आ गया ढोलरू गायन सुनने का समय
डॉ. गौतम व्यथित कहते हैं, ''भारतीय लोकमानस की जीवन पद्धति का आधार विक्रमी संवत् ही मान्य है। इस संवत के मास, तिथि, नक्षत्र के अनुरूप ही संक्रांति, मासांत, पूर्णिमा, अमावस्या, पंचक, पर्व, त्योहार पंचांग (जंतरी) के अनुरूप निश्चित होते हैं और लोगों द्वारा इसे मान्यता भी प्राप्त है।
डॉ. गौतम व्यथित कहते हैं, ''भारतीय लोकमानस की जीवन पद्धति का आधार विक्रमी संवत् ही मान्य है। इस संवत के मास, तिथि, नक्षत्र के अनुरूप ही संक्रांति, मासांत, पूर्णिमा, अमावस्या, पंचक, पर्व, त्योहार पंचांग (जंतरी) के अनुरूप निश्चित होते हैं और लोगों द्वारा इसे मान्यता भी प्राप्त है।
चैत्र मास मंगलमय हो, लोक जीवन सुख संपदा, हर्ष-उल्लास से भरपूर हो, इसीलिए इस मास के आरंभ अर्थात संक्रांति से रलि स्थापना पूजन आरंभ होता है। ढोलरू गायकों के मंगल गायन के साथ नव संवत्सर का प्रारंभ होता है। इसी मास में प्रविष्टे के आधार पर क्रम से पीरों और जख आदि देवताओं की मनौती हेतु छिंजों की परंपरा मिलती है।
घर-आंगन, कुएं-बावडिय़ां, नदी सभी मुखर होते हैं। वसंत में पल्लवित कुसुमित वन संपदा, खेत, बाग-बगीचे, षुष्प वाटिकाएं, जातरा गायन से अनुगूंजित वीरान मार्ग, प्राकृतिक मनोहरता में अव्यक्त आनंद संचार करती है।Ó
त्योहारों उत्सवों पर गायन, वादन, कोई शोर शराबा नहीं, सादगी और थोड़े संकोच के साथ ढोलरू गायन की कला समाज के उस तबके ने साधी थी जिसके पास किसी तरह की सत्ता नहीं थी। वह द्वार-द्वार जाकर आगत का स्वागत करता है, भविष्य का स्वागत गान गाता। आज जब पहली जनवरी आती है तो आधी रात को कर्णभेदी नाद हमें ङिांझोड़ देता है। मीडिया का व्यापार-प्रेरित उन्माद हमें सत्ताच्युत करता जाता है। लगता है हम कहीं जाकर छुप जाएं या किसी अंधकूप में समा जाएं। और ढोलरू गाने वाला कितने संकोच के साथ हमारे लिए भविष्य का गायन कर रहा होता है।
ढोलरू के प्रचलित बोल भी विनम्रता और कृतज्ञता से भरे हैं। दुनिया बनाने वाले का नाम पहले लो, दुनिया दिखाने वाले माता-पिता का नाम पहले लो, दीन दुनिया का ज्ञान देने वाले गुरू का नाम पहले लो, उसके बाद बाकी नाम लो। नए वर्ष के महीनों की बही तो उसके बाद खुलेगी। हमारे कृषि-प्रधान समाज में तकरीबन हर जगह त्योहार इसी तरह मनाए जाते हैं, जिनमें प्रकृति के प्रति कृतज्ञता व्यक्त की जाती है और मनुष्य के साथ उसका तालमेल बिठाया जाता है। लगता है कि त्योहार मनाने के ये तरीके किसी शास्त्र ने नहीं रचे। ये लोक जीवन की सहज अभिव्यक्तियां हैं जो सदियों में ढली हैं।
अब चूंकि समाज आमूल-चूल बदल रहा है और तेजी से बदल रहा है। कृषि समाज और उससे जुड़े मूल्य बदल रहे हैं, जीवन शैली बदल रही है। बदलने में कोई हर्ज नहीं है, बदलना तो प्रकृति का नियम है। पर बदलने में पिछला सब कुछ नए में रूपांतरित नहीं हो रहा है। पिछला या तो टूट रहा है या छूट रहा है। जोर के सांस्कृतिक आघात लग रहे हैं। उसकी मरहम पट्टी या उपचार का सामान हमारे पास है नहीं। और जल्दबाजी में पुराने को नाकारा मानकर हम छोड़ दे रहे हैं। जो नया हमारे ऊपर थोपा जा रहा है, वो हमारी मूल्य चेतना में अटता नहीं। ऐसे में एक तरह का अधूरापन, असंतोष और क्षोभ घर करने लगता है। यह कार्य-व्यापार हमारी सामूहिक चेतना को भी आहत करता है। और हम सांस्कृतिक रूप से थोड़े दरिद्र भी होते हैं।
अगर हम ढोलरू जैसी परंपराओं का नकली और भोंडा पालन करने से बचें, फैशनेबल और व्यापारिक इस्तेमाल न करें, बल्कि उन्हें दिल के करीब रख सकें, थोड़ा दुलार और प्यार दे सकें तो शायद परिवर्तन के झटके को सहन करने की ताकत जुटा सकें। जैसे भले ही टेलिफोन पर ही सही, ढोलरू के बोल सुनकर मेरे पैरों में पंख लग जाते हैं।