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Makar Sankrati 2020: मन की शांति के लिए बिना किसी स्वार्थ के करें इस दिन दान-पुण्य

मकर संक्रांति का एक बड़ा हिस्सा है दान। हर धर्म में दान की अहम भूमिका के बारे में बताया गया है। ऐसे में दान सिर्फ इसलिए नहीं किया जाए कि रिवाज है बल्कि मन की शांति के लिए करें।

By Priyanka SinghEdited By: Published: Mon, 13 Jan 2020 03:14 PM (IST)Updated: Mon, 13 Jan 2020 03:14 PM (IST)
Makar Sankrati 2020: मन की शांति के लिए बिना किसी स्वार्थ के करें इस दिन दान-पुण्य
Makar Sankrati 2020: मन की शांति के लिए बिना किसी स्वार्थ के करें इस दिन दान-पुण्य

दान का शाब्दिक अर्थ है 'देने की क्रिया'। जब हम अपनी साम‌र्थ्यनुसार किसी जरूरतमंद की मदद करते हैं तो वह दान कहलाता है। दान में दातापन का भाव नहीं होना चाहिए। कहा भी जाता है कि एक हाथ से यूं दान करो कि दूसरे हाथ को भी पता नहीं चलें। हिंदू धर्म में दान का अत्यधिक महत्व बताया गया है, यह सिर्फ हमारा रिवाज व परंपरा मात्र नहीं है बल्कि दान करने के पीछे हमारे हर धार्मिक ग्रंथों एवं शास्त्रों में महत्वपूर्ण उद्देश्य बताए गए हैं। कर्ण, दधीचि तथा राजा हरिशचंद्र जैसे परमदानी भारत में ही हुए हैं, जिन्होंने दुनिया के सामने दान की मिसाल कायम की। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के परम अनुयायी विनोबा भावे के शब्दों में दान का अर्थ फेंकना नहीं बल्कि बोना है। पुराणों में भी अनेक तरह के दानों का उल्लेख मिलता है जिनमें अन्नदान, विद्यादान, अभयदान तथा धनदान को श्रेष्ठ माना गया है। अब तो भारत में देहदान का भी प्रचलन हो चला है।

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नहीं होती है कोई कमी

प्रकृति सबसे अच्छी शिक्षक है जो हमें देना सिखाती है। सूर्य, फूल, पेड़ , नदियां, धरती सब कुछ न कुछ देते हैं, फिर भी न सूर्य की रोशनी कम हुई, न फूलों की खुशबू, न पेड़ों के फल और न ही नदियों का जल। इसलिए कहा जाता है कि दान एक हाथ से देने पर अनेक हाथों से लौटकर हमारे पास वापस आ जाता है। नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित मदर टेरेसा ने कभी फुटपाथ पर बैठी एक भूखी महिला को कुछ खाने को दिया, उस महिला ने मदर टेरेसा से निवेदन किया कि कृपया रुकें, मैं अभी आती हूं। वह पड़ोस में गई और पड़ोसी महिलाओं को उसमें से आधा खाना दे आई, जिसके चार-पांच बच्चे थे। यही है दान का अप्रतिम उदाहरण।

अलग है वह सुख

'दान दिए धन ना घटे, नदी ना घटे नीर। अपनी आंखों देख लो, यों क्या कहे कबीर।' कबीरदास जी का यह दोहा अपने आप में ही पूरी बात कह जाता है। वेदों और पुराणों में भी कहा गया है कि दान देने से हमारे अंदर परिगृह (जमा करने) की प्रवृत्ति नहीं आती। मन में उदारता का भाव रहने से विचारों में शुद्धता आती है। मोह तथा लालच नहीं रहता। इससे हम न सिर्फ दूसरों का भला करते हैं बल्कि अपने व्यक्तित्व को भी निखारते हैं। जब हम बिना किसी स्वार्थ के दान करते हैं तो उस सुख का अनुभव हमें आत्मसंतुष्टि देता है।

दोतरफा लाभ

शास्त्रों में दान को विशेष दर्जा इसलिए भी दिया गया है कि इस पुण्य कार्य से समाज में समानता का भाव बना रहता है और जरूरतमंद व्यक्ति को भी जीवन के लिए उपयोगी चीजें प्राप्त हो जाती हैं। अन्न, जल, घोड़ा, गाय, वस्त्र, शय्या, छत्र और आसन इन आठ वस्तुओं का दान हमारे पूरे जीवन को शुभ फल देता है। किसी रोगी की सेवा करना, देवताओं का पूजन और ज्ञानी लोगों की सेवा करना, ये तीनों काम भी गोदान के समान पुण्य देने वाले होते हैं। इसी तरह दीन, हीन, निर्धन, अनाथ, दिव्यांग तथा रोगी मनुष्य की सेवा के लिए जो धन दिया जाता है, उससे भी बहुत पुण्य प्राप्त होता है।

तो बेकार है ऐसा दान

कहा भी गया है कि मनुष्य को अपने अर्जित किए हुए धन का दसवां भाग किसी शुभ काम में लगाना चाहिए। इसमें गोशाला में दान, गरीब बच्चों की शिक्षा का प्रबंध या गरीब व्यक्तियों को भोजन खिलाना शामिल है। दान देना जहां हमारे विचारों एवं हमारे व्यक्तित्व पर एक मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी डालता है। हमारी संस्कृति हमें बचपन से ही देना सिखाती है न कि लेना। माता-पिता, गुरु, मित्र, विनयी, उपकार करने वाला, दीन, अनाथ तथा सज्जन को दान देना सुफल देता है। दान देने के संबंध में सबसे जरूरी बात यह है कि यदि आप किसी दबाव में या दिखावे के लिए दान करते हैं तो आपके दान का कोई मतलब नहीं होता।


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