चलिए चलें माता कुष्मांडा के इस प्रसिद्ध मंदिर में
उत्तर प्रदेश के कानपुर शहर से लगभग 40 किलोमीटर दूर घाटमपुर क्षेत्र में एक प्राचीन देवी मंदिर है। कहते हैं ये इकलौता मंदिर है जहां माता कुष्मांडा रूप में हैं।
इकलौता मंदिर
ऐसा कहा जाता है कि कानपुर के निकट बना देवी का ये मंदिर अपने आप में अनोखा है क्योंकि एक तो ये करीब 1000 वर्ष पुराना बताया जाता है, दूसरे यहां देवी कुष्मांडा के रूप में मौजूद हैं। इस रूप में उनका देश में कोई अन्य मंदिर संभवत: नहीं है। यहां मां कुष्मांडा एक पिंडी के स्वरूप में लेटी हैं, जिससे लगातर जल रिसता रहता है। आज तक ये बात रहस्य है कि ये जल आ कहां से रहा है। हालाकि ऐसा विश्वास किया जाता है कि देवी के दर्शन और पूजन के बाद यदि इस जल को ग्रहण किया जाए तो हर प्रकार रोग से मुक्ति मिल जाती है। इस जल को आंखों पर लगाने से नेत्र संबंधी रोग भी दूर जाते हैं।
नवरात्रि में होती है विशेष पूजा
वैसे तो देवी के पवित्र स्थान के रूप में इस मंदिर वैसे ही बड़ी मान्यता है, नवरात्रों में इसका महत्व काफी बढ़ जाता है। इन दिनों यहां भव्य मेले का आयोजन होता है। इस मंदिर की एक अन्य खासियत ये है कि इस मंदिर में कोई पंडित पूजा नहीं करवाता है बल्कि सिर्फ माली ही पूजा-अर्चना करते हैं। जब भक्तों की मनोकामना पूर्ण हो जाती है तो वे यहां माता को चुनरी, ध्वजा, नारियल और घंटा चढ़ाने के साथ ही भीगे चने भी अर्पित करते हैं। नवरात्रि की चतुर्थी पर मंदिर परिसर में दीपदान महोत्सव आयोजित होता है जिस के लिए आस-पास के इलाकों से लोग यहां इकठ्ठे होते हैं। बताते हैं कि वर्तमान मंदिर का निर्माण 1890 में एक स्थानीय शख्स चंदीदीन भुर्जी ने करवाया था। 1988 से मंदिर में मां कूष्मांडा की अखंड ज्योति निरंतर प्रज्वलित हो रही है। मंदिर के पास दो तालाब बने हैं, जो कभी नहीं सूखते हैं। दर्शन के लिए आने वाले भक्त इनमें से एक तालाब में स्नान करने के बाद दूसरे से जल लेकर माता को अर्पित करते हैं।
मंदिर की कहानी
बताते हैं कि इस स्थान पर पहले घना जंगल था, और गांव का कुड़हा नाम का ग्वाला गाये चराने जाता था। शाम के समय जब वह दूध निकालने जाता तो गाय दूध नहीं देती। ग्वाला इस बात पर काफी हैरान था। ऐसे में एक दिन मां ने उसे स्वप्न में दर्शन दिए। अगले दिन वह गाय को लेकर जा रहा था तभी एक स्थान पर गाय के थन से दूध की धारा निकलने लगी। जब ग्वाले ने उस स्थान की खुदवाई करवाई तो वहां मां कूष्मांडा की पिंडी निकली। तब उसने उसी स्थान पर मां की पिंडी स्थापित कर दी और भक्त उसमें से निकलने वाले जल को प्रसाद स्वरूप ग्रहण करने लगे। ग्वाले के नाम पर मां कूष्मांडा का एक नाम कुड़हा देवी भी पड़ा।