श्राद्ध में इन उपायों से परिवार में सुख-शांति, यश-वैभव की वृद्धि होती है
आश्विन कृष्ण अमावस्या को सर्वपितृ अमावस्या कहते हैं । जिन पूर्वजों की मृत्यु तिथि याद न हो उनका श्राद्ध इस दिन कर पितरों को तर्पण किया जाता है और दान-पुण्य कर विसर्जित किया जाता है।
श्राद्ध पक्ष में पितृ पूजा के साथ-साथ जीव संरक्षण भी होता है। 16 दिनों तक होने वाले श्राद्ध में पशु-पक्षियों को भी भोजन कराया जाता है। इसके अलावा पितरों को नदी, तालाब और जलाशयों में तर्पण देने की परंपरा प्रकृति संरक्षण से जुड़ी है। शुक्रवार से पंचक भी शुरू हो गए हैं। शास्त्रों के अनुसार श्राद्ध पक्ष में वसुगण, रूद्रगण और आदित्यगण (तीन पीढ़ी)का पूजन किया जाता है।
ज्योतिषाचार्य के मुताबिक, नदी, तालाब, जलाशय या घर की देहरी पर तर्पण कर सकते हैं। पितरों को पानी देने वाला अनामिका अंगुली में कुशा पहने। दक्षिणमुखी होकर अंजली में जल भरकर 5 या 11 बार तर्पण करें। प्रतिदिन गीता का पाठ करें। तर्पण क्रिया के बाद ही भोजन ग्रहण करें।
दान का महत्व
श्राद्ध पक्ष में गाय, भूमि, तिल, सोना, घी, गुड़, वस्त्र, धान, चांदी और नमक के दान का खास महत्व होता है। तुलसी की गंध से पितृगण प्रसन्न होते हैं। पानी देने वाले को ब्रह्मचर्य, जीमन पर सोना व वाणी पर संयम रखने के नियम का पालन करना होता है। दूध से बने पदार्थ का भोजन बनाएं। श्राद्ध पक्ष धार्मिक व जीव संरक्षण दोनों के लिए खास है। पूर्वजों का श्राद्ध कर जीवों को भोजन खिलाया जाता है। इसके अलावा पिंड दान से नदी व तालाबों में मछलियों को भोजन मिलता है। पिंड आटा या चावल के बने होते हैं। पूजा के बाद इनका विसर्जन जल स्त्रोत में किया जाता है। साथ ही नदी, तालाब, कुंओं पर तर्पण करने की परंपरा से प्राकृतिक जलस्त्रोत का संरक्षण होता है।
पूर्वजों का आभार व्यक्त करने का महापर्व: पितृपक्ष
पितृपक्ष अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने का पावन अवसर है। श्रद्धा से किए गए भारतीय मनीषा के अनुसार इस धरती पर जीवन लेने के पश्चात् प्रत्येक मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण होते हैं— (1) देव ऋण (2) ऋषि ऋण (3) पितृ ऋण। पितृपक्ष में अपने पूर्वजों के स्मरण और उनके प्रति कृतज्ञता का ज्ञापन हमें उपरोक्त तीनों ऋणों से मुक्त कर देता है।
पूजा-पाठ, तर्पण, पिंडदान आदि से पूर्वज प्रसन्न होते हैं और इससे परिवार में सुख-शांति, यश-वैभव और सुसंतति की वृद्धि होती है। महाभारत के प्रसंग के अनुसार---- मृत्यु के उपरांत कर्ण को चित्रगुप्त नेमोक्ष देने से इन्कार कर दिया। कर्ण ने कहा, “मैंने तो अपनी अर्जित सारी संपदा सदैव दान-पुण्य में ही अर्पित की है, फिर मेरे ऊपर यह कैसा ऋण बचा हुआ है?” चित्रगुप्त ने जवाब दिया, “राजन्, आपने देव ऋण और ऋषि ऋण तो चुका दिया है, लेकिन आपके ऊपर अभी पितृ ऋण बाकी है। जब तक आप इस ऋण से मुक्त नहीं होंगे, तब तक आपको मोक्ष मिलना कठिन होगा”। इसके उपरांत धर्मराज ने कर्ण को व्यवस्था दी, “आप 16 दिन के लिए पुनः पृथ्वी पर जाइए और अपने ज्ञात और अज्ञात पितरों का सविधि श्राद्ध, तर्पण तथा पिंडदान करके आइए। तभी आपको मोक्ष की प्राप्ति होगी”।
मत्स्यपुराण के अनुसार ‘त्रिविधं श्राद्धमुच्यते’ अर्थात् तीन प्रकार के श्राद्ध कहे गए हैं— (1) नित्य श्राद्ध(2) नैमित्तिक श्राद्ध एवं (3) काम्य श्राद्ध।
वैदिक मान्यताओं के अनुसार माता-पिता आदि पितरों के निमित्त उनके नाम और गोत्र के उच्चारण के साथ मंत्रों द्वारा जो अन्न आदि अर्पित किया जाता है, वह उनको उनके कर्मों के अनुसार प्राप्त हो जाताहै। यदि अपने कर्मों के अनुसार उनको देव योनि प्राप्त होती है तो वह अमृत रूप में उनको प्राप्त होता है। उन्हें गन्धर्व लोक प्राप्त होने पर भोग्य रूप में, पशु योनि में तृण रूप में, सर्प योनि में वायु रूप में, यक्ष योनि में पेय रूप में, दानव योनि में मांस के रूप में, प्रेत योनि में रुधिर के रूप में और मनुष्य योनि में अन्न आदि के रूप में उपलब्ध होता है। श्राद्धकाल उपस्थित होने पर पितृगण मनोमय रूप से श्राद्धस्थल पर उपस्थित रहते हैं और ब्राह्मणों के साथ वायु रूप में अपना भाग ग्रहण करते हैं।
अतः आरोग्य, धन-सम्पदा, सन्तति, आयुष्य आदि की कामना-पूर्ति के लिए पितरों को तिल मिश्रित जलाञ्जलि अवश्य प्रदान करें।पितृपक्ष में तिलमिश्रित जल की तीन-तीन अञ्जलियाँ एक-एक पितर को प्रदान करने से उस समय तक के सारे पाप उसी समय नष्ट हो जाते हैं।
(एकैकस्य तिलैरमिश्रांस्त्रीन् दद्याज्जलाञ्जलीन्।
यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।।)
पितृपक्ष में भाद्रपद पूर्णिमा से प्रारम्भ कर पिता की तिथि तक तर्पण करें। सुबह उठकर स्नान कर देव स्थान व पितृ स्थान को गाय के गोबर लिपकर व गंगाजल से पवित्र करें। घर आंगन में रंगोली बनाएं ।
तर्पण के लिए अर्घ्य-पात्र चाँदी, ताम्बे अथवा कांस्य का होना चाहिए। इन सोलह दिनों तक सब प्रकार से संयमित दिनचर्या होनी चाहिए।
तर्पण विधि:--
भाद्रपद की पूर्णिमा को प्रातः स्नानादि से निवृत होकर भगवान् श्री गणेश और माता पार्वती का ध्यान करें। गायत्री मन्त्र से शिखा बाँधकर तिलक लगाकर दाहिनी अनामिका के मध्य पोर में दो कुशों और बायीं अनामिका में तीन कुशों की पवित्री धारण कर लें। हाथ में तीन कुश, यव, अक्षत, और जल लेकर तर्पण का संकल्प करें।
अद्य अमुक गोत्रोत्पन्नः अमुक (नाम) अहं श्रुति स्मृति पुराणोक्त फल प्राप्त्यर्थम् देवर्षि मनुष्यपितृतर्पणं करिष्ये।संकल्प के बाद क्रमशः देव, ऋषि और पितरों को तर्पण प्रदान करें। आश्विन कृष्ण अमावस्या को सर्वपितृ अमावस्या कहते हैं । जिन पूर्वजों की मृत्यु तिथि याद न हो उनका श्राद्ध इस दिन कर पितरों को तर्पण किया जाता है और दान-पुण्य कर विसर्जित किया जाता है।