16 साल की उम्र, हाथ में 60 रुपये... और बेगाना शहर
जब कॉलेज में पहुंची तो मैं लड़कों के प्रति आकर्षित होने लगी। मैंने अपने परिवार को हर तरह से अपनी सेक्शुअलिटी के बारे में समझाने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने कभी भी स्वीकार नहीं किया।
मैं परिवार और पिता के लिए शर्मिंदगी का कारण बनना नहीं चाहती थी, इसलिए महज 16 साल की उम्र में 60 रुपए लेकर घर से निकल गई। उसके बाद पापा को कभी नहीं देखा। आजी से कभी नहीं मिली।
पुणे से मुंबई आ गई। उस वक्त यहां न खाने को खाना, न रहने को घर और न ही कहने को कोई अपना था। भूख से जान जा रही थी। सिद्धिविनायक मंदिर पहुंची तो वहां लड्डू बंट रहे थे। लाइन में लग लड्डू लिया और खाने लगी, उस वक्त मैं सारी तकलीफ भूल गई थी। दूसरी बार लड्डू लिया, लेकिन तीसरी लेने गई तो उन्होंने भी भगा दिया। स्टेशन पर ही सो गई।
पांच रुपये के नोट ने दिखाई राह
अगले दिन मैले से कपड़ों में एक सिग्नल के पास भीख मांगने के लिए खड़ी थी, तभी किसी ने पांच रुपये का फटा नोट मेरी हथेली पर रख दिया। वो चला गया और मैं उस नोट को देर तक उलट-पुलट कर देखती रही।
फिर फैसला किया- हां, मुझे लड़की बनकर ही जीना है। साड़ी पहननी है, गहने भी पहनने हैं, मेकअप कर सजना-संवरना है, लेकिन भीख नहीं मांगनी है और न ही गंदा काम करूंगी। मुझे मेहनत की कमाई खानी है और सम्मान की जिंदगी जीनी है। इसके बाद, मुंबई के दादर में ही ट्रांसजेंडर कम्युनिटी के साथ रहने लगी।
हमेशा के लिए बन गई गणेश से गौरी...
हर दिन पेट भरने के लिए चार पैसा कमाने के लिए जुगत भिड़ाती। गुरु से बात की तो उन्होंने मुझे काम करने की इजाजत दे दी। ग्रेजुएशन तक पढ़ी-लिखी थी, इसलिए ‘हमसफर’ ट्रस्ट के साथ जुड़कर किन्नरों और देह व्यापार से जुड़ी महिलाओं के हित में काम करने लगी। यहां से जो पैसे मिलते, उससे आगे की पढ़ाई पूरी की।
इसी ट्रस्ट की मदद से खुद की वेजिनोप्लास्टी सर्जरी करवाई और हमेशा के लिए गणेश नंदन से गौरी सावंत बन गई। साल 2000 में 'सखी चार चौघी' नाम से एक संस्था बनाई, जिसके जरिये किन्नरों के हित के लिए काम करना शुरू कर दियाा।
'उस दिन समझ आया- मैं कितनी मशीनी इंसान बन गई'
साल 2006 की बात है। मेरा एक चेला दौड़ता हुआ आया और बोला- अम्मा, तुमको याद है, पांच साल पहले एक महिला तुमसे अचार मांगने आई थी, उसकी HIV से मौत हो गई। दरअसल, पांच साल पहले एक बंगाली महिला मुझसे अचार मांगने आई थी, मैंने उसे नींबू का अचार दिया और उसने बदले में स्माइल। वो चली गई और मैं भूल गई।
परिवार और समाज के लोग गले नहीं लगाते। बीमार होने पर भी डॉक्टर हाथ नहीं लगाता। रेस्टोरेंट वाले अंदर बैठकर खाना नहीं खाने देते। समाज से मिली दुत्कार और अपनों के धोखे ने मुझे इस कदर मशीनी इंसान बना दिया कि मैंने जवाब में कहा- ठीक है, यहां हर दिन कोई न कोई मरता ही है।