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वट सावित्री व्रत विधि

ज्येष्ठ या जेठ महीने के कृष्णपक्ष की अमावस्या को वट सावित्री का व्रत होता है। इस बार बृहस्‍पतिवार 25 तारीख को ये पर्व पड़ रहा है। इसे बरगदायी अमावस्‍या या बड़ मावस भी कहते हैं।

By molly.sethEdited By: Published: Wed, 24 May 2017 10:05 AM (IST)Updated: Wed, 24 May 2017 10:05 AM (IST)
वट सावित्री व्रत विधि
वट सावित्री व्रत विधि

 वट सावित्री का महत्‍व

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बताते हैं कि इसी दिन सावित्री ने यमराज से अनुरोध अपने पति सत्यवान के प्राणों की रक्षा की थी। इसी कारण से यह व्रत वट सावित्री के नाम से जाना जाता है। यह व्रत सौभाग्य देने वाला और संतान की प्राप्ति वाला माना गया है। हालाकि इस व्रत की तिथि को लेकर काफी मतद भेद हैं। जहां स्कंद पुराण तथा भविष्योत्तर पुराण के अनुसार ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को यह व्रत करते हैं, वहीं निर्णयामृत आदि के अनुसार ज्येष्ठ मास की अमावस्या को यह व्रत करने की बात कही गई है। इस व्रत में वट या बरगद के पेड़ का भी विशेष महत्व है।

ये है पूजन विधि

वट सावित्री के पूजन में चने का प्रयोग अत्‍यंत महत्‍वपूर्ण होता है, क्‍योंकि यमराज ने चने के रूप में ही सत्‍यवान के प्राण सावित्री को दिये थे। जिसे सत्‍यवान के मुंह में रख फूंक मार कर कर सावित्री ने उनके प्राण लौटाये थे। इस दिन स्त्रियां सोलह श्रृंगार करके सिंदूर, रोली, फूल, अक्षत, चना, फल और मिठाई से सावित्री, सत्यवान और यमराज की पूजा करती हैं। वट वृक्ष की जड़ में दूध और जल चढ़ाया जाता है। इसके बाद कच्चे सूत को हल्दी में रंगकर वट वृक्ष में लपेटते हुए कम से कम तीन बार परिक्रमा की जाती है, वैसे बारह परिक्रमायें सर्वोत्‍म मानी गयी हैं। हर परिक्रमा पर एक चना वृक्ष पर चढ़ाया जाता है और तने पर सूत लपेटा जाता है। परिक्रमा के पश्‍चात वट वृक्ष का पत्ता बालों में लगाया जाता है। इसके बाद सुहागिने चौबीस बरगद फल, जो आटे या गुड़ के बनते हैं, और चौबीस पूरियाँ अपने आँचल में रखकर बारह पूरी व बारह बरगद वट वृक्ष में चढ़ायें। फिर वृक्ष में एक लोटा जल चढ़ा कर हल्दी-रोली लगायें, फल-फूल और धूप-दीप से पूजन पूरा करें। पूजा और परिक्रमा पूरी करके सत्यवान व सावित्री की कथा सुने और उनसे पति की लंबी आयु एवं संतान हेतु आर्शिवाद मांगे।

वट सावित्री की कथा

इस व्रत की इस प्रकार है कहते हैं कि भद्र देश के राजा अश्वपति के कोई संतान न थी। उन्होंने संतान की प्राप्ति के लिए मंत्रोच्चारण के साथ प्रतिदिन एक लाख आहुतियाँ दीं। अठारह वर्षों तक यह क्रम जारी रहा। इसके बाद सावित्रीदेवी ने प्रकट होकर वर दिया कि 'राजन तुझे एक तेजस्वी कन्या पैदा होगी।' सावित्रीदेवी के आर्शिवाद से जन्म लेने की वजह से इस कन्या का नाम सावित्री रखा गया। ये कन्‍या अत्‍यंत रूपवती और विद्वान थी। उसके योग्य वर न मिलने के कारण सावित्री के पिता बेहद दु:खी थे। तब उन्‍होंने सावित्री को स्‍वंय अपना वर ढूंढने के लिए कहा और वो घूमते हुए तपोवन पहुचीं जहां साल्व देश के राजा द्युमत्सेन रहते थे क्योंकि उनका राज्य किसी ने छीन लिया था। उनके पुत्र सत्यवान को देखकर सावित्री उस पर मोहित हुंई और देवर्षि नारद के मना करने पर भी अल्‍पायु पर बेहद ज्ञानी और वेद ज्ञाता सत्‍यवान को अपने पति के रूप में वरण किया। ऐसे में जब यमराज सत्यवान के प्राण लेकर जाने लगे तब सावित्री भी यमराज के पीछे-पीछे चलते हुए तीन वरदान मांगे। उनमें से एक था कि वे सौ पुत्रों की माता बने। जब यमराज ने वरदान दे दिया तब होशियार सावित्री ने कहा कि वे पतिव्रता स्त्री हैं तो बिना पति के संतान कैसे प्राप्‍त कर सकती हैं। विवश हो कर यमराज ने चने के रूप में सत्यवान के प्राण सावित्री को सौंप दिये। इसके बाद सत्यवान को पानी पिलाकर सावित्री ने स्वयं वट वृक्ष की बौंडी खाकर पानी पी कर अपना व्रत तोड़ा था।


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