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सबसे ऊंचा शिवधाम है कैलास मानसरोवर

शिव जी के प्रमुख स्‍थानों में विशेष है कैलाश मान सरोवर आइये जानें इसके बारे में।

By Molly SethEdited By: Published: Sat, 27 Jan 2018 05:01 PM (IST)Updated: Mon, 02 Apr 2018 09:50 AM (IST)
सबसे ऊंचा शिवधाम है कैलास मानसरोवर
सबसे ऊंचा शिवधाम है कैलास मानसरोवर

 हर हर महादेव के नारे 

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आदि न अंत के सूत्र पर चिंतन ही कर रहा था कि मुझे मेरे मित्र ने फोन कर कैलास मानसरोवर यात्रा पर जाने की बात बताई और मैं चल दिया। बस में बैठने के साथ ही यात्रियों ने हर-हर महादेव, ओम नमो शिवाय और बम-बम भोले के जयकारे लगाए और झंडी दिखाए जाने के बाद बस काठगोदाम(नैनीताल) के लिए रवाना हुई। सफर के दौरान कुछ बुजुर्ग महिला यात्रियों ने कीर्तन-भजन का क्त्रम शुरू कर दिया। दोपहर बाद काठगोदाम में कुमाऊं मंडल विकास निगम के अधिकारियों ने यात्रियों का स्वागत किया। लोक परिधानों में सजी पहाड़ की महिलाओं ने यात्रियों का तिलक किया और आरती उतारी। महिला के सिर पर रखे चुन्नीनुमा परिधान के बारे में जानने की जिज्ञासा हुई तो एक महिला ने बताया कि यह पिछौड़ा है और कुमाऊंनी संस्कृति में पिछौड़ा को महिलाएं शुभ कार्य में अवश्य धारण करती हैं। विवाह के मौके पर दुल्हन के साथ ही सभी सुहागिनें इसे अनिवार्य तौर पर पहनती है। खैर, यहां पर भोजन करने के बाद अब पहाड़ का सफर शुरू होना था तो बस भी बदल गई और घुमावदार रास्ते चुनौती पेश करते नजर आए। काठगोदाम से जैसे ही बस पहाड़ की छोटी सड़कों पर निकली तो लगा कि सबकुछ बदल रहा है। ठंडी हवा के झोंको ने बस की खिड़की बंद करने पर मजबूर कर दिया। चारों ओर फैली हरियाली मन को शीतलता और आंखों को सुकून दे रही थी। अभी कुछ दूरी ही तय की थी कि नैनीताल का प्रसिद्ध कैंची धाम दिखाई दिया। ब्रह्मलीन बाबा नीम करौली की तपोस्थली कैंची धाम के दर्शन किए। पता चला कि कैंची धाम आने के बाद ही स्टीव जाब्स और जुकरबर्ग जैसे दिग्गजों के जीवन में बड़ा बदलाव आया। देश-विदेश में उनके बड़ी संख्या में अनुयायी हैं। कैंची धाम के दर्शनों के बाद बस अल्मोड़ा के लिए चल पड़ी। चार-पांच बुजुर्ग यात्री माला जप रहे थे। अचानक बस रुक गई तो यात्रियों ने चालक से पूछा, बस क्यों रोक दी, जवाब मिला आधी रात होने को है और अल्मोड़ा पहुंच गए हैं। आज यहीं विश्राम होगा। अल्मोड़ा में कुमाऊं मंडल विकास निगम के विश्राम गृह में सभी यात्रियों के लिए ठहरने-खाने की व्यवस्था थी। थकान भी हो चली थी। जल्दी से खाने की औपचारिकता पूरी की और सो गए।

न्याय देवता के दर्शन

अगले दिन अल्मोड़ा से धारचूला (पिथौरागढ़) का सफर शुरू हुआ। अब पहाड़ों की ऊंचाई चंद दूरी पर बढऩे लगी थी, सड़कें संकरी हो रही थी और यह लगने लगा कि सफर को जितना आसान समझ रहे थे, उतना है नहीं। अभी तो बस का सफर है और आगे तो पैदल ही चलना है। इस उधेड़बुन के बीच सोचा जहां जा रहे हैं, उसके लिए यह सब कुछ नहीं है, उसकी शक्ति के सहारे ही यात्रा होगी। अल्मोड़ा के प्रसिद्ध गोल्ज्यू मंदिर के दर्शन किए। न्याय के देवता के रूप में इस मंदिर की बड़ी मान्यता है और न्याय के लिए मंदिर में श्रद्धालु देवता के नाम चिट्ठी छोड़ जाते हैं। अभी मंदिर का पुजारी यह जानकारी दे ही रहा था कि बस चालक ने हार्न दिया। हम बस में बैठे और पिथौरागढ़ के लिए रवाना हो गए। देवदार व बांज के जंगल से गुजरती सड़क पर यात्रा करने का अपना ही आनंद था। मेरे मित्र ने बताया कि जल्द ही यात्रा के अहम आधार शिविर धारचूला पहुंच जाएंगे। इस जनजातीय क्षेत्र को दुर्गम माना जाता है। यहां से बर्फीली ठंड महसूस होने लगती है, लिहाजा हमने बस में ही गरम कपड़े पहन लिए। धारचूला पहुंचने पर भारत-तिब्बत सीमा पुलिस बल(आइटीबीपी) के जवानों ने हमारा स्वागत किया। अब हमारा अगला पड़ाव नारायण आश्रम था। आइटीबीपी के अधिकारी ने बताया कि धारचूला से नारायण आश्रम तक 54 किलोमीटर का सफर बस से तय होना है और उससे आगे की यात्रा पैदल होगी। पैदल यात्रा की बात सुनते ही मन रोमांचित हो उठा। नारायण आश्रम पहुंचने पर हमें कुमाऊं मंडल विकास निगम के अधिकारी ने आगे की पैदल यात्रा के संबंध में जानकारी दी। यह भी पूछा कि यदि कोई यात्री पैदल यात्रा को लेकर खुद को सक्षम नहीं मान रहा हो तो वह यहीं ठहर सकता है। इस पर सभी यात्रियों ने बम-बम भोले का जयघोष करते हुए जवाब दिया कि बाबा के दर्शन में कोई चुनौती मुश्किल नहीं होती। 

84 किमी. की पैदल यात्रा

दल में शामिल यात्रियों के उत्साह और कैलाश जाने को अडिग उनके इरादों से मेरे अंदर भी ऊर्जा भर गई। देर रात तक पैदल यात्रा की तैयारी की। सुबह हमारा दल पांच-छह दिन तक जारी रहने वाली 84 किमी. की पैदल यात्रा के लिए रवाना हुआ। आदि देव भगवान शिव के जयकारे के साथ हमने पहले पैदल पड़ाव सिर्खा की ओर बढ़ना शुरू किया। पहाड़ों पर बने पगडंडीनुमा मार्ग पर चलने के लिए सभी यात्रियों को कतारबद्ध होना पड़ा। पैदल यात्रा के दौरान सबसे आगे युवा और उसके बाद बुजुर्ग व महिला यात्री पांच-पांच के समूह में रहे। ऐसा इसलिए ताकि पैदल चलते समय कोई अकेला न रहे और कोई बहुत आगे न निकल जाए। पैदल चलते समय हर डग पर सांस तेज होने लगी। चंद किमी. चलते ही शरीर की ऊर्जा जवाब देने लगी और कदम लडख़ड़ाने लगे। तभी मैंने पीछे से आ रहे बुजुर्ग यात्री को देखा तो मन का भाव बदल गया। मैंने सोचा कि बस में जिस बुजुर्ग के चेहरे पर थकान लग रही थी, उसके अंदर अचानक इतनी ऊर्जा कैसे आ गई। ध्यान से सुनने पर ओम नमो शिवाय का मंत्र सुनाई दिया। फिर मैंने भी इस दिव्य मंत्र का उच्चारण शुरू कर दिया। दूर से ही हमें पहला पैदल पड़ाव सिर्खा दिख गया और कठिन रास्ते की परवाह किए बिना हमने यह सफर तय कर लिया। अगले दिन दल गाला के लिए चला। बर्फीले रास्तों के बीच चलना कठिन हो रहा था। एक-एक कदम मजबूती से आगे बढ़ाया जा रहा था, मौसम भी रंग बदलने लगा और बर्फबारी ने हमारी परीक्षा लेनी शुरू कर दी। पहली बार बर्फ का अनुभव अच्छा लगा। थकान ने मांसपेशियों को और कस दिया। तब पता चला कि जीवन चलते रहने का ही नाम है। दूसरे पड़ाव गाला के बाद तीसरे पड़ाव बूदी की यात्रा शुरू हुई। पहाड़ी रास्ता और और कठिन हो चुका था। भूस्खलन का जोखिम बना हुआ था। तभी अचानक पहाड़ी से एक छोटा बोल्डर(पत्थर) गिरा और देखते ही देखते खाई में समा गया। यह देखकर कुछ देर मैं अवाक खड़ा ही रह गया और मन ही मन भगवान को याद करने लगा। बूदी पहुंचने के बाद हमें दूसरे दिन अगले पड़ाव गुंजी तक की यात्रा करनी थी। गुंजी में स्वास्थ्य परीक्षण होना था और इस परीक्षण के मानकों पर खरा उतरना अनिवार्य था। गुंजी तक के सफर में मैंने खुद अपना हौसला बढ़ाया और दल में शामिल अपने से बड़ी उम्र के लोगों को प्रेरणा मानते हुए आगे बढ़ता रहा। करीब साढ़े दस हजार फीट पर स्थित गुंजी पहुंचने पर तब ज्यादा सुकून मिला, जब मैं स्वास्थ्य परीक्षण पास कर गया। यहां से करीब 14 हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित अगले पड़ाव नाभीढांग तक की यात्रा काफी चुनौतीपूर्ण रहा। पहाड़ की खड़ी चढ़ाई और तीखे उतार ने रोम-रोम को हिलाकर रखा दिया।

ओम पर्वत का दर्शन

ओम पर्वत, जो अधिकतर बादलों से घिरा रहता है पर पैदल पथ में जब कुछ पल रूका तो ओम पर्वत की दिव्य दर्शन करने का सौभाग्य मिला। तब याद आया की रोम-रोम में राम कैसे बसते हैं, यह उस परमसत्ता की ताकत ही थी कि मैं तमाम दुश्र्वारियों को झेलते हुए प्रसन्नचित्त यात्रा करता रहा। नाभीढांग से हमें भारत में कैलास मानसरोवर यात्रा के अंतिम पड़ाव लिपुपास तक बर्फीले रास्ते के बीच से जाना था। साढ़े 17 हजार फीट की ऊंचाई पर स्थित लिपुपास तक की यात्रा में चाल सुस्त हो गई। बर्फ में पैर रखकर टिकाना मुश्किल हो रहा था। फिसलने का डर बना हुआ था। हर कदम पर जिंदगी का जोखिम बढ़ने का अहसास तीव्र हो चला था। जिधर नजर जाती, उधर बर्फ ही बर्फ दिखाई दे रही थी। पूरा शरीर कांप रहा था। बस आस थी तो भोले के दर्शनों की और यही ताकत लिपुपास तक पहुंचा गई। यहां पहुंचते ही दल के सभी सदस्यों के चेहरों में एक अनूठी आभा खिल उठी। मंजिल के नजदीक होने की खुशी ने मुझे असीम ऊर्जा से भर दिया। 

अंतिम भारतीय पड़ाव

लिपुपास के अंतिम भारतीय पड़ाव के बाद हमारी आगे की यात्रा तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र(चीन) में होनी थी। यहां से चीनी सेना के एक ट्रक में दल के सदस्यों को जांच के बाद तिब्बत के तकलाकोट के लिए रवाना किया गया। चीनी अधिकारियों का व्यवहार विनम्र था, लेकिन नियम-कानून में उनका रवैया बहुत अधिक सहयोगात्मक नहीं दिखा। भक्तिभाव में खोये लोग लगातार जयकारे लगा रहे थे। मेरे मित्र ने चीनी अधिकारी से पूछा कि अब कितना दूर जाना है तो जो जवाब मिला, वह किसी की समझ में नहीं आया। भाषा की दीवार को लेकर चर्चा करते-करते हम तकलाकोट पहुंच गए। यहां पहुंचने पर बड़ा संतोष मिला कि अब अंतिम चरण की कुछ दूरी की यात्रा ही शेष है। तकलाकोट से दारचीना तक की यात्रा भी खासी रोचक रही। सृष्टि में भगवान शिव के सबसे बड़े भक्त रावण की तपोस्थली देखी। आज भी यहां स्थित ताल को राक्षस ताल अथवा रावण ताल के नाम से ही जाना जाता है। जैन मत के पहले तीथरंकर ऋषभदेव ने कैलास दर्शन के बाद आठ कदम चलकर मोक्ष प्राप्त किया। यह स्थान अष्टपद के नाम से जाना जाता है। यमद्वार देखने के बाद मन में जिज्ञासा हुई कि आखिर इस द्वार के पीछे क्या दृष्टांत होगा। मेरे मित्र ने बताया कि भगवान शिव महाकाल है और यमराज को तो काल ही कहा जाता है, इसलिए यमद्वार का यहां होना धर्म और तर्क दोनों की कसौटी को सम्पूर्ण करता है। मित्र के जवाब के बाद मेरे मन में कई प्रश्न उठने लगे। जीवन व मृत्यु की जटिलता को मन ही मन हल करने की कोशिश किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच रही थी।

कैलास मानसरोवर

इसी जद्दोजहद के बीच कैलास मानसरोवर की धरती पर जब पहला कदम पड़ा तो मन में घुमड़ रहे सवाल हवा हो गया। कैलास पर्वत और मानसरोवर झील की विशालता ने कुछ देर के लिए मेरा विचार-प्रवाह थाम दिया। 22028 फीट ऊंचे कैलास शिखर को देख अपने होने, न होने का मतलब समझ में आया। ब्रह्मांड का केंद्र माने जाने वाले शिव-शक्ति का यह कैलास धाम अद्भुत एहसास करा रहा था। जो महसूस हो रहा था, उसे व्यक्त करने को शब्द नहीं मिल रहे थे। मिलते भी कैसे, स्वरनाद और सारे शब्द तो शिव के डमरू से बंधे हैं। मेरे सहयात्री ने मेरे बुद्धि व मन की शून्यता को समझ लिया। मेरे नजदीक आए और बोले शून्य से ही ज्ञानयोग, कर्मयोग व भक्तियोग निकला है। शून्य का अर्थ तो तभी समझा जा सकता है, जब मन शुद्ध हो और परम सत्ता के प्रति समर्पित हो। यह बात मेरी समझ में आ गई। मानसरोवर झील में Fान करने से ऐसा आभास हुआ, जैसे तन-मन के विकार नष्ट हो गए हों। शीतल व निर्मल जल ने शरीर को स्फूर्ति से भर दिया। कैलास परिक्त्रमा करने का वह दिव्य पल भी आया। दल के सभी सदस्यों ने शिव-शक्ति का मनन-सुमिरन करते हुए परिक्त्रमा शुरू की। न कोई थकान, न मन में कोई संशय, कदम आगे बढ़ रहे थे और चेतना की ताकत ने यह महसूस नहीं होने दिया कि कब परिक्त्रमा पूरी हो गई है। दल में शामिल एक बुजुर्ग महिला ने मुझसे कहा, बेटा अब वापसी की तैयारी करो। ऐसी दिव्यता छोडऩे का मन नहीं कर रहा था। मैंने अपने मित्र को इस यात्रा का कारक बनने के लिए धन्यवाद दिया तो मित्र ने कहा, यहां कोई किसी की इच्छा से नहीं आता, जिसे प्रभु बुलाते हैं, उसे आना ही होता है। मन, बुद्धि व आत्मा तो उसी के नियंत्रण में हैं और भाग्य व कर्म भी वही तय करता है। इस यात्रा ने मुझे यह तो समझा ही दिया कि किसके साथ कब क्या होता है, इसे परिभाषित करने की क्षमता मनुष्य में नहीं हैं। हम नगण्य जानते हैं और हमारी यात्रा तो अनंतकाल से जारी है। 

By: मनमोहन शर्मा, प्रदीप चमडि़आ


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