कान्हा करते रहे मनुहार, चंचल गुजरियां ना मानीं
यह भी बृज की होली का ही हिस्सा था, लेकिन अंदाज बरसाना और नंदगांव की लठामार होली से जुदा। कान्हा मनुहार करते रहे तो मां यशोदा भी कहती रहीं-कान्हा छोटे हैं, छड़ियों से चोट लग जायेगी, लेकिन गोकुल की चंचल गुजरिया कान्हा संग छड़ियों से होली खेलती रहीं। फिर क्या था, कान्हा भी रंग में आ गये और गोपियों के साथ दौड़-दौड़ क
मथुरा। यह भी बृज की होली का ही हिस्सा था, लेकिन अंदाज बरसाना और नंदगांव की लठामार होली से जुदा। कान्हा मनुहार करते रहे तो मां यशोदा भी कहती रहीं-कान्हा छोटे हैं, छड़ियों से चोट लग जायेगी, लेकिन गोकुल की चंचल गुजरिया कान्हा संग छड़ियों से होली खेलती रहीं। फिर क्या था, कान्हा भी रंग में आ गये और गोपियों के साथ दौड़-दौड़ कर होली खेलने लगे।
वृंदावन में बांकेबिहारी संग रंग-गुलाल की होली खेलने का क्रम गुरुवार को भी जारी रहा। गोपियां गुरूवार को छड़ी लिये थीं। लाठी के बजाय छड़ी इसलिये ताकि होली खेलते समय कन्हैया को चोट न लग जाये। ग्वाल-बाल भी आश्वस्त थे कि कान्हा की तरह उन पर भी गुजरिया छड़ी ही बरसाएंगी, इसलिये उनके हाथ में ढाल नहीं थीं। हुरियारे-चंचल गुजरिया बनी आज भोरी, कह गोपियों को छेड़ रहे थे।
गुरुवार दोपहर कृष्ण के गांव गोकुल में छड़ीमार होली खेली गई। हुरियारों की छड़ियों से खबर ली गई। कान्हा के रंग में रंगी गोपियों ने किसी को नहीं बख्शा। गोकुल के नंद किला मंदिर से कान्हा को पालकी में बिठाकर मुरलिया घाट तक शोभायात्रा निकाली गई। सबसे आगे चल रहे बैंड की धार्मिक धुनों पर युवा थिरकते चल रहे थे। पीछे कान्हा की पालकी और सबसे पीछे सजी धजी गोपियां हाथों में छड़ी लिए चल रही थीं। शोभायात्रा के स्वागत से सड़क फूलों से पट गई। मुरलिया घाट पर बगीचे में प्रभु ने कुछ देर विश्राम किया और तरह-तरह के व्यंजनों के भोग को चखा। इस दौरान गोपियां देशी-विदेशी श्रद्धालुओं पर छड़ियां बरसाती रहीं। छड़ियों की होली के बाद जब भगवान की झांकी का पर्दा खुला तो कान्हा के जय-जयकार की गूंज तेज हो गई। पुजारियों ने जैसे ही भगवान पर चांदी की पिचकारी से रंग डाला, चारों ओर से अबीर-गुलाल और टेसू के रंग की फुहार होने लगी। पूरा मुरलीधर घाट टेसू के रंग से रंग गया।
बांके बिहारी मंदिर में होली खेलने का क्रम गुरुवार को जारी रहा। सुबह से रंगों की बौछार होती रही। मंदिर के सेवायत पिचकारी में रंग भरते और उसे श्रद्धालुओं पर डाल देते। कभी रंग तो कभी अबीर-गुलाल की वर्षा घंटों मंदिर प्रांगण में होती रही। सप्त देवालयों में भी भगवान संग होली खेलने का सिलसिला जारी रहा । मंदिरों में रसिया, भजन और लोकगीत गायन पर श्रद्धालु नृत्य करते देखे गये।
ढकी थी पालकी-
लाला को नजर से बचाने के लिये नंद किला मंदिर से जिस पालकी में बैठाकर कान्हा की मूर्ति मुरलीधर घाट लाई गई थी, वह ढकी थी। बताया गया कि गोकुल में नंदलाल का बाल्य काल था, यहां से वह नंदगांव गए थे। इसलिये गोकुल में नंदकिशोर के बाल्य रूप की पूजा होती है।
यमुना की दुर्दशा से थे व्यथित- होली देखने आये लोगों को उम्मीद थी कि कलकल करती यमुना की धारा मुरलीधर घाट से टकराती होगी। घाट के उपर विशाल वृक्षों के बीच बालक श्रीकृष्ण के साथ गोकुलवासी हंसी ठिठोली कर रहे होंगे। लेकिन गोकुल बैराज से डाउन स्ट्रीम में निकलते स्याह काले पानी को देखकर सभी का मन व्यथित हो गया। छड़ी मार होली देखने का आकर्षण भी कम हो रहा है।
नंदगांव-बरसाना के उलट गोकुल में गोपियां कान्हा संग खेलती हैं छड़ी से होली। छड़ी मार होली पर फूल, टेसू रंग और अबीर-गुलाल से आसमां हुआ सतरंगी ।