पुत्रों की जलांजलि से 'तृप्त' होंगे पितर
17 दिवसीय गया श्राद्ध के द्वितीय दिवस को ब्रह्म कुंड एवं प्रेतशिला पर श्राद्ध से प्रेत योनि को प्राप्त पितर मुक्ति पाते हैं। अग्नि, जल, सर्पदंश आदि से मृत्यु को प्राप्त प्राणी तथा अकाल मृत्यु को प्राप्त करने वाले प्राणी प्रेत योनि में जाते हैं। प्रेत कभी पृथ्वी का स्पर्श नहीं करता है। उसमें अग्नि, वायु एवं आकाश तत्व ही होते हैं। प्रकाश में उसकी छाया ि
गया। 17 दिवसीय गया श्राद्ध के द्वितीय दिवस को ब्रह्म कुंड एवं प्रेतशिला पर श्राद्ध से प्रेत योनि को प्राप्त पितर मुक्ति पाते हैं। अग्नि, जल, सर्पदंश आदि से मृत्यु को प्राप्त प्राणी तथा अकाल मृत्यु को प्राप्त करने वाले प्राणी प्रेत योनि में जाते हैं।
प्रेत कभी पृथ्वी का स्पर्श नहीं करता है। उसमें अग्नि, वायु एवं आकाश तत्व ही होते हैं। प्रकाश में उसकी छाया दिखाई पड़ती है। प्रेत पर्वत पर तिल मिश्रित सत्तु छिड़कने से उसे तृप्ति होती है। वायु पुराण के अनुसार मरीचि ऋषि की पत्नी धर्मव्रता पति के शाप से शिला (पत्थर) बन गई थी। उसका पत्थर रूप अंगूठा ही प्रेतशिला है। उसके पत्थर रूप संपूर्ण शरीर को गय असूर के सिर पर रखा गया था। फिर भी उसका कम्पायमान सिर स्थित नहीं हो सका। प्रेतशिला से लौटकर रामकुंड एवं रामशिला पर श्राद्ध होता है।
पिंडदान हेतु आए हुए श्रीराम के स्नान करने से कुंड का नाम रामकुंड हुआ तथा पर्वत का नाम उनके पिंडदान करने से रामशिला हुआ। रामशिला प्रभास पर्वत कहलाता था। प्रभास पर्वत पर पातालेश्वर शंकर तथा श्री राम के दर्शन से पितर मुक्ति पाते हैं। पितरों की मोक्ष कामना से समीप में स्थित काकबलि वेदी पर धर्मराज एवं यमराज को, श्याम एवं शवल नाम कुत्तों को तथा कौआ की बलि दी जाती है।