राम विवाह-राम जानकी मठ में निभाई गई मटकोर की रस्म
मानस में भगवान राम के विवाहोपरांत अयोध्या लौटने के बाद के प्रसंग को भाव देते हुए गोस्वामी जी की लेखनी ने जब यह लिखा कि 'जेहि दिन राम ब्याहि घर आए, नित नवमंगल मोद बधाए', राम भक्त तो उसी दिन से इस दुर्लभ 'मोद' को आखों में बसा लेने को व्याकुल हो उठे। तत्कालीन महारानी ओरछा के लिए तो यह अनुपम आनंद जीवन का अभीष्ट बन गया। बाद म
वाराणसी। मानस में भगवान राम के विवाहोपरांत अयोध्या लौटने के बाद के प्रसंग को भाव देते हुए गोस्वामी जी की लेखनी ने जब यह लिखा कि 'जेहि दिन राम ब्याहि घर आए, नित नवमंगल मोद बधाए', राम भक्त तो उसी दिन से इस दुर्लभ 'मोद' को आखों में बसा लेने को व्याकुल हो उठे।
तत्कालीन महारानी ओरछा के लिए तो यह अनुपम आनंद जीवन का अभीष्ट बन गया। बाद में ओरछा नरेशों से भेंट के बाद तत्कालीन काशी नरेशों को भी इस प्रसंग ने मंत्रमुग्ध किया और यहीं से यह श्रद्धा राम भारत के एक मात्र 'कोहबर मंदिर' के रूप में साकार हुई। वर-वधू के रूप में श्री राम-जानकी, भरत-मांडवी, लक्ष्मण- उर्मिला और शत्रुघ्न- श्रुतिकृति की एक साथ झांकी और कहीं भी दुर्लभ है।
एक बात जो और उल्लेखनीय है वह है राम प्रभु के आभामंडल से साक्षात्कार के बाद दोनों ही राजघरानों का अपना सब कुछ प्रभु श्री राम के चरणों में समर्पित कर स्वयं राम का दास हो जाना।
ओरछा राज्य का महल तो पहले से ही श्री राम 'प्रासाद' के रूप में समर्पित हो चुका था। आगे चलकर रामनगर (बनारस स्टेट) का समस्त वैभव और कुशल-क्षेम भी 'राम नगरिया राम की, बसे गंग के तीर, अचल राज महराज का चौकी तीहा बीर।' के रूप में प्रभु की चेरी भई। इतिहास गवाह है कि मर्म- कर्म और धर्म से दोनों ही राजघराने 'भाई भरत' की भूमिका में राज-काज चलाते रहे। राजे-रजवाड़े नही रहे मगर उनकी पीढि़यां आज भी इस कौल पर दृढ़ हैं।
श्री राम विवाह पंचमी दोनों राजघरानों का अघोषित राजकीय उत्सव है। शनिवार को पड़ रहे पर्व को लेकर शुक्रवार को जहां रामनगर में तैयारियों की धूम रही वहीं ओरछा में बैठे मानसविद् उदय शंकर दुबे ने फोन पर बताया कि वहां होली-दीपावली की तरह मनाये जाने वाले पंच दिवसीय उत्सव का उल्लास है।
बोलते हैं दस्तावेज-बताते हैं कि गोस्वामी जी की श्रीराम चरित मानस संवत 1631 में जब पूर्ण हुई तो उसी साल महारानी ओरछा अयोध्या गईं और उनकी प्रतिमा महल में स्थापित कर उसे श्री राम 'प्रासाद' घोषित किया।
रिश्ते भाव-स्वभाव के-
दो राजघरानों की स्वाभाविक मैत्री की तरह काशिराज और ओरछा राज के बीच सामान्य स्नेहिल नाते तो थे ही, धार्मिक और आध्यात्मिक स्तर पर भी जमीन एक ही होने की विशिष्टता दोनों को नजदीक से नजदीकतर लाती थी।
संकटमोचन मंदिर की नींव भी इसी भाव पर- प्रसिद्ध संकटमोचन मंदिर का अस्तित्व भी इसी कातर भाव पर टिका हुआ है। यहां अब तक महंतों की जितनी भी परंपरा चलती चली आई है सभी अपने को श्रीराम और रामदूत हनुमान का सेवादार मानते आए हैं। ठीक भी है, आखिर तुलसीदास जी भी तो तू दयालु दीन हौं, तू दानि हौं भिखारी .के भाव को ही भक्ति की पहली सीढ़ी के रूप में स्थापित कर गए हैं।
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