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मर्यादा की 'नजरोंÓ से रास्ते पर 'आंखेंÓ

ये मर्यादा का हुनर और नजर हैं। इनसे हजारों हजार साल पुरानी होली में केसर की वही पुरानी महक है। पवित्र, निश्छल परंपराओं पर आधुनिकता का तूफान लेशमात्र भी प्रभाव नहीं डाल सका है। किन उपायों से परंपरा की शालीनता को संजोये रखा है, ये बुढ़ा चुकी उमर ही जानती

By Preeti jhaEdited By: Published: Sat, 28 Feb 2015 12:17 PM (IST)Updated: Sat, 28 Feb 2015 12:21 PM (IST)
मर्यादा की 'नजरोंÓ से रास्ते पर 'आंखेंÓ

बरसाना (मथुरा)। ये मर्यादा का हुनर और नजर हैं। इनसे हजारों हजार साल पुरानी होली में केसर की वही पुरानी महक है। पवित्र, निश्छल परंपराओं पर आधुनिकता का तूफान लेशमात्र भी प्रभाव नहीं डाल सका है। किन उपायों से परंपरा की शालीनता को संजोये रखा है, ये बुढ़ा चुकी उमर ही जानती है। परंतु फिर भी मर्यादा के शिरोधार्यों को चिंता तो सता ही रही है।

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एक सवाल बार-बार मन में उठता है कि कहीं आधुनिकता की तेज होती दस्तक उनके बाद पर्व के दस्तूरों में कोई अलग रंग न घोल दे। शुक्रवार को नंदगांव से हुरियारे होली खेलने के लिए बरसाना आए। भुमिया गली पर बैठे बुजुर्ग लज्जाराम, सियाराम, योगेश गोस्वामी हंसी-ठिठोली कर रहे थे। उम्र का आंकडा भले ही ज्यादा हो, मगर इनमें मस्ती पूरी तरह से जवां थी। करीब 69 वर्षीय लज्जाराम होली का नाम लेते ही उछल पड़े। बोले, अभी तो मैं जवान हुूं। होली खेलुंगो। भीड़ से ही सवाल उछला कोई गोरी मिल गई, तपाक से जवाब आया, जरूर मिलेगी। करीब इतनी ही उम्र के सियाराम तो इतने उत्साहित थे कि अपने हमउम्र से जल्दी होली खेलने के लिए चलने को कह रहे थे। एक स्कूल में प्रवक्ता योगेश गोस्वामी भी पूरी तरह तरंग में थे। जब उनसे पुछा गया कि किया आप भी होली, खेलेंगे, के जवाब में ये थोडा गंभीर हो गए। बोले, हमारा आना बहुत जरूरी है। वक्त बदल रहा है। अब युवा इस पर्व की मर्यादा का उतना ख्याल नहीं रख पा रहा है।

हम जानते हैं कि किस तरह परंपरा की पवित्रता को बरकरार रख पाए हैं। नई पीढ़ी उत्साहित तो रहती है, वह पर्व से अपने आपको जोड़ती है, लेकिन दिशा भटकने का इशारा दिख जाता है। यह हमारी नजह ही है कि उन्हें रास्ते से नहीं भटकने देती। समय-समय पर पदगायन के पीछे उददेश्य भी यही रहता है कि हजारों हजार साल पुरानी इस परंपरा की महत्ता को युवा समझ लें।

एक ही दिन- इस मस्ती का आधार क्या है, ये बूढें हुरियारे कहने लगे कि यही तो ब्रज है। एक दिन के लिए हम लोग दुनियादारी भूल जाते हैं। रिश्तों के दायरे खत्म हो जाते हैं। उम्र का आंकडा कोई मायने नहीं रखतां। एक दिन की मस्ती अगले साल तक होली खेलने की ताजगी बनाए रखती है। वरना तो जिंदगी जीना आज के दौर में बहुत दुश्वार है। महंगाई बढ़ रही है, हाईटेक यूथ संवेदनहीन हो गया है।

एक दिन की हीरोइन- लाखों का हुजूम। अपने-अपने में कोई किसी से कम नहीं। मगर लठामार होली के दौरान तो हुरियारिनें ही हीरो थीं। आम हो या खास ब्राह्मण परिवार, हुरियारिनें के रूप में लठामार होली के दौरान हर घर की भागीदारी थी। हुरियारिन का मतलब सिर्फ महिला से ही न आंकिए। सोलह श्रंगार से सजी-धजी ये हुरियारिन जब हाथ में ल_ थाम निकली तो इनके तेवर और तेजी फौलादी दिल भी घबरा गए। बरसाना में गली-गली में कदम-कदम पर भले ही अबीर-गुलाल उडाया जाता रहा हो, रंग बरसाया गया हो मगर मजाल क्या कि इन हुरियारिनों पर कोई रंग की एक बूंद भी डाल दे। नई नवेली हुरियारिन को जितना उमंग लाठी बरसाने की होती है, पर्व के कई रंग देख चुकीं हुरियारिनें भी तरंगता में खुद को उतना ही तरोताजा समझती हैं। हां, लठामार होली के दौरान हुनर, उम्र और अनुभव साफ झलका। लठ बरसाते बूढ़े हाथों में दम था। दनादन और तड़ातड़ लाठियां चलाईं। कभी इधर तो कभी उधर। अगले ही कदम दूसरा हुरियारा सामने पड़ता। फिर लाठी पर लाठी। अगर किसी हुरियारिन का ल_ हुरियारे के ढाल पर नहीं पड़ता तो पास में खड़े परिजन एक उस्ताद की तरह ंसमझाते-बताते। कुछ पल रूक कर फिर लाठी बरसातीं और फिर होने लगती राधे-राधे।


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