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मान्यता के अनुसार, रथ खींचने वाले को मोक्ष की प्राप्ति होती है

इस दौरान जो व्यक्ति गुंडीचा मंडप में विराजमान मेरा, सुभद्रा और बलराम का दर्शन करेगा, उसे मेरा आशीर्वाद प्राप्त होगा। मान्यता के अनुसार, रथ खींचने वाले को मोक्ष की प्राप्ति होती है।

By Preeti jhaEdited By: Published: Wed, 06 Jul 2016 11:52 AM (IST)Updated: Wed, 06 Jul 2016 01:00 PM (IST)
मान्यता के अनुसार, रथ खींचने वाले को मोक्ष की प्राप्ति होती है

श्री जगन्नाथ पुरी रथयात्रा के महत्व व परिणामों का विस्तृत वर्णन पुराणों में मिलता है। उस समय रथ पर विराजमान होकर यात्रा करते हुए श्री जगन्नाथ जी का लोग भक्ति पूर्वक दर्शन करते हैं, उनका भगवान के धाम में निवास होता है।उड़ीसा के श्रीजगन्नाथपुरी मंदिर में वर्ष भर में 12 यात्राएं होती हैं, लेकिन आषाढ़ की रथयात्रा सबसे महत्वपूर्ण है, जो गुण्डिचा यात्रा के नाम से विख्यात है।न कोई छोटा है और न कोई बड़ा। तभी तो श्रीजगन्नाथपुरी रथ-यात्रा में बलभद्र, सुभद्रा और भगवान जगन्नाथ के रथों को अपने हाथों से खींचने के लिए आकुल रहता है हर भक्त। आज से शुरू हो रही इस यात्रा पर विशेष...

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भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा शुरू, प्रधानमंत्री ने दी बधाई। पुरी में रथयात्रा की शुरुआत।पुरी। ओडिशा के पुरी में होने वाली भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा का आज से आगाज हो गया है। ये रथयात्रा आषाढ़ महीने के शुक्लपक्ष की द्वितीया तिथि को निकाली जाती है। इस साल ये यात्रा 6 जुलाई यानि आज से शुरू हो गई है। इस धार्मिक यात्रा में भाग लेने आए देश-विदेश के श्रद्धालुओं में भारी उत्साह देखा जा रहा है। रथयात्रा के लिए सुरक्षा के जबरदस्त इंतजाम किए गए हैं।

आषाढ़ माह की शुक्लपक्ष की द्वितीया तिथि को रथयात्रा आरंभ होती है। ढोल, नगाड़ों, तुरही और शंखध्वनि के बीच भक्तगण इन रथों को खींचते हैं। माना जाता है कि जिन्हें रथ को खींचने का अवसर प्राप्त होता है, वह महाभाग्यवान माना जाता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार, रथ खींचने वाले को मोक्ष की प्राप्ति होती है। शायद यही बात भक्तों में उत्साह, उमंग और अपार श्रद्धा का संचार करती है। रथयात्रा भारत ही नहीं विश्व के सबसे विशाल और महत्वपूर्ण धार्मिक उत्सवों में से एक है, जिसमें भाग लेने के लिए पूरी दुनिया से लाखों श्रद्धालु और पर्यटक आते हैं। इस साल यह रथयात्रा 6 जुलाई यानी बुधवार से आरम्भ हो रही है। इस धार्मिक यात्रा में भाग लेने आये श्रद्धालुओं में भारी उत्साह देखा जा रहा है। रथयात्रा की शुरुआत पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्विटर के जरिए देशवासियों को शुभकामनाएं दी हैं। उन्होंने कहा कि भगवान जगन्नाथ की कृपा हम सब पर बनीं रहे। भगवान जन्नाथ के आशीर्वाद से गांव, किसान का विकास हो और देश नई ऊंचाई पर पहुंचे।

अहमदाबाद में निकाली गई रथयात्रा

वहीं गुजरात के अहमदाबाद में 139वीं जगन्नाथ यात्रा सुबह साढ़े सात बजे जमालपुर में 400 साल पुराने मंदिर से शुरू हुई। यात्रा शुरू होने से पहले बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह परिवार के साथ जगन्नाथ मंदिर पहुंचे और उन्होंने मंगला आरती की। गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल भी इसमें शामिल हुईं। रथयात्रा के 13 किलोमीटर के रास्ते में 300 सीसीटीवी कैमरों के साथ 5 ड्रोन भी आसमान से नजर रख रहे हैं।

यात्रा से जुड़े तत्थ

पुरी स्थित भगवान जगन्नाथ मंदिर भारत के चार पवित्र धामों में से एक है। ये मंदिर 800 वर्ष से अधिक प्राचीन है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण, जगन्नाथ रूप में विराजित है। यहां उनके बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की भी पूजा की जाती है। पुरी रथयात्रा के लिए बलराम, श्रीकृष्ण और देवी सुभद्रा के लिए तीन अलग-अलग रथ बनाए जाते हैं। रथयात्रा में सबसे आगे बलभद्र जी का रथ, उसके बाद बीच में देवी सुभद्रा का रथ और सबसे पीछे भगवान जगन्नाथ का रथ होता है। बलरामजी के रथ को 'तालध्वज' कहते हैं, जिसका रंग लाल और हरा होता है। ये 45 फीट ऊंचा होता है। देवी सुभद्रा के रथ को 'दर्पदलन' या 'पद्म रथ' कहा जाता है, जो काले या नीले और लाल रंग का होता है। ये रथ 44.6 फीट ऊंचा होता है। वहीं भगवान जगन्नाथ के रथ को 'नंदीघोष' या 'गरुड़ध्वज' कहते हैं। इसका रंग लाल और पीला होता है। ये 45.6 फीट ऊंचा होता है। इन रथों के निर्माण में किसी भी प्रकार के नुकीली वस्तु का प्रयोग नहीं होता। ये रथ नीम की पवित्र और परिपक्व लकड़ियों से बनाए जाते हैं। रथों के लिए लड़कियों का चयन बसंत पंचमी के दिन से शुरू होता है और उनका निर्माण अक्षय तृतीया से प्रारम्भ होता है।जब ये तीनों रथ तैयार हो जाते हैं, तब 'छर पहनरा' नामक अनुष्ठान संपन्न किया जाता है। इसके तहत पुरी के गजपति राजा पालकी में यहां आते हैं और इन तीनों रथों की विधिवत पूजा करते हैं और सोने की झाड़ू से रथ मंडप और रास्ते को साफ़ करते हैं। जगन्नाथ मंदिर से रथयात्रा पुरी नगर से शुरू होकर गुजरते हुए गुंडीचा मंदिर पहुंचती है। यहां भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और देवी सुभद्रा सात दिनों के लिए विश्राम करते हैं। गुंडीचा मंदिर (गुंडीचा बाड़ी) में भगवान जगन्नाथ के दर्शन को आड़प-दर्शन कहा जाता है। ये भगवान की मौसी का घर है।

कहते हैं कि रथयात्रा के तीसरे दिन यानी पंचमी तिथि को देवी लक्ष्मी, भगवान जगन्नाथ को ढूंढते हुए यहां आती हैं। तब द्वैतापति दरवाज़ा बंद कर देते हैं, जिससे देवी लक्ष्मी रुष्ट होकर रथ का पहिया तोड़ देती है और हेरा गोहिरी साही पुरी नामक एक मुहल्ले में, जहां देवी लक्ष्मी का मंदिर है, वहां लौट जाती हैं। बाद में भगवान जगन्नाथ रूठी हुई देवी लक्ष्मी को मनाते हैं। ये परंपरा भी है। यह रुठना-मनाना संवादों के जरिए आयोजित किया जाता है, जो एक अद्भुत भक्ति रस उत्पन्न करती है। आषाढ़ महीने के दसवें दिन सभी रथ फिर से मुख्य मंदिर की ओर प्रस्थान करते हैं। रथों की वापसी की इस यात्रा की रस्म को बहुड़ा यात्रा कहते हैं। जगन्नाथ मंदिर वापस पहुंचने के बाद भी सभी प्रतिमाएं रथ में ही रहती हैं। देवी-देवताओं के लिए मंदिर के द्वार अगले दिन एकादशी को खोले जाते हैं, तब विधिवत स्नान करवा कर वैदिक मंत्रोच्चार के बीच देव विग्रहों को पुनः प्रतिष्ठित किया जाता है।

समुद्र में उठते हुए ज्वार-भाटा की रागरागिनियों को सुनते रहते हैं तट के किनारे श्रीजगन्नाथ पुरी मंदिर में विग्रह

रूप में विराज रहे भगवान जगन्नाथ। उनके साथ ही भाई बलभद्र और सुभद्रा भी यहां विग्रह रूप में मौजूद हैं। जब विग्रह रूपी बलभद्र, सुभद्रा और स्वयं जगन्नाथ रथों पर सवार होकर निकलते हैं, तो भक्तों के बीच रथों को खींचने और अपने आराध्य की एक झलक पाने की होड़ लग जाती है। उस समय अमीर-गरीब, निर्धन- धनी, निर्बल-सबल सभी का भेद मिट जाता है।

स्वयं से पहचान कराती है यात्रा

स्वामी विवेकानंद ने एक संन्यासी के रूप में हिमालय से कन्याकुमारी तक की यात्रा की थी। वे कहते हैं, ‘हम यदि किसी पवित्र तीर्थ स्थल की यात्रा करते हैं, तो न सिर्फ स्वयं को, बल्कि अपने परिवेश और लोगों को भी पहचान पाने में समर्थ हो पाते हैं। अलग-अलग अनूभूतियां उसे यह ज्ञान देती हैं कि इस संसार में न कोई छोटा है और न कोई बड़ा। सभी ईश्वर की संतान हैं। गीता में भी श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं सभी रूपों में विराजमान हूं। इसलिए सभी का सम्मान करें। कुछ ऐसे ही अहसासों से परिपूर्ण होता है इंसान, जब वह श्रीजगन्नाथ-यात्रा में शामिल होता है। यही वजह है कि बलभद्र, सुभद्रा और जगन्नाथ जी का रथ सभी मिलकर खींचते हैं। रथयात्रा भले ही आषाढ़ द्वितीया से शुरू हो, लेकिन इसकी तैयारी काफी पहले से शुरू हो जाती है। अक्षय तृतीया के दिन विशिष्ट

लकड़ियों से श्रीकृष्ण, बलराम और सुभद्रा के रथों का निर्माण शुरू हो जाता है। इसमें किसी प्रकार की कील या कांटा नहीं लगाया जाता है। आत्मा और शरीर का समन्वय हालांकि यह यात्रा कुछ ही किलोमीटर की होती है, लेकिन इस पर्व के साक्षी देश-विदेश से आए लाखों लोग बनते हैं। जब हजारों लोग मिलकर इस रथ को खींचते हैं, तो संपूर्ण वातावरण श्रद्धा से परिपूर्ण हो जाता है। चलते समय रथ की ध्वनि और धूप-अगरबत्ती की सुगंध श्रद्धालुओं को दोगुने वेग से रथ को खींचने के लिए प्रेरित करती है।

माना जाता है कि ईष्या, द्वेष और अहंकार के क्षय होने का प्रतीक है रथ-निर्माण, जिसका संचालन स्वयं ईश्वर करते हैं। हमारा शरीर भी रथ समान है। यदि हम क्रोध, मोह, ईष्र्या को परास्त कर लें, तो हमारे मन का संचालन आत्मा में विराजे प्रभु करने लगेंगे। इस प्रकार रथ-यात्रा शरीर और आत्मा के मेल की ओर संकेत करती है। आत्मदृष्टि बनाए रखने की प्रेरणा देती है। आत्मदृष्टि से परिपूर्ण यह यात्रा लोकशक्ति का अद्भुत दृश्य पेश करती है। ‘गाइड’ के महान लेखक आर. के. नारायण अपनी आत्मकथा ‘माय डेज’ में लिखते हैं, ‘यात्रा मन को स्थिर और शांत करने में मदद करती है। विचार स्पष्ट और भावनाएं स्वस्थ होने लगती हैं। मन की ग्रहण शक्ति बढ़ जाती है और उसे अपनी स्वतंत्र गति प्राप्त होने लगती है। इससे विचार, भावनाएं तथा दर्शन सब कुछ अपना समाधान तथा सही निर्णय स्वयं करने लगते हैं।’

गुंडीचा महोत्सव

रथ यात्रा को गुंडीचा महोत्सव भी कहते हैं। कथा है कि भगवान श्रीकृष्ण ने राजा इंद्रद्युम्न को वर दिया कि मैं तुम्हारे यहां प्रतिवर्ष अन्य देवताओं के साथ नौ दिनों तक निवास करूंगा। इस दौरान जो भी व्यक्ति गुंडीचा मंडप में विराजमान मेरा, सुभद्रा और बलराम का दर्शन करेगा, उसे मेरा आशीर्वाद प्राप्त होगा। इसके बाद से ही इस यात्रा को मनाने की शुरुआत हुई। असल में यह यात्रा नौ दिनों की होती है। द्वितीया को भगवान मंदिर से निकलकर गुंडीचा नगर आ जाते हैं। यहां वे सात दिनों तक रुकते हैं और अपने भक्तों को दर्शन देते हैं। नवमी के दिन वे रथों पर सवार होकर वापस मंदिर आ जाते हैं।


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