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अहोई अष्टमी 2018: अदभुद है इस व्रत का महत्व आैर इसकी कथा देती है अनहोनी बदल देने की प्रेणना

पंडित दीपक पांडे ने अहोर्इ अष्टमी के व्रत का महातम्य स्पष्ट करते हुए बताया कि इस व्रत को संतान के कल्याण के लिए मातायें रखती हैं।

By Molly SethEdited By: Published: Tue, 30 Oct 2018 01:24 PM (IST)Updated: Wed, 31 Oct 2018 10:25 AM (IST)
अहोई अष्टमी 2018: अदभुद है इस व्रत का महत्व आैर इसकी कथा देती है अनहोनी बदल देने की प्रेणना
अहोई अष्टमी 2018: अदभुद है इस व्रत का महत्व आैर इसकी कथा देती है अनहोनी बदल देने की प्रेणना

संतान के संकट हरने वाला व्रत 

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ज्योतिष शास्त्र के अनुसार जन्मपत्रिका के चतुर्थ भाव पर चंद्रमा का अधिकार होता है। इस भाव को मजबूत कर लिया जाये तो जन्म पत्रिका के कर्इ दोष दूर हो जाते है। इसी के निमित्त अहोई अष्टमी का व्रत किया जाता है जो कार्तिक कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन होता है। इसीलिए संतानवती महिलाओं के लिए यह व्रत अत्यन्त महत्वपूर्ण मानते हैं। कहते हैं कि इसे करने से साल पर संतान पर कोर्इ संकट नहीं आता है। इस वर्ष ये व्रत 31 अक्टूबर 2018 बुधवार को किया जायेगा। माताएं अहोई अष्टमी के व्रत में दिन भर उपवास रखती हैं और सायंकाल तारे या चंद्रमा के दर्शन के बाद होई का पूजन करके व्रत खोलती हैं। तारों आैर चंद्रमा को करवा से अर्घ्य भी दिया जाता है। इस दिन गेरु से दीवार पर अहोर्इ बनाई जाती है या फिर उसका कैलेंडर बना कर लगाया जाता है। कुछ लोग किसी मोटे वस्त्र पर अहोर्इ काढकर दीवार पर लगा लेते हैं। ये व्रत दीपावली के आठ दिन पहले आैर करवाचौथ के चार दिन बाद मनाया जाता है। यह व्रत संतान की लम्बी आयु और सुखमय जीवन की कामना से महिलाएं करती हैं। कृर्तिक मास की अष्टमी तिथि को कृष्ण पक्ष में यह व्रत रखा जाता है इसीलिए इसे अहोई अष्टमी के नाम से जाना जाता है। इस व्रत से दीपावली पर्व का आरंभ भी माना जाता है। 

अहोर्इ का स्वरूप 

अहोई के चित्र में आमतौर पर आठ कोष्ठक की एक पुतली बनाई जाती है। उसी के पास साही तथा उसके बच्चों की आकृतियां बना दी जाती हैं। करवा चौथ के ठीक चार दिन बाद अष्टमी तिथि को देवी अहोई माता का व्रत किया जाता है। उत्तर भारत के अधिकांश इलाकों में अहोई माता का स्वरूप वहां की स्थानीय परंपरा के अनुसार बनता है। सम्पन्न घर की महिलाएं चांदी की अहोई बनवाती हैं। जमीन को गोबर से लीपकर कलश की स्थापना की जाती है। अहोई माता की पूजा करके उन्हें दूध-चावल का भोग लगाया जाता है। उसके बाद एक लकड़ी के पटरे पर जल से भरा लोटा रखकर कथा सुनी जाती है। अहोई अष्टमी की पौराणिक कथा इस प्रकार है। 

अहोर्इ व्रत कथा

प्राचीन काल में एक साहुकार था, जिसके सात बेटे और सात बहुएं थी। साहुकार की एक बेटी भी थी जो दीपावली में ससुराल से मायके आई थी। दीपावली पर घर को लीपने के लिए सातों बहुएं मिट्टी लाने जंगल में गई तो ननद भी उनके साथ हो ली। साहुकार की बेटी जहां मिट्टी काट रही थी उस स्थान पर एक स्याहु (साही) अपने साथ बेटों से साथ रहती थी। मिट्टी काटते हुए ग़लती से साहूकार की बेटी की खुरपी के चोट से स्याहू का एक बच्चा मर गया। स्याहू इस पर क्रोधित होकर बोली मैं तुम्हारी कोख बांधूंगी। स्याहू के वचन सुनकर साहूकार की बेटी अपनी सातों भाभीयों से एक एक कर विनती करती हैं कि वह उसके बदले अपनी कोख बंधवा लें। सबसे छोटी भाभी ननद के बदले अपनी कोख बंधवाने के लिए तैयार हो जाती है। इसके बाद छोटी भाभी के जो भी बच्चे होते हैं वे सात दिन बाद मर जाते हैं। सात पुत्रों की इस प्रकार मृत्यु होने के बाद उसने पंडित को बुलवाकर इसका कारण पूछा। पंडित ने सुरही गाय की सेवा करने की सलाह दी। सुरही सेवा से प्रसन्न होती है और उसे स्याहु के पास ले कर चलती है। रास्ते में थक जाने पर दोनों आराम करने लगते हैं अचानक बहू की नज़र एक ओर जाती हैं, वह देखती है कि एक सांप, गरूड़ पंखनी के बच्चे को डंसने जा रहा है। वह सांप को मार देती है, तभी गरूड़ पंखनी वहां आ जाती है और खून बिखरा हुआ देखकर उसे लगता है कि छोटी बहु ने उसके बच्चे के मार दिया है। वह छोटी बहू को चोंच मारना शुरू कर देती है। तब बहु बताती है कि उसने तो उसके बच्चे की जान बचाई है। गरूड़ पंखनी इस पर खुश होती है और सुरही सहित उन्हें स्याहु के पास पहुंचा देती है। वहां स्याहु छोटी बहू की सेवा से प्रसन्न होकर उसे सात पुत्र और सात बहु होने का आशीर्वाद देती है। स्याहु के आशीर्वाद से छोटी बहु का घर पुत्र और पुत्र वधुओं से हरा भरा हो जाता है। 


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