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विल यू बी माइ वेलेंटाइन..

कुछ मौ़के ऐसे होते हैं जो हमारे सोए हुए अरमानों को जगा देते हैं तो उम्र के कुछ दौर भी। जो लोग मौ़कों और दौर का समय रहते ़फायदा उठा लेते हैं, उनके तो पौ बारह। पर जो नहीं उठा सके वे बेचारे..

By Edited By: Published: Fri, 01 Feb 2013 12:33 AM (IST)Updated: Fri, 01 Feb 2013 12:33 AM (IST)
विल यू बी माइ वेलेंटाइन..

14 फरवरी को वेलेंटाइन  डे  क्या आता है कि हमारे दिल, जिगर, कलेजे,  गुर्दे.. और पता नहीं कहां-कहां के सारे जख्म  हरे कर जाता है। अंदर से एक हूक-सी उठती है.. जब हम जवान थे, तब यह प्रेम-दिवस क्यों नहीं मनाया जाता था। आज फेसबुक, सेलफोन.. क्या-क्या नहीं है। और एक हमारी जवानी थी जो छोटे भाई-बहनों की मार्फत गुमनाम प्रेमपत्र भेज-भेज कर मेलों-ठेलों में दूर-दूर से ही दीदार करके तसल्ली-वसल्ली कर लेने में ही बीत गई।

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कहते हैं सत्रह से बाइस तक की उम्र जीवन का प्रेमकाल होती है। इस दौर में नालायक से नालायक बंदा भी, और कुछ हो ना हो, प्रेमी जरूर होता है। इस प्रेमकाल के प्रकांड प्रेमी जन आजकल चौखटा ग्रंथ की दीवार यानी फेसबुक की वाल पर दिल का हालचाल चस्पा करके शांत-चित्त हो लेते हैं, परंतु हमारे जमाने में इस श्रेणी के प्राणी दिल का गुबार निकालने के लिए कविता लिखा करते थे। प्रेम-सुनामियों में डूबते-उतराते.. डायरीनुमा कॉपी या कॉपीनुमा डायरी के पन्नों पर तुकें भिडाना ही इनका काम था। दरअसल सत्रह से बाइस की उम्र प्रेम के प्रचंड प्रकोप से ग्रस्त होती है। इस नाजुक उम्र में प्रेमरोग मस्तिष्क ज्वर की तरह दिमाग पर चढा रहता है.. और तब तक नहीं उतरता.. जब तक पत्नी रूपी वैद्य इसे गृहस्थी रूपी खरल में जड समेत न घोट दे।

दुर्भाग्य से, इस मामले में हम भाग्यशाली नहीं रहे। हमें इस दिव्य औषधि प्रेमासव की दो बूंदें तक सेवन के लिए नहीं मिलीं। सत्रह से बाइस की उम्र में हमें प्रेमरोग तो क्या लगना था, प्रेम का मामूली जुकाम भी नसीब नहीं हुआ। न दिल ने छीकें मारीं और न भावनाओं की रेंट ही बही। हमारा प्रेम-चेक ब्लैंक का ब्लैंक ही रह गया। कोई लचकदार हाथ आगे नहीं बढा जो कम-अज-कम उसमें चवन्नी-अठन्नी भर के सिग्नेचर ही मार देता।

सत्रह से बाइस वाली हमारे जीवन की पंचवर्षीय योजना प्रेम की भीषण अनावृष्टि के कारण खडी-खडी सूख गई। किंतु लोकोक्ति है कि बारह बरस बाद तो घूरे के दिन भी फिरते हैं। हम कदाचित् उस उच्च स्तर के घूरे नहीं थे। इसलिए हमारे दिन चार-पांच बरस में ही फिर गए। एक रात निद्रावस्था के दौरान स्वप्न में हमें यह बोध हुआ कि कवि बनने के लिए प्रेमी बनने का सुसंयोग  तो उत्पन्न ही नहीं हो सका, परंतु प्रेमी बनने के लिए कवि किसी भी उम्र में बना जा सकता है।

वैसे भी कविता और प्रेम में बडा गहरा रिश्ता है। काव्यशास्त्र और प्रेमशास्त्र के सभी डॉक्टरेट उपाधि प्राप्त विद्वान सुदीर्घ शोध-साधना के उपरांत एक मत से इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि कालिदास से लेकर घनानंद तक सारे कवि धुरंधर प्रेमी थे। अपने पंत जी भी छायावाद के छायादार वृक्ष तले बैठकर फरमा गए हैं .. वियोगी होगा पहला कवि..। अब देखने वाली बात यह है कि वह भला मानुष वियोगी तभी तो बनेगा जब पहले संयोगी हुआ हो। एक फिल्म गीत भी है जो इस संबंध में बडी इल्मी जानकारी देता है..हर दिल जो प्यार करेगा, वो गाना गाएगा.। यहां कविराय  शैलेंद्र प्रकारांतर से यही स्पष्ट करने का प्रयास कर रहे हैं कि हर दिल जो प्यार करेगा, वह कविता लिखेगा।

सात सौ अश्व-शक्ति के इस प्रबोध ने हमारी मूढमति के किवाड भडभडाकर खोल दिए। हमारी तुच्छ बुद्धि रूपी फैक्स में से ईश्वर की ओर से भेजी गई योजना का प्रिंट-आउट निकलने लगा.. क्यों न कविता की एक लघु टाइप की पत्रिका निकाली जाए, जिसमें कवयित्रियों की कविताएं छापने के बहाने डोरे डालो अभियान चलाया जाए। पंद्रह पन्नों की पत्रिका की सौ प्रतियां पंद्रह सौ में छप जाया करेंगी। सौदा महंगा नहीं है। पंद्रह वर्षो में यदि पंद्रह प्रेमिकाएं भी मिल गई तो अगले-पिछले पंद्रह जन्म धन्य हो जाएंगे। अत: एक पत्रिका-सी लगने वाली चीज निकालनी शुरू कर दी। जहां से जो पता मिलता, ख्ास कर किसी कवयित्री का, झट से पत्रिका की एक प्रति सप्रेम भेंट लिख कर भेज देते। प्रत्युत्तर भी मिलने लगे। इससे उत्साहित होकर प्रेमिका नंबर वन की राह देखने लगे।

परंतु, जैसे गेहूं के साथ घुन चला आता है, उसी प्रकार कवयित्रियों के साथ कई रसिक िकस्म के कवि भी चले आए। रीतिकाल के प्रवर्तक महाकवि केशव ने कविता को रसिक-प्रिया कहा था। निश्चित रूप से उनके काल में बडे-बडे रसिक रहे होंगे जो कविता से भीषण प्रेम करते रहे होंगे। इसीलिए महाकवि ने कविता का यह नामकरण किया होगा। परंतु आधुनिक काल के रसिक और भी बडे धुरंधर निकले। ये कविताओं से कम, कवयित्रियों से अधिक प्रेम करते थे। हम भी अपनी पत्रिका के माध्यम से इन महान प्रेम-धुरंधरों की श्रेणी में सम्मिलित होने का प्रयास करने लगे।

लेकिन िकस्मत अब भी हमारे साथ न थी। उपर्युक्त वर्णित महारथी हमारी पत्रिका के माध्यम से, हमारे ही सामने, हमें ही ठेंगा दिखाने लगे। मिसाल के तौर पर पिछले दिनों एक बहुत ही बडे कवि से भेंट हुई। इस बडे भाई को इतने सम्मान और पुरस्कार मिल चुके थे कि इन्हें खुद भी उनकी गिनती याद नहीं थी। कवि महाराज ने अपने ताजा काव्य-संग्रह की दो प्रतियां हमें समीक्षा करने के लिए प्रदान कीं। हमारा हृदय गदगदा उठा। हमने भी श्रद्धावश उन्हें पत्रिका के कुछ अगले-पिछले अंक भेंट किए। दो-चार दिन बाद कविराय साहब का फोन आया कि अब आपको काव्य-संग्रह की समीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है। उन्होंने अतीव रससिक्त वाणी में पत्रिका में छपे कुछ बेहद ख्ाूबसूरत नामों की चर्चा करते हुए फरमाया कि अब वे उनमें से ही किसी से यह समीक्षा करवाएंगे। कृपया उन ख्ाूबसूरत नामों के ख्ाूबसूरत फोन नंबर उन्हें दे दिए जाएं। हमने रकाबत में झुलसते हुए पत्रिका की नीति के बहाने अपनी कोफ्त छुपाने की नाकाम कोशिश की और असमर्थता जता दी। कहा कि आप स्वयं पत्रिका में प्रकाशित पतों पर संपर्क कर लें। तकरीबन महीने भर बाद बडे मियां ने फिर हमारे दूरभाष-यंत्र की घंटी खडकाई और दिलीप कुमाराना स्टाइल में बोले कि यार महीना हो गया.. फलां.. फलां को किताब भेजी.. कोई जवाब ही नहीं आया..। अब हम मोतीलाल की तरह चुन्नी बाबू स्टाइल में देवदास को दिलासे के सिवा और दे ही क्या सकते थे!

इसी प्रकार एक अन्य शायरा-शनास  हजरत ने भी पत्रिका में छपे एक तीर-ए-हुक्मी नाम से घायल होकर निहायत ही सरगोशी से उसके बाबत पूछताछ की। जब किबला को इल्म हुआ कि मोहतरमा एक यूनिवर्सिटी से दस बरस पहले सबुकदोश हो चुकी हैं और िफलहाल अमेरिका में अपने सहिबजादे के साहिबजादों  के पास रिहायश फजीर हैं तो साहिब का गुल्म-ए-ख्ाुलूस खिलने से पहले ही मसला गया।

यही नहीं, एक रसिक ऐसे भी टकराए जो प्रकट रूप में तो हर छपी किताब साहित्य नहीं होती और हर लिखी गई चीज रचना नहीं होती, जैसी धधकती-भभकती परिचर्चाएं चलाए हुए थे, परंतु हमारी पत्रिका में छपी एक नवयौवना कवयित्री की भेजी ऐसी गजल छाप बैठे, जिसके वजन, कािफये और रदीफ की बात तो छोडें, एक मिसरे में आठ अल्फाज थे तो उससे अगले में तीन और उससे अगले में ग्यारह। गजल से ज्यादा गजलगो  की तस्वीर से प्रभावित हो जाने वाले ये सज्जन सबको पीछे छोड सर्वोच्च कोटि का रसिक बन बैठे।

और तो और.. इन बुढऊ रसिकों को धूप में सफेद किए अपने बालों तक का ख्ायाल  न रहा। महाकवि केशव तो पनघट पर खडी पनिहारिन चंद्रबदन-मृगलोचनी कन्याओं द्वारा श्वेत केशों के कारण बाबा कह दिए जाने पर केशव केसन अस करी.. कहते हुए आहत और शर्मिदा हो उठे थे, परंतु इन रसिकों के सामने ऐसी कोई समस्या नहीं आती थी। क्योंकि ये शनिवार तक आते-आते अधेड जरूर हो जाते थे, लेकिन हर रविवार को ख्िाजाब-बाबा के आशीर्वाद से पुन: युवा हो उठते थे।

रसिकों की इस लूट-खसोट में, हम कहीं के न रहे। हमारी हालत सलमान भाई जैसी हो गई। हम कवयित्रियां तैयार करते, पर उन्हें झटक कोई और ले जाता।

तब से लेकर आज तक.. हमें कभी मौका ही नहीं मिला कि हम किसी को कह पाएं.. विल यू बी माइ  वेलेंटाइन।  काश! हम पच्चीस साल बाद पैदा हुए होते! वैसे हम आज भी पगडी रंगवाने के बहाने अधलिखे दोहे या शेर पगडी के पल्ले में बांध कर किसी रंगरेज या रंगरेजिन को दे आते हैं और वापसी पर उसके पूरा निकलने की आस लगाए बैठे रहते हैं। डॉ.राजेन्द्र साहिल


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