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Muharram 2020: जानें क्या है मुहर्रम का इतिहास, कैसे मनाते हैं यह पर्व

Muharram 2020 मुस्लिम समुदाय के लोगों के लिए मुहर्रम एक प्रमुख महीना है। इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार हिजरी संवत् का प्रथम मास मुहर्रम होता है।

By Shilpa SrivastavaEdited By: Published: Fri, 28 Aug 2020 05:00 PM (IST)Updated: Sat, 29 Aug 2020 06:15 AM (IST)
Muharram 2020: जानें क्या है मुहर्रम का इतिहास, कैसे मनाते हैं यह पर्व
Muharram 2020: जानें क्या है मुहर्रम का इतिहास, कैसे मनाते हैं यह पर्व

Muharram 2020: मुस्लिम समुदाय के लोगों के लिए मुहर्रम एक प्रमुख महीना है। इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार, हिजरी संवत् का प्रथम मास मुहर्रम होता है। इस वर्ष का प्रारंभ 29 अगस्त दिन शनिवार से हो रहा है। इस माह में पैगंबर मुहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन एवं उनके साथियों की शहादत हुई थी। यह गम का महीना कहलाता है। इसे सब्र और इबादत का महीना भी कहते हैं। इस पर्व पर खासतौर से शिया समुदाय मातम मनाता है और जुलूस निकालता है। तो चलिए जानते हैं कि आखिर इस त्यौहार को कैसे मनाते हैं और क्या है इसका इतिहास।

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कैसे मनाते हैं मुहर्रम:

इस पर्व पर लोग रोजे रखते हैं। इस दिन पैगंबर मुहम्मद सा. के नाती की शहादत तथा कर्बला के शहीदों के बलिदानों को याद किया जाता है। मान्यता है कि कर्बला के शहीदों ने इस्लाम धर्म को नया जीवन दिया था। इस माह के पहले 10 दिनों में मुस्लिम समुदाय के कई लोग रोजे रखते हैं। वहीं, अगर कोई पूरे रोजे नहीं रख पाता है तो वो 9 और 10 तारीख को रोज रखता है।

जानें मुहर्रम का इतिहास:

कर्बला यानी आज का इराक, जहां सन् 60 हिजरी को यजीद इस्लाम धर्म का खलीफा बन बैठा था। वह पूरे अरब में अपने वर्चस्व को फैलाना चाहता था। इसके लिए उसके सामने एक बड़ी चुनौती थी। यह चुनौती थी पैगम्बर मुहम्मद के खानदान के इकलौते चिराग इमाम हुसैन। यह किसी भी हालत में यजीद के सामने झुकने के लिए तैयार नहीं थे। यही वजह थी कि सन् 61 हिजरी से यजीद के अत्याचार लोगों पर और बढ़ने लगे थे। अत्याचार बढ़ते देख वहां के बादशाह इमाम हुसैन अपने परिवार और साथियों के साथ मदीना छोड़ने को मजबूर हो गए। वो मदीना से इराक के शहर कुफा जाने लगे। लेकिन रास्ते में इमाम हुसैन के काफिले को रोक दिया गया। यजीद की फौज ने कर्बला के रेगिस्तान में रोका था। जिस दिन इमाम हुसैन के काफिले को रोका गया था उस दिन मुहर्रम था।

जहां उन्हें रोका गया था वहां पानी के लिए सिर्फ फरात नदी ही थी। इस नदी पर यजीद की फौज ने 6 मुहर्रम से रोक लगा दी थी। इतना सब सहने के बाद भी इमाम हुसैन ने हार नहीं मानी और अपना सिर नहीं झुकाया। आखिर में युद्ध का ऐलान कर दिया गया। यजीद की 80,000 की फौज के सामने हुसैन के मात्र 72 बहादुरों जंग लड़ी थी। कहा जाता है कि जिस तरह से इन 72 बहादुरों ने जंग लड़ी थी उसकी मिसालें दुश्मन फौज के सिपाही भी एक-दूसरे को दे रहे थे। हुसैन को खउद को अल्लाह की राह में कुर्बान करने आए थे।

उन्होंने अपने नाना और पिता के सिखाए हुए सदाचार और उच्च विचारों के बल पर विजय प्राप्त की। इसमें मुख्य भूमिका निभाई थी। अल्लाह से बेपनाह मुहब्बत ने जिसके चलते वो प्यास, दर्द, भूख और पीड़ा सब झेल गए। 10वें मुहर्रम के दिन तक जब हुसैन अपने भाइयों और अपने साथियों के शवों को दफना रहे थे तब आखिर में उन्होंने अकेले युद्ध किया। लेकिन दुश्मन उन्हें मार नहीं सका। फिर अस्र की नमाज का समय हुआ और जब इमाम हुसैन अल्लाह का सजदा कर रहे थे, तब एक यजीदी ने सोचा कि यही सही समय है इसे मारने का। उसने धोखे से हुसैन पर वार किया और उन्हें मार दिया। लेकिन मरकर भी इमाम हुसैन जिंदा रहे और अमर हो गए। वहीं, यजीद जीतकर भी हार गया।

डिस्क्लेमर-

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