, जो आज सत्य प्रतित होता है।