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उत्सव में डूबा नंदा का मायका

सिद्धपीठ कुरुड़ में उत्सव का माहौल है। आभूषणों से सुसज्जित श्री नंदा राजराजेश्वरी की डोली वेदनी कुंड के लिए प्रस्थान कर रही है। जागरों की गूंज से वातावरण आलौकित हो रहा है और थिरक रहा है नंदा का थान। मंदिर के ठीक सामने नंदाकिनी घाटी का विहंगम नजारा देखते ही

By Preeti jhaEdited By: Published: Tue, 08 Sep 2015 03:13 PM (IST)Updated: Tue, 08 Sep 2015 03:16 PM (IST)
उत्सव में डूबा नंदा का मायका

देहरादून। सिद्धपीठ कुरुड़ में उत्सव का माहौल है। आभूषणों से सुसज्जित श्री नंदा राजराजेश्वरी की डोली वेदनी कुंड के लिए प्रस्थान कर रही है। जागरों की गूंज से वातावरण आलौकित हो रहा है और थिरक रहा है नंदा का थान। मंदिर के ठीक सामने नंदाकिनी घाटी का विहंगम नजारा देखते ही बनता है। चारों ओर चीड़, बांज, बुरांश, देवदार आदि के वृक्षों से सुशोभित ऊंची-ऊंची पर्वत श्रृंखलाएं घाटी के सौंदर्य में अभिवृद्धि कर रही हैं। आप यहां से दो किमी की दूरी पर पर शिलासमुद्र ग्लेशियर से उद्गम लेने वाली मंदाकिनी नदी की कल-कल भी महसूस कर सकते हैं। उधर, दशोली-घाट की नंदा डोली भी बालपाटा सप्तकुंड के लिए प्रस्थान कर गई है। ऐसे दिव्य वातावरण में कौन नहीं भला खुद के अस्तित्व को बिसरा बैठेगा।

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नंदाष्टमी के दिन वेदनी कुंड व बालपाटा के अलावा नंदीकुंड व क्वांरीपास में भी लोकजात संपन्न होती हैं। लेकिन, चमोली जिले में ही कई गांव अथवा ग्राम समूह ऐसे हैं, जो इन चार बड़े क्षेत्रों की जात में शामिल नहीं हो सकते। वे अपने-अपने जात क्षेत्र में जाते हैं। लोक विशेषज्ञ डॉ.नंदकिशोर हटवाल लिखते हैं कि इस यात्रा में अलकनंदा, नंदाकिनी व पिंडर घाटी केलगभग सभी गांवों की भागीदारी रहती है। जिसमें संपूर्ण जोशीमठ, दशोली, घाट, कर्णप्रयाग, नारायणबगड़, थराली और देवाल विकासखंड शामिल हैं। यानी नंदाष्टमी की यात्र में चमोली जनपद के नौ में से सात विकासखंडों के 803 गांव हिस्सेदारी करते हैं। समझा जा सकता है कि वार्षिक श्री नंदा देवी लोकजात का दायरा श्रीनंदा देवी राजजात से कई विस्तृत है।

इतिहासकार डॉ. शिवप्रसाद नैथानी लिखते हैं कि कुरुड़-देवराड़ा की वार्षिक जात भादौ शुक्ल पक्ष युक्ता भरणी सप्तमी को वेदनी बुग्याल पहुंचती है। इस यात्र के वाण तक नौ पड़ाव हैं, जिनमें कई तो मात्र दो-दो मील की दूरी पर पड़ते हैं। वजह, रास्ते में जगह-जगह उत्सव व दर्शनार्थियों का पूजन क्रम चलता रहता है और मार्ग भी ऊबड़-खाबड़ तथा कहीं पर विकट चढ़ाई-उतार वाला होता है। वाण से पहले लोहाजंग में तो देवी दर्शन का बड़ा मेला भी लगता है। वाण से नंदा के धर्म भाई लाटू देवता को आगे कर जात छह किमी की दूरी पर गैरोली पातल में विश्रम करती है। डॉ. नैथानी लिखते हैं कि यहां वृक्षों पर असंख्य लोहे के वाण चुभे हुए और अटके हुए आज भी देखे जा सकते हैं। जिनमें से कुछ गढ़वाल विश्वविद्यालय, श्रीनगर के संग्रहालय में सुरक्षित हैं। यहां पर यात्रियों से छंतौली सेर कर की वसूली भी होती है। इसके बाद उत्सव यात्रा सप्तमी-अष्टमी को वेदनी बुग्याल के मनोरम ढाल से होती हुई वेदनी कुंड पहुंचती है। यही लोकजात का चरम बिंदु है।


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