बेहद उल्लासभरी होती थी 100 साल पहले दून की होली
सौ साल पहले देहरादून की होली बेहद उल्लास भरी हुआ करती थी। खासतौर पर शमशेरगढ़ और बालावाला में झुम्मालाला का ढप वादन तरंगे पैदा कर देता था। सफेद कुर्ता-पायजामा और टोपी पहनकर होल्यार घर-घर जाते थे। खासतौर पर देहातों में 'देहरे की होली' प्रसिद्ध थी। होल्यार घर-घर जाकर होली गाते और लोग गुड़ की भेली देते थे।
देहरादून। सौ साल पहले देहरादून की होली बेहद उल्लास भरी हुआ करती थी। खासतौर पर शमशेरगढ़ और बालावाला में झुम्मालाला का ढप वादन तरंगे पैदा कर देता था। सफेद कुर्ता-पायजामा और टोपी पहनकर होल्यार घर-घर जाते थे। खासतौर पर देहातों में 'देहरे की होली' प्रसिद्ध थी। होल्यार घर-घर जाकर होली गाते और लोग गुड़ की भेली देते थे। जयकारा गूंजता- 'जय बोलो रे भेली वालों की'। फिर इसी भेली का प्रसाद बंटता था। होली में राधा-कृष्ण के संदर्भ बृजभाषा में स्वरबद्ध होते, जैसे कुमाऊं-गढ़वाल में आज भी जीवित हैं।
जनकवि एवं रंगकर्मी डॉ.अतुल शर्मा बताते हैं कि 60-70 साल पहले हफ्तों पहले साहित्यिक गोष्ठियां होने लगती थी। साहित्यिक गतिविधियों के केंद्र होते थे श्रीराम शर्मा 'प्रेम' जैसे साहित्यकार। शेरजंग गर्ग ने एक संस्मरण में लिखा है कि इन गोष्ठियों में महापंडित राहुल सांकृत्यायन भी आते थे। गोष्ठियां एस्लेहाल स्थित छायाकार ब्रह्मदेव के आरके स्टूडियो में होती थी। वह बताते हैं कि सौ वर्ष पहले से चली आ रही 'फालतू लाइन होली समिति' का उत्साह देखते ही बनता था। इस मंच से ही जीत सिंह नेगी, केशव अनुरागी, शिव प्रसाद पोखरियाल, उर्मिल थपलियाल, विश्वमोहन बडोला, जीत जड़धारी जैसे कलाकार सामने आए, जिन्होंने आगे भी मुकाम बनाया। उस दौर में होलिका दहन सेंट थॉमस स्कूल में होता था। आनंद ढौंडियाल काका और जगत दाजी सुबह ही निकले पड़ते। पं. खुशदिल, जिया नहटौरी, शशिप्रभा शास्त्री, विष्णुदत्त राकेश, विकल, श्रीमन, कृष्ण कुमार कौशिक जैसे होल्यारों की यादगार महफिलें सजा करती थीं। बात-बात पर चुटकियां लेते कुल्हड़ कवि और पार्थसारथी डबराल इस दौरान तरंग में रहते थे।
उमंग नहीं, हुड़दंग की होली-
कहते हैं होली जैसा न कोई पर्व है न उत्सव। पुराने समय में यह ऐसा पर्व हुआ करता था, जिसने टूटे दिलों को भी जोड़ने का काम किया, लेकिन कालांतर में वक्त की मार इस त्योहार पर भी पड़ी और उल्लास व उमंग की जगह हुड़दंग ने ले ली। मेलमिलाप व प्यार-प्रेम पर वैमनस्य हावी होने लगा और लोग रंगों के इस उत्सव से दूरी बनाने लगे। धीरे-धीरे सद्भाव की उम्मीदें क्षीण होने लगीं और परवान चढ़ने लगा दुर्भाव। राजधानी के ही हालात देंखे तो पिछले कुछ सालों में लोग शांतिपूर्ण होली जैसा शब्द ही भूल चुके हैं।