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भारतीय स्वाभिमान का एक अमर स्वर हैं,स्वामी विवेकानंद

भारतीय स्वाभिमान के एक अमर स्वर हैं स्वामी विवेकानंद। जिन्होंने पराधीन भारत में भी ‘विचारमग्न पूर्व’ की अवधारणा के उलट वह गौरव गाथा समस्त संसार को सुनाई है जिसने पूर्व के उन्नत मस्तक का हिमालय सर्व पूज्य बना दिया।

By Jeetesh KumarEdited By: Published: Tue, 11 Jan 2022 02:57 PM (IST)Updated: Tue, 11 Jan 2022 03:13 PM (IST)
भारतीय स्वाभिमान का एक अमर स्वर हैं,स्वामी विवेकानंद
भारतीय स्वाभिमान का एक अमर स्वर हैं,स्वामी विवेकानंद

लंबे समय तक पश्चिमी जगत में भारत के प्रति यह अवधारणा रही कि भारत ‘विचारमग्न पूर्व’ के केंद्र में है। उसका आशय था कि यह पूर्व मात्र सोचता है, करता कुछ नहीं। औद्योगिक क्रांति, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के नवाचार से संयुक्त पश्चिमी जगत आश्चर्यजनक रूप से पूरी दुनिया पर छा गया था। ऐसे में चिंतन संपन्न भारत को ‘विचारमग्न पूर्व’ कहकर उसे निरस्त कर देना उनके उपेक्षापूर्ण व्यवहार का ही एक हिस्सा था, लेकिन भारत ने कठिन से कठिन समय में भी अपने स्वाभिमान को वह स्वर दिया है, जो काल के प्रवाह से परे जाकर अमिट छाप छोड़ गया है।

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पराधीन भारत में भारतीय स्वाभिमान के एक अमर स्वर हैं स्वामी विवेकानंद, जिन्होंने विचारमग्न पूर्व के प्रभाव को जिस गौरव के साथ साझा किया, वह अद्भुत है। लंदन में घटित एक छोटी-सी घटना उनके स्वर की दृढ़ता को बहुत हद तक स्पष्ट करती है। स्वामी विवेकानंद जी लंदन में भारतीय चिंतन की गौरव गाथा अपने भाषणों के माध्यम से पश्चिमी जगत के सामने रख रहे थे। ऐसे में वहां के एक बुद्धिजीवी अक्सर उनसे बहस किया करते थे। वह कहा करते थे कि यदि भारत के पास हजारों वर्षो से ज्ञान की अमूल्य उपलब्धियां थीं तो भारत कभी उन्हें साझा करने के लिए इंग्लैंड क्यों नहीं आया? स्वामी विवेकानंद जी ने जो उत्तर उन्हें दिया, वह बेहद सार्थक है। स्वामी जी ने हंसते हुए उनसे कहा, भारत तो हजारों वर्ष पूर्व अपना ज्ञान साझा करने के लिए इंग्लैंड आ जाता, लेकिन मेरे मित्र, यह तो बताओ कि हजारों वर्ष पूर्व इंग्लैंड था कहां? जो इंग्लैंड आज है, वहां तो हजारों वर्ष पूर्व केवल जंगल था। जब इंग्लैंड का अस्तित्व ही नहीं था तो भारत ज्ञान देने के लिए आता कहां? उनके इस उत्तर को सुनकर वह पश्चिमी बुद्धिजीवी निरुत्तर हो गये, लेकिन स्वामी विवेकानंद जी ने सदैव पश्चिम के पुरुषार्थ को सराहा और वह उससे प्रेरणा लेने की बात भी सदैव करते रहे। उनके हृदय में जो विश्वबंधुत्व की भावना थी, वह भावना भारत के चिंतन की प्रतिनिधि ही है। पराधीनता का वह दौर बीत जाने के बाद अब स्वाधीनता के अमृत महोत्सव में जब हम स्वावलंबन, स्वाधीनता और स्वाभिमान की विचार त्रयी को केंद्र में रखकर विमर्श कर रहे हैं, तब स्वामी विवेकानंद जी के भिन्न-भिन्न लोगों को लिखे कुछ पत्रों के अंश समक्ष रखना प्रासंगिक होगा।

न्यूयार्क में रहने वाले श्री ई. टी. स्टर्डी को लिखे एक पत्र में उन्होंने लिखा, ‘मेरे निजी अनुभव की एक बात सुनो। जब मेरे गुरुदेव ने शरीर त्यागा था, तब हम लोग 12 निर्धन और अज्ञात नवयुवक थे। हमारे विरुद्ध अनेक शक्तिशाली संस्थाएं थीं, जो हमारी सफलता के शैशव काल में ही हमें नष्ट करने का भरसक प्रयास कर रही थीं। परंतु श्री रामकृष्ण देव जी ने हमें एक बड़ा दान दिया था। वह दान था -केवल बातें ही न करके यथार्थ जीवन की इच्छा, आजीवन उद्योग और विरामहीन साधना के लिए अनुप्रेरणा। आज सारा भारत मेरे गुरुदेव को जानता है और पूज्य मानता है। दस वर्ष पूर्व उनका जन्म उत्सव मनाने के लिए मैं सौ लोगों को भी इकट्ठा नहीं कर सकता था और अब स्थिति यह है कि पिछले वर्ष पचास हजार लोग आए थे।’

यह पत्र इसलिए बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह स्वावलंबन का अनूठा सूत्र रचता है। स्वामी विवेकानंद जी को उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस जी ने जो सूत्र दिया, उसकी तीन प्रमुख बातें हैं : यथार्थ जीवन की इच्छा, आजीवन उद्योग और विरामहीन साधना। ये तीनों बातें किसी के भी जीवन में सम्मिलित हो जाएं तो ये स्वावलंबन का वह पथ प्रदान करेंगी, जो सफलता का उच्चतम आयाम रचकर शिखर तक पहुंचा दे।

स्वाधीनता के संदर्भ में उनके दूसरे पत्र के अंश भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। आलासिंगा पेरूमल को लिखे पत्र में उन्होंने लिखा, ‘स्वाधीनता के बिना किसी प्रकार की उन्नति संभव नहीं है। हमारे पूर्वजों ने धार्मिक विचारों में स्वाधीनता दी थी और उसी में से हमें एक आश्चर्यजनक धर्म मिला है। उन्नति की पहली शर्त है स्वाधीनता। जैसे मनुष्य को सोचने-विचारने और व्यक्त करने की स्वाधीनता मिलनी चाहिए, वैसे ही उसे खानपान, पहनावा, विवाह, हर एक बात में वहां तक स्वाधीनता मिलनी चाहिए, जहां तक कि वह स्वाधीनता दूसरों को हानि न पहुंचाए। स्वाधीनता पाने का अधिकार उसे नहीं है, जो औरों को स्वाधीनता देने को तैयार न हो। मान लो कि अंग्रेजों ने तुम्हें सब अधिकार दे दिए, पर उससे क्या होगा? कोई न कोई वर्ग प्रबल होकर सब लोगों से सारे अधिकार छीन लेगा। जैसे पूर्व काल में शंकराचार्य, रामानुज तथा चैतन्य आदि आचार्यो ने सबको समान समझकर मुक्ति में सबका समान अधिकार घोषित किया था, वैसे ही समाज को पुन: गठित करने की कोशिश करो, उत्साह से हृदय भर लो और सब जगह फैल जाओ। नेतृत्व करते समय सबके दास हो जाओ, अनंत धैर्य रखो, तभी सफलता तुम्हारे हाथ आएगी।’

यह पत्र बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि स्वाधीनता को परिभाषित करते हुए उन्होंने एक सीमा का उल्लेख भी किया है कि स्वाधीनता दूसरों को नुकसान पहुंचाने वाली नहीं होनी चाहिए। उन्होंने इसे पाने का वह मार्ग भी दिखाया, जो उत्साह को हृदय में भरकर उस नेतृत्व की बात करता है जो अपने साथ चलने वालों के साथ स्वामी का नहीं, वरन सेवक का व्यवहार करता है। साथ ही, वे जानते थे कि कठिन मार्ग पर चलने की पहली शर्त होती है अनंत धैर्य, इसलिए उन्होंने इसका भी पूरी दृढ़ता के साथ उल्लेख किया। एक अद्भुत प्रयोग यह भी है कि उन्होंने भारत की चिंतन परंपरा को ध्यान में रखते हुए स्वाधीनता को मुक्ति से भी जोड़ा, क्योंकि वे जानते थे कि भारत की आचार्य परंपरा ने स्वाधीनता को सीमित अर्थ में नहीं देखा है, वरन् उसे मुक्ति का विराट अर्थ भी सौंपा है।

जैसा कि एक अन्य पत्र में स्वामी विवेकानंद जी ने सरला घोषाल जी को लिखा था, जिसमें उन्होंने सोये हुए ब्रह्म के जागने की बात की थी। वस्तुत: यह सोया हुआ ब्रह्म जाग उठना ही वह स्वाभिमान है, जो मनुष्य को अमृत पुत्र बना देता है। स्वामी विवेकानंद जी ने अनेक बार इस स्वाभिमान की बात की, क्योंकि यह स्वाभिमान ही मनुष्य को उस स्वावलंबन से जोड़ता है, जो एक ऐसी स्वाधीनता रचता है कि वह अपनी पूर्णता में मुक्ति बन जाती है।

स्वामी विवेकानंद जी हमारी चिंतन परंपरा के एक ऐसे प्रतीक हैं, जिन्होंने पराधीन भारत में भी ‘विचारमग्न पूर्व’ की अवधारणा के उलट वह गौरव गाथा समस्त संसार को सुनाई है, जिसने पूर्व के उन्नत मस्तक का हिमालय सर्व पूज्य बना दिया।

अशोक जमनानी

आध्यात्मिक विषयों के अध्येता, साहित्यकार


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