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अनवांटेड

बरसों बाद अपने घर लौटना सुखद होता है, लेकिन तभी, जब कोई पहचानने वाला हो। रिश्तों को झटक कर जीवन में आगे बढ़ जाने से पहले सोचना जरूरी है कि भविष्य में कभी उसी घर में लौटना भी पड़ सकता है। एक समय के बाद स्नेह-तंतु भी कमजोर पड़ जाते हैं।

By Edited By: Published: Tue, 03 Dec 2013 01:00 PM (IST)Updated: Tue, 03 Dec 2013 01:00 PM (IST)
अनवांटेड

भोर में ही उठ गए दत्ता साहब। वैसे भी रात भर जागते ही रहे थे। बैठे-बैठे कभी झपकी आती, फिर अगले ही पल नींद खुल जाती। बनारस के जाने-माने सी.ए. हैं, पैसे की कमी नहीं है, पर दम लेने को फुर्सत नहीं। पॉश  इलाके में भव्य कोठी है, गाडियां हैं। बेटी है 19 वर्ष की, बेटा 16 वर्ष का है। अपने समय में होनहार छात्र थे, लेकिन इस मामले में बच्चों ने निराश किया है। बेटा जरा मंद बुद्धि है और बेटी भी बारहवीं में अटक गई है। पत्नी नीता  को किटी क्लब से फुर्सत नहीं तो दत्ता साहब को क्लाइंट्स से। ऐसे में बच्चों के भविष्य की कल्पना की जा सकती है। वैसे भी बच्चों को दत्ता साहब से नहीं,उनके पैसे से लगाव है। घर की निचली मंजिल पर ऑफिस बनवा रखा है, वहीं एक कमरे में बेड भी है। थक जाते हैं तो वहीं सो जाते हैं। सुबह नौकर चाय-नाश्ता दे जाता है और वे काम में जुट जाते हैं। नीता  से तो अब मुलाकात भी कम होने लगी है। ..तैयार होकर निकले तो बाहर अंधेरा था। दूर अजान की आवाज  आ रही थी। दरवाजा  खोल कर बगीचे में आए। शीतल हवा के झोंके ने उनके माथे को ऐसे चूमा, मानो मां का स्नेह भरा चुंबन हो। दत्ता साहब के मुंह से आह निकल गई। मां को देखे कितने साल हो गए! धीरे-धीरे पौ फटने लगी और अब हलका सा उजाला धरती पर फैलने लगा था। वह गेट के बाहर आ गए। सडक अभी सुनसान थी। यदा-कदा एकाध टैक्सी निकलती। उन्होंने हाथ देकर एक टैक्सी को रोका। ड्राइवर को गंतव्य के बारे में बताया। कुछ ही देर में गाडी सडकों पर सरपट दौडने लगी थी। सुबह का आनंद लेने के लिए दत्ता साहब ने कार की खिडकी खोली तो ठंडी हवा भीतर आने लगी। रात भर के जागे थे, आंख लग गई।

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पता नहीं कितनी देर तक सोए रहे। नींद खुली तो गाडी इलाहाबाद रोड पर दौड रही थी। चाय की तलब होने लगी।

ड्राइवर! जरा  चाय की दुकान पर रोकना। जी सर, कहते हुए ड्राइवर ने गाडी रोक दी। चाय पीकर गाडी ने दोबारा रफ्तार पकडी तो सीधे घर के आगे आकर रुके।

अरे, घर के चारों ओर यह चारदीवारी कब बन गई? बाउंड्री पर चढी चमेली, मोगरा, मधुमालती की बेलें।  लोहे के गेट पर भी लाल-पीले फूलों वाली खुशबूदार बेलें..। गेट खोल कर अंदर आए तो एक अनजान व्यक्ति दिखा। यह घर तो वैसा नहीं, जैसा छोड कर गए थे। यह तो पक्का, आधुनिक डिजाइन वाला दुमंजिला  घर है। यहां से निकले थे तो कच्ची-पक्की ईटों की दीवार, मिट्टी का फर्श और टीन की छत थी। दत्ता साहब आश्चर्य से भर गए। तभी उनकी नजर  सामने भोले बाबा के मंदिर पर पडी, जो बिलकुल पहले जैसा ही था। उन्होंने अब सडक पर ध्यान दिया, जो पक्की बन गई थी। जब वह पढते थे तो कच्ची सडक पर साइकिल चलाने में झटके लगा करते थे। मगर अब तो टैक्सी से सीधे घर पर उतरे थे। दत्ता साहब के माथे पर पसीने की दो-चार बूंदें  घिर आई। बीस वर्ष के लंबे समय में बहुत-कुछ बदल जाता है।

..उस दिन भी इस अधपक्के  घर के आंगन में ऐसी ही प्यारी धूप खिली थी। वह पिता गांव प्रधान दयाशंकर जी के सामने खडे थे। पिता क्रोध से उबल रहे थे। धार्मिक विचारों वाले ईमानदार और न्यायप्रिय व्यक्ति के आगे वह अपनी बात कह रहे थे। मां रो रही थीं। दरवाजे  की ओट में छिपी उमा के सुबकने की आवाज उनके कानों में आ रही थी। मां ने रोते हुए पूछा था, यह किस सर्वनाश की बात कर रहा है तू मुन्ना? छह महीने की गर्भवती उमा को तू तलाक देगा? अरे उस बेचारी की गलती क्या है, यह तो बता?

वह मेरे साथ चलने लायक नहीं है मां और बिना तलाक के वे लोग अपनी बेटी की शादी मुझसे नहीं करेंगे। शादी नहीं हुई तो आगे की पढाई के लिए विदेश जाने का मौका हाथ से निकल जाएगा। मैं इस गांव में रहकर जिंदगी खत्म नहीं करना चाहता, मुझे अपनी जिंदगी में बहुत आगे बढना है।

नहीं मिलेगा तलाक..! तुम अभी घर से निकल जाओ और यहां कभी मत आना। मैं आज से और अभी से पुत्रहीन  हुआ..।

पिता के तीखे शब्दों को काटते हुए उन्होंने एक बार फिर कहा, आप समझते क्यों नहीं, यह मेरे करियर  का सवाल है?

मेरे मुंह से निकले शब्द सरकारी कागजों  के ऊपर हैं। तुम निश्चिंत रहो, बहू कभी अपना अधिकार मांगने तुम्हारे पास नहीं आएगी। तुम्हें जहां जाना हो, जा सकते हो।

अधर्म मत कर मुन्ना! भगवान तुझे माफ नहीं करेंगे.., मां गिडगिडा रही थीं।

चार वर्ष का नन्हा बेटा दौड कर उनके पैरों से लिपट गया, लेकिन उन्होंने उसे भी दूर झटक दिया। बच्चा गिरा और उसे चोट लग गई। कोने में खडी उसकी मां ने तुरंत उसे गोदी में उठा लिया..।

उस दिन से वह अजनबी हो गए घर के लिए। आज बीस वर्ष बाद लौट कर आए हैं तो अपने ही घर को पहचान नहीं पा रहे।

किससे मिलना है आपको?

स्वर में कोयल की मिठास लिए एक 19-20 वर्ष की लडकी सामने थी, हाथ में हरसिंगार के फूलों की टोकरी। बाबू जी तो भोर से ही आंगन में चारपाई डाल कर बैठते थे। अब आंगन ही नहीं है तो कहां बैठते होंगे वह? लोगों से कहां मिलते होंगे?

मैं.. मैं..।

दादी मां से मिलेंगे..।

क्या अब घर के नियम बदल गए हैं? लोग बाबू जी के बजाय अम्मा से मिलने आते हैं?

हां.. हां..।

आइए.., मैं दादी को बुलाती हूं..।

दादी मां! शब्द ने उन्हें हिला दिया..। तो क्या यह वही लडकी है, जो उस वक्त पत्नी के गर्भ में थी! अब वह एक अत्याधुनिक और रुचिपूर्ण ढंग से सजे लंबे-चौडे ड्राइंगरूम  में बैठ गए। चमचमाते पीतल के फूलदान में फूलों के गुच्छे अपनी सुगंध से कमरे को महका रहे हैं। लडकी ने सीलिंग फैन ऑन किया और दूसरे कमरे की ओर जाने लगी। तभी वह बोल पडे, तुम्हारा.. नाम क्या है?

सोनाक्षी..।

इन बीस वर्षो में गांव की कायापलट हो गई है। सडक पक्की हुई, बिजली भी आ गई है। कुछ देर बाद ही दरवाजे  का पर्दा हिला।

तो तुम हो!

चौंके वह.. अम्मा को देख कर। नहाई-धोई पवित्र सी छवि। शरीर से आ रही चंदन व धूप की सुगंध ने फूलों की सुगंध को भी मात दे दी। मगर तभी दिल धक से रह गया, जब नजर  उनकी सूनी मांग पर पडी। माथे पर सिंदूर की जगह चंदन का हलका पीला टीका था। तो क्या बाबू जी चले गए और उन्हें अंतिम क्रिया पर भी नहीं बुलाया गया! अम्मा ने सहज भाव से लडकी से कहा, जा सोना! उमा को बोल कर चाय भेज दे और नाश्ता बनाने को कह दे।

उन्हें देख कर मां के मुंह पर कोई प्रतिक्रिया नहीं है। निर्लिप्त भाव से वह सामने बिछे दीवान पर पालथी मार कर बैठ गई।

कैसे आना हुआ? कोई काम था क्या?

सूखे गले से बोले, नहीं..बस ऐसे ही..।

साहस बटोर कर पूछा, बाबूजी.. कब..?

तीन वर्ष हो गए। तब सोना ने इंटर पास किया था। अब बीए फाइनल में है।

प्राइवेट..?

अम्मा ने तीखी नजर  से देखा, नहीं, बनारस विश्वविद्यालय से। हॉस्टल में रहती है। छुट्टी में आई है। बिज्जू ने वहीं से डॉक्टरी की है। दोनों बच्चे बडे होशियार हैं। मां सरस्वती का आशीर्वाद है। बिज्जू भी गोल्ड मेडलिस्ट है। सोना को तो पेंटिंग में कई पुरस्कार मिले हैं।

अम्मा के मुख पर गर्व की आभा देख वह आहत हुए। तो ये दोनों उनके बच्चे हैं। तभी मन ने धिक्कारा- उनका कोई अधिकार नहीं है अब। यह अधिकार बीस वर्ष पहले ही खो चुके हैं वह। बेटी तब पैदा नहीं हुई थी। आज 20 साल बाद आए हैं तो समय ने क्या-कुछ नहीं बदल डाला। वो भी तो बदले हैं। तब इस घर का बेटा अजय घर छोड कर गया था और आज बनारस का सबसे महंगा सी.ए. अजय दत्ता लौटा है।

चाय..

चौंके वह उमा को देख कर..। बीस वर्ष में उसमें कोई खास फर्क नजर नहीं आ रहा था। चिकन की साडी, सिर पर पल्ला, हाथों में सोने के कंगन, माथे पर बिंदी, मांग में सिंदूर। तो क्या उसने दिल से उन्हें अब भी पति मान रखा है! उन्हें देख कर उमा चौंकी, पर उसने खुद को संतुलित रखा। तभी अम्मा उससे बोलीं, बहू, जाकर नाश्ता बना दो..।

चाय का पहला घूंट भरते ही पूरे मुंह में ताजगी भर गई। सुगंधित इलायची वाली चाय? अम्मा के प्रश्न का क्या उत्तर दें? थक कर ही तो आए हैं उस शांति के नीड में सुस्ताने। मगर वह नीड भी कहां बचा। उन्हें लगा, उनका अस्तित्व मुठ्ठी में रेत की तरह फिसल गया है। मां को बच्चों की चिंता थी। बहू के मायके में तो कोई था नहीं। मामा ने शादी की थी उमा की। बेटे द्वारा परित्यक्त बहू के लिए उनके मन में दुख था। इसीलिए खेती-बाडी पर ध्यान दिया। भाग्य ने साथ दिया और जमीन बढ कर दुगनी-तिगुनी हो गई। बच्चों ने भी निराश नहीं किया। अब दोनों का रिश्ता पक्का हो गया है। एकाध साल में शादी कर देंगे..। सोना ट्रे पर नाश्ता सजा कर ले लाई। देसी घी की ख्ाुशबू कमरे में भर गई। पूडी के साथ उनके मनपसंद मसालेदार आलू, रायता.., अचानक जोरों की भूख लग आई उन्हें। याद आया, कल रात खाना नहीं खाया था। नीता से झगडा हो गया था। नीता हमेशा अपनी मर्जी चलाती है। बेटी ऐनी को भी अपने रंग में ढाल लिया है उसने। कुछ कहने पर नीता ढाल बन कर सामने आ जाती है और उल्टे उन्हें ही पुराने विचारों वाला कह कर ताने देती है। दो-तीन दिन पहले की बात है। बेटी कह कर गई थी कि सहेली की शादी में जा रही है। उसी दिन देर रात ड्रग्स लेते कुछ युवा पकडे गए, जिनमें उनकी बेटी भी थी। किसी तरह उसे घर ले लाए, मगर नीता ने ऐसी प्रतिक्रिया दी, मानो कुछ हुआ ही न हो। इसके बाद तो उनका धैर्य ही खत्म  हो गया। सोचने लगे, क्या इसी जीवन के लिए वह अपना सब कुछ छोड आए थे?

चाय लेंगे? सामने सोना थी। भूख इतनी थी कि और मांगने का मन किया, मगर मेहमान मांगते नहीं। याद आया तीज-त्योहार पर अम्मा उडद की दाल की कचौडी बनाती थी। जितनी देर कडाही चूल्हे पर होती, वह किचन से बाहर नहीं निकलते। गर्मागर्म कचौडियां  खाते जाते। अम्मा चिल्लातीं, अरे पहले भोग तो लगाने दो..

ओह हां..बेटा एक कप बना दो..।

सोना के चाय रखते ही अम्मा ने पूछा, लौटोगे कैसे?

क्या अम्मा उन्हें जाने का संकेत दे रही हैं?

पूरे दिन के लिए टैक्सी लाया हूं..।

तब ठीक है। स्टेशन दूर है, बस में भीड भी होती है। बिज्जू बता रहा था कि बरसात के कारण एक जगह सडक बीच से टूटी है, इसलिए दिन रहते-रहते निकल जाना..।

बाहर मोटरसाइकिल रुकने की आवाज आई तो उन्होंने उधर देखा। एक सुदर्शन युवा अंदर की ओर आ रहा था। उसे देखकर उन्हें अपनी युवावस्था याद आ गई। शिष्टाचार-वश उनसे अभिवादन करके वह अम्मा की ओर मुडा। अम्मा ने भी परिचय कराने का कोई उत्साह नहीं दिखाया और उससे मुख्ातिब हुई, बेटा चौधरी ने कुछ जवाब दिया? अम्मा! जो दाम बोला है, उससे थोडा भी नीचे नहीं आ रहे वह।

ले तो लें बेटा पर.. सोना की शादी..

वो हो जाएगी दादी, पर बाग हाथ से निकल गया तो फिर नहीं मिलेगा। अपनी जमीन  से सटा हुआ है, कीमत भी कम ही है।

दत्ता साहब को इसी बेटे की चिंता थी। सोचते थे, कभी प्रॉपर्टी  में हिस्सा मांगने आ गया तो? लेकिन वह तो डॉक्टर बन गया। अम्मा ने अब तक एक बार भी उनके परिवार के बारे में नहीं पूछा। बोलीं, बिज्जू तो अभी शादी नहीं करना चाहता था, मगर मैंने कहा कि उसकी शादी हो जाए तो वह और बहू सोना का कन्यादान कर देंगे।

अम्मा उन्हें कुछ और अजनबी बना कर अंदर चली गई। अंदर कमरे से सबके हंसने-बोलने की आवाज आ रही थी.., मानो उनके आने से किसी को कोई फर्क न पडता हो। घडी ने एक बजाया तो अम्मा आई, खाना तैयार है, खा लो। ड्राइवर को खाना भेज दिया है।

चुपचाप उठकर अंदर आए। विशाल डाइनिंग रूम। अम्मा ने किनारे की कुर्सी खींची।

उमा हाथ में थाल लिए वहां आई। बडे से थाल में सजे चावल, कटोरियों में व्यंजन, दही, अचार, चटनी, खीर। याद आया उन्हें, शादी के बाद वो तरस जाते थे उमा को पल भर अकेले पाने के लिए। घर में अम्मा-बाबू जी रहते। सोचा, शायद उमा उन्हें रोके, पुरानी बातें याद दिलाए.., लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। उमा निर्विकार भाव से खाना खिला रही है, जैसे हर मेहमान को खिलाती है। उसके मुख पर सम्मान के भाव हैं, मगर अनुराग की जरा भी झलक नहीं। उन्होंने ही पूछा, कैसी हो उमा?

ठीक हूं..। अब तो दोनों बच्चों का घर बस जाए तो निश्चिंत हो जाऊंगी।

उमा ने उनकी कुशल भी नहीं पूछी, लेकिन खाने में हर चीज उनकी पसंद की थी।

तुम.. कुछ.. कहोगी नहीं उमा..?

क्या कहूं? बच्चे अच्छे निकल गए। बस अब तो मैं इसी में खुश हूं..।

उमा का मुख गरिमामय  लग रहा था। भाग्य ने आठवीं पास उमा के सामने लंदन के सी.ए. मिस्टर दत्ता को हरा दिया है। उमा गर्वीली मां है और वे हारे हुए उपेक्षित पिता।

..लौट रहे थे। गांव की सीमा पार करते ही झर-झर आंसू बह चले। अब तक मन के कोने में अपना एक आश्रय था, जो आज सदा के लिए खो गया। अम्मा ने एक बार भी रुकने को नहीं कहा, न बच्चों की शादी का न्यौता दिया। उमा ने भी कोई आग्रह नहीं किया। उनके लिए किसी के मन में कोई लगाव नहीं बचा। वे यहां अवांछित हैं। तो वहीं जाएं, जहां कम से कम उनके पैसों की जरूरत तो है। उन्होंने आंसू पोछ लिए..।

बेला मुखर्जी


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