Janmashtami 2022: सबके हृदय में हो श्री कृष्ण का जन्म, तभी पूर्ण होगी जीवन की सार्थकता...
कृष्णपक्ष की अष्टमी के वक्रचंद्र की तरह एक पग पर भार देकर और दूसरा पैर तिरछा रखकर शरीर की कमनीय बांकी अदा के साथ मुरलीधर ने जिस दिन संसार में प्रथम प्राण फूंका उस दिन से आज तक हर एक निराधार मनुष्य को यह आश्वासन मिला है
श्री दत्तात्रय बालकृष्ण कालेलकर। एक ही सूरज रोज-रोज उगता है, फिर भी हर रोज नया प्राण, नया चैतन्य, नवजीवन अपने साथ ले आता है। यह सोचकर कि सूरज पुराना ही है, पक्षी निरुत्साह नहीं होते। कल का ही सूर्य आज आया है, यह कहकर द्विजगण भगवान दिनकर का निरादर नहीं करते। जिस आदमी का जीवन शुष्क हो गया है, जिसकी आंखों का पानी उतर गया है, जिसकी नसों में रक्त नहीं रहा है, उसी के लिए सूरज पुराना है। जिसमें प्राण का कुछ भी अंश है, उसके मन तो भगवान सूर्यनारायण नित्य नूतन हैं। जन्माष्टमी भी हर साल आती है। प्रतिवर्ष वही की वही कथा सुनते हैं, उसी तरह उपवास करते हैं, फिर भी हजारों वर्षों से जन्माष्टमी हमें उस जगद्गुरु का नया ही संदेश देती आई है।
नहि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति।
भाई, जो सन्मार्ग पर चलता है, जो धर्म पर डटा रहता है, उसकी किसी काल में दुर्गति नहीं होती।
कुछ लोग सोचते हैैं कि धर्म दुर्बल लोगों के लिए है। व्यक्तियों के आपसी संबंध में उसकी कुछ उपयोगिता होगी, पर राजा और सम्राट तो जो करें, वही धर्म है। ईश्वर की विभूति से भी साम्राज्य की विभूति श्रेष्ठतर है। उन लोगों की तरह ही मथुरा में कंस की भावना भी ऐसी ही थी, मगध देश में जरासंध का ऐसा ही विचार था, चेदिदेश में शिशुपाल की यही मनोदशा थी, जलाशय में रहने वाला कालियानाग यही मानता था, द्वारका पर चढ़ाई करने वाले कालयवन का यही फलसफा था, महापापी नरकासुर को यही शिक्षा मिली थी और दिल्ली का सम्राट कौरवेश्वर भी इसी वृत्ति में पलकर बड़ा हुआ था। ये तमाम महापराक्रमी राजा अंधे या अज्ञानी न थे, उनके दरबार में इतिहासवेत्ता, अर्थशास्त्रविशारद और राजधुरंधर अनेक विद्वान थे। वे अपने शास्त्रों का मंथन करके उनका नवनीत निकालते और अपने सम्राटों के सामने रखते थे। परंतु रजारंध कहता - आपके ऐतिहासिक सिद्धांतों को रहने दीजिए, मेरा पुरुषार्थ अपने बुद्धिबल और बाहुबल से आपके इन सिद्धांतों को मिथ्या सिद्ध करने में समर्थ है। कालयवन कहता -मैं एक ही अर्थशास्त्र जानता हूं, दूसरे देशों को लूटकर उनका धन छीन लेना। शिशुपाल कहता- न्याय अन्याय की बात प्रजा के आपसी कलह में चल सकती है। हम तो सम्राट ठहरे। प्रतिष्ठा और पद ही हमारा धर्म है। कौरवेश्वर कहता- जितने रत्न हैं, सब हमारी विरासत हैैं, वे हमारे पास ही आने चाहिए। दुनिया में जितने सरोवर हैैं, हमारे विहार के लिए हैं। बगैर लड़े हम किसी को सूई की नोंक के बराबर भी भूमि न देंगे।
पक्षपात शून्य नारद ने कंस को सचेत कर दिया था कि पराये शत्रु के मुकाबले में तू भले सफल हुआ हो, पर तेरे परिवार के अंदर ही तेरा शत्रु पैदा होगा। जिस सगी बहन को तूने दासी की तरह रखा हुआ है, उसी के पुत्र के हाथों तेरा नाश होगा, क्योंकि वह धर्मात्मा होगा। कंस ने मन में विचार किया- समय से पहले चेतावनी मिल गई, तो बारिश से पहले बांध न बांधा तो हम इतिहासज्ञ कैसे? हम सम्राट कैसे? नारद ने कहा - यह तेरी विनाशकाल की विपरीत बुद्धि है। मैं जो कह रहा हूं, वह इतिहास का सिद्धांत नहीं, धर्म का सिद्धांत है, जो सनातन सत्य है। वसुदेव देवकी के आठ बालकों में से एक के हाथों अवश्य ही तेरी मृत्यु होगी। उपाय एक ही है- पश्चाताप कर और श्रीहरि की शरण में जा। अभिमानी कंस ने तिरस्कारपूर्ण हास्य से उत्तर दिया- समरभूमि में पराजित हुए बिना सम्राट पश्चाताप नहीं करते। तथास्तु कहकर नारद चले गए। कंस ने सोचा, धर्म के नाम पर शरण जाने में बदनामी है, धर्म का साम्राज्य साधु-संतों, वैरागियों और देव-ब्राह्मïणों को मुबारक, मैं तो सम्राट हूं और इसकी शक्ति को पहचानता हूं।
क्रूर बनकर कंस ने वसुदेव के सात निरपराध अर्भकों का खून किया। श्रीकृष्ण जन्म के समय ईश्वरीय लीला प्रबल रही और श्रीकृषअम परमात्मा के बदले कन्या देहधारी शक्ति कंस के हाथ आई। कंस ने उसे जमीन पर पटका, परंतु कहीं शक्ति शक्ति से मरने वाली थी। वसुदेव ने गुप्त रीति से श्रीकृष्ण को गोकुल में रखा। परंतु परमात्मा को तो कोई बात छिपानी नहीं थी। शक्ति ने अट्टïहास के साथ कंस से कहा- तेरा शत्रु तो गोकुल में पल रहा है। कंस ने कृष्ण को मारने में जितने सूझे, उतने प्रयत्न किए। परंतु वह यही न समझ सका कि श्रीकृष्ण की मौत किसमें हैैं। श्रीकृष्ण अमर तो नहीं थे, पर मरणाधीन भी नहीं थे। धर्मकार्य करने वे आए थे। जब तक धर्मराज्य स्थापित न हो, वे कैसे विरमते? कंस ने सोचा श्रीकृष्ण को अपने दरबार में बुलाकर मारा जाय, पर यहीं उसने धोखा खाया, क्योंकि प्रजा ने परमात्व तत्व को पहचाना और प्रजा परमात्मा के अनुकूल बन गई।
कंस का नाश देखकर जरासंध को सावधान हो जाना चाहिए था, पर जरासंध ने सोचा, नहीं मैैं कंस से अधिक जागरूक हूं, मैंने अनेक भिन्न-भिन्न अवयवों को जोड़कर अपना साम्राज्य सबल बनाया है। मल्ल युद्ध में मेरी जोड़ का कौन है? मेरी नगरी का कोट दुर्भेद्य है, मुझे डर किस बात का? जरासंध की भी दो फांकें हुईं। कालियानाग का विष असह्य था, एक फुफकार से बड़ी-बड़ी सेनाओं को मार डालता था। उसके भी विष की कुछ न चली। कालयवन चढ़ आया, परंतु सोए हुए मुचकुंद की क्रोधाग्नि से वह बीच में ही जलकर राख हो गया। नरकासुर एक स्त्री के हाथों भस्म हुआ, कौरवेश्वर दुर्योधन द्रौपदी की क्रोधाग्नि में स्वाहा हुआ और शिशुपाल को उसकी भगवत-निंदा ने मार डाला।
षड्रिपु-से ये छह सम्राट उन दिनों मर गए। सप्तलोक और सप्तपाताल सुखी हुए और जन्माष्टमी सफल हुई। फिर भी हम इतने वर्षों से हम यह उत्सव क्यों मनाते हैैं? इसीलिए कि आज भी हमारे हृदयों से षड्रिपुओं का नाश नहीं हुआ है, वे हमें अत्यंत पीड़ा पहुंचाते हैैं। हम प्राय: हिम्मत हार बैठते हैैं। ऐसे वक्त हमारे हृदयों में श्रीकृष्ण का जन्म होना चाहिए। जहां पाप है, वहां पाप पुंजहारी भी हैैं, इस आशा को हमारे हृदय में उदर होना चाहिए। मध्यरात्रि के अंधकार में कृष्ण चंद्र का जन्म हो, तभी निराश विश्व धर्म में दृढ़ रह सकता है।
(गीता प्रेस कल्याण के श्रीकृष्णांक से साभार)