रंग अधूरे, रंग पर्व के अंग अधूरे
ठुकुरसुहाती न होने की वजह से संस्कृति के अलमबरदार होने का दम भरने वाले कुछ लोगों को थोड़ी नागवार भले ही क्यूं न गुजरे बात सोलहो आने खरी है, कि रंगपर्व होली के रंग और रंगों के अंग अपने बनारस में तब तक अधूरे हैं तब तक यहां की 'आधी
वाराणसी। ठुकुरसुहाती न होने की वजह से संस्कृति के अलमबरदार होने का दम भरने वाले कुछ लोगों को थोड़ी नागवार भले ही क्यूं न गुजरे बात सोलहो आने खरी है, कि रंगपर्व होली के रंग और रंगों के अंग अपने बनारस में तब तक अधूरे हैं तब तक यहां की 'आधी आबादीÓ पर्व के रगों-उमंगो से बरी (वंचित) है।
बात तब और भी गंभीर हो जाती है जब यह 'सचÓ सबके सामने हो कि गौरी-केदार की उपाधि से अलंकृत स्वयं काशीपुराधिपति विश्वनाथ यहां अर्धनारीश्वर स्वरूप में विराज कर सारी दुनिया को नारी सशक्तिकरण का अर्थ बताते हों। परम विदुषी रेणुका, रानी लक्ष्मी बाई, महारानी अहिल्या बाई, रानी भवानी और माता आनंदमयी के योगदान के किस्से गीतों की शक्ल में घर-घर गाये जाते हों। क्या यह शोचनीय नहीं हैं कि पुरा संस्कृति और संस्कारों के प्रतिनिधि शहर की महिलाएं सिर्फ मर्यादाओं के टूटने और कुंठाओं के अश्लीलता के नासूर की तरह फूटने की वजह से पूरे समाज की नुमाइंदगी करने वाले इस महापर्व से आंख चुराती हों। अपनी उमंगों का गला घोंट कर रसोई घर की चौखट लांघ पाने की हिम्मत न जुटा पाती हों।
आइए मिलते हैं इस दुसह स्थिति से हर साल ही दो-चार होती महिलाओं से। रूबरू होते हैं उनके मन में घुमड़ती व्यथाओं से- मैदागिन इलाके की रहनवार सरोज चौरसिया होली के दो दिन पहले ही घर छोड़ कर मायके चली जाती हैं। वजह है मस्ती के नाम पर अश्लीलता को हदें पार करने वाले फूहड़ नारे और ऐन होली के दिन पड़ोस में आयोजित होने वाला वह द्विअर्थी कवि सम्मेलन जिसके चलते वे हर साल अपने आप को अटपटी स्थिति में पाती हैं। औरों की कौन कहे मारे शर्मिदगी के अपने पति तक से नजरें नहीं मिला पाती हैं।
भेलूपुर इलाके की पिंकी पांडेय तो पर्व के दो-तीन दिन पहले ही त्योहार का सौदा-सुलुफ खरीद कर अपने को घर के अंदर कैद कर लेती हैं। वजह होलियाना हुड़दंगई के बहाने फाश गालियों, अश्लील फब्तियों और सड़क से दीवारों तक अंकित बेहूदे प्रतीकों और अखबारों की तरह खुले आम बंटते अश्लील साहित्यको बरदाश्त न कर पाने की लाचारगी। ईश्वरगंगी की पूनम अग्रवाल के बयान में उनकी पीड़ा महसूस की जा सकती है। कहती हैं- लोगों को उमंग के पर्याय इस पर्व के आने का इंतजार रहता है। यकीन मानें भागीदारी की कौन कहे हम महिलाएं त्योहार के किसी तरह गुजर जाने की प्रार्थना करती हैं। मन ललक कर रह जाता है टीवी पर बृज व मथुरा की होली की झांकी देख कर।1हमने ही बदला है, हम ही बदलेंगे
बावजूद इस त्रासद स्थिति के शिक्षण प्रबंधन से जुड़ी सामाजिक कार्यकर्ता करुणा यादव निराश नहीं हैं। उनका मानना है कि शिक्षा के प्रचार-प्रसार और महिलाओं के प्रबल प्रतिरोध के चलते बहुत कुछ बदला है और बहुत कुछ बदलेगा। नजीर देती हैं- सालों साल से अस्सी पर आयोजित होने वाले उस भोंडे आयोजन की जिसके चलते मुहल्ले की महिलाओं को अपने कानों में रूई ठूंसनी पड़ती थी। जिसे महिलाओं के ही मजबूत दबाव के चलते बंद करना पड़ा। उन्हें अब भी भरोसा है कि एक न एक दिन आएगी ऐसी होली। जब सड़कों पर झांझ बजाते निकलेगी हम महिलाओं की भी टोली। उसी दिन हम होली के उमंग से जी भर कर मिलेंगे। रंग पर्व के रंगों को पूणर्ता मिलेगी। अबीर-गुलाल के टीके हर चेहरे पर खिलेंगे।