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अनुत्तरित प्रश्न

कहते हैं, सही समय पर सही फैसला न लिया जाए तो पछतावे के सिवा कुछ हासिल नहीं होता। यही पछतावा हमें नेक कार्यों के लिए प्रेरित करता है, एकमार्मिक कहानी।

By Edited By: Published: Sat, 28 May 2016 03:50 PM (IST)Updated: Sat, 28 May 2016 03:50 PM (IST)
अनुत्तरित प्रश्न

तीस साल पहले की एक घटना आज भी उसे बेचैन किए रहती है। एक ग्लानि है, जो मथती रहती है। कहते हैं, सही समय पर सही फैसला न लिया जाए तो पछतावे के सिवा कुछ हासिल नहीं होता। यही पछतावा आज उसे नेक कार्यों के लिए प्रेरित करता है, हालांकि लोग उसे नहीं समझ पाते। एकमार्मिक कहानी।

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भविष्य में होने वाली घटनाओं में हम चाह कर भी रद्दोबदल नहीं कर सकते। दुनिया का सबसे बडा नाटककार अपने नाटक में क्या उलटफेर करेगा, यह वह किसी को नहीं बताता। कभी-कभी अपने पात्रों को दर्द के सैलाब में डुबो कर बेखबर बना रहता है। यह भी नहीं सोचता कि उन्हें कितनी पीडा झेलनी होती है। हां, कुछ नसीहतें जरूर दे जाता है। जैसे, अगर मैंने ऐसा किया होता तो शायद यह दुर्घटना नहीं होती। इसी ग्लानि में पूरी जिंदगी घिसटती रहती है। एक प्रश्न राहुल को हमेशा तोडते रहता है कि पीडा झेलने के लिए सृष्टिकर्ता ने उसे ही क्यों चुना? जो घटना तीस साल बाद भी उसे बेचैन किए रहती है, उसी परिवेश में उसी घटना से जुडे दूसरे पात्रों को वह दर्द क्यों नहीं छलनी करता।

कुछ लोगों का मानना है कि ईश्वर ने जिसे

ग्ारीबी व अभावों के सांचे में डालकर भेजा है, उसे उसी तरह जीना है। कितना सामान्यीकरण करते हैं हम स्थितियों का। जीवन के 50वें दशक में भी अपराध-बोध से ग्रस्त है वह। आबनूसी रंग, छोटी-छोटी चमकती आंखों, पतले होंठों वाले जीवन के चेहरे की मासूमियत को वह नहीं भुला पाता।

मुजफ्फरपुर की कस्बानुमा जगह, जहां कभी राहुल का पुश्तैनी घर था। घर के पीछे कच्चे मकानों व झोपडिय़ों से घिरी बस्ती में रहता था रिक्शेवाला हरिया। तीन बच्चों में सबसे बडा था जीवन। स्वभाव से ही शर्मीला जीवन राहुल का एकमात्र दोस्त था, उसी के साथ पला-बढा था। दोनों की दिनचर्या में बस इतना अंतर था कि जीवन उसके गौशाले की सफाई करता था और राहुल स्कूल जाता था। राहुल कॉलेज जाने लगा तो जीवन रिक्शा चलाने लगा। दोनों बाप-बेटा रिक्शा चलाते। जीवन हंसता-गुनगुनाता रिक्शा चला कर राहुल की दोनों बहनों को स्कूल पहुंचाता।

बहनें राहुल से शिकायत करतीं, 'भैया इतना तेज रिक्शा चलाता है कि किसी भी दिन बिना टिकट हमें स्वर्ग भेज देगा।

वह झट से बोलता, 'नहीं-नहीं... दीदी कैसी बातें करती हैं? जीवन भले ही खुद मर जाए पर आप दोनों पर आंच नहीं आने देगा।

'अरे... तू मर ही जाएगा तो देखने आएगा कि हम दोनों मरे या बचे।

राहुल के कुछ बोलने से पहले ही वह अपने कान पकड लेता, 'भैया जी, आप चिंता मत करना, अब मैं रिक्शा तेज नहीं चलाऊंगा।

धीरे-धीरे जीवन घर के सदस्य की तरह हो गया। तीज-त्योहार या खुशी के मौके पर राहुल की मां गौरी देवी उसे खाना खिलाती। शर्मीला जीवन खाना लपेट कर घर ले जाता।

बिंदास जीवन की जिंदगी की खुशियों पर तब विराम लग गया, जब हरिया बीमार रहने लगा। घर की आमदनी तो कम हुई ही, कमाई का बडा हिस्सा भी डॉक्टरों-दवाइयों पर खर्च होने लगा। उसे टीबी हो गया था। सरकारी अस्पताल के चक्कर शुरू हुए। एक हफ्ते दवा मिलती तो दूसरे हफ्ते की दवा पंद्रह दिन बाद मिलती। सिलसिला महीनों तक चला, जब तक कि हरिया पंचतत्व में न विलीन हो गया। जीवन में मिले अकस्मात प्रहार को जीवन की मां भी न झेल सकी। दो-तीन दिन के तेज बुखार के बाद दोनों बच्चों की जिम्मेदारी जीवन को थमा दुनिया से रुखसत हो गई।

अब तो जीवन न रात देखता-न दिन, बस रिक्शा थामे अधिकाधिक कमाई करने में लगा रहता। जिम्मेदारी के एहसास ने उसे समय से पहले बूढा बना दिया था। छह महीने सब ठीक चला। पिता की बीमारी में लिया हुआ कर्ज भी चुका दिया। जिम्मेदारियों के बीच वह अपना अस्तित्व ही भूल गया था। नतीजा यह हुआ कि बीमार रहने लगा। जब घर का कमाने वाला ही बीमार हो जाए तो उसका इलाज करवाना और भी मुश्किल हो जाता है। डॉक्टर ने उसे भी टीबी बताया।

छह बच्चों का परिवार चलाने वाली राहुल की मां कुछ कटौती कर जीवन के लिए दवा मंगवाने लगी। सुबह-सुबह मां दवा के साथ उसे खाना भी देती, लेकिन वह खुद उसकी बीमारी से डरने लगी थी। जब एक मटमैली धोती में पूरा शरीर लपेटे जीवन खाना लेने आता, मां ताजा या बासी जो भी खाना रहता, उसके कटोरे में डाल विदा कर देती। कोई आपका कितना भी अपना क्यों न हो, तीमारदारी ज्यादा दिनों तक करनी पडे तो आदमी खीजने लगता है। मां भी अब ऊबने लगी थी। दवा मिलने पर भी खाने के अभाव में जीवन का शरीर दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा था। उसकी छोटी बहन लोगों के घर में बर्तन साफ कर कुछ खाने-पीने के लिए ले आती तो दोनों भाइयों को खिलाती।

राहुल के पापा सरकारी अस्पताल में जीवन को भर्ती करवाने के लिए काग्ाजी खानापूर्ति में लगे थे, पर सरकारी काम अपनी गति से चलता है। तभी एक रात जीवन की तबीयत बहुत ख्ाराब हो गई। राहुल के पिता शहर से बाहर गए थे। मां ने आस-पडोस के लोगों से मदद मांगी। रुपया-पैसा देना तो दूर, किसी ने कार तक नहीं दी अस्पताल ले जाने के लिए, जबकि पडोसियों के पास गाडियां थीं।

राहुल के पास दो हजार रुपये थे, जो बडी मुश्किल से साइकिल ख्ारीदने के लिए बचाए थे। चाहता तो जीवन को दे सकता था, पर जाने क्यों स्वार्थ का कीडा उसके दिमाग में कुलबुलाने लगा। यह सोचकर कि कोई न कोई तो मदद करेगा, वह चुप लगा गया। स्वार्थ ने बचपन के दोस्त जीवन के कठिन समय में उसे दूर छिटका दिया। उस रात कुछ ऐसा हुआ, जिसका अंदेशा भी किसी को न था, राहुल को भी नहीं। जीवन चला गया...। राहुल सन्न रह गया। दुख व आत्मग्लानि से उसका रोम-रोम सिहर उठा। जीवन की मौत का जिम्मेदार कहीं न कहीं वह भी था। बचाए गए पैसे उसके अंतिम संस्कार में दे आया और इसके बाद कभी साइकिल न ख्ारीद सका। पश्चाताप ने उसे परेशान कर दिया। चाह कर भी जीवन को भुला नहीं पाया।

उसी ग्लानि को कम करने के लिए उसने एक उसूल बना लिया। वह अपनी कमाई का एक हिस्सा हमेशा वैसे लोगों पर ख्ार्च कर देता है जो अपना इलाज करवाने में असमर्थ होते हैं या जिनके बच्चे पैसों के अभाव में पढ नहीं पाते हैं। उपेक्षित, महत्वहीन, जरूरतमंद लोगों की सहायता करने की कोशिश करता रहा, मगर इससे उसका दर्द कम न हुआ।

पत्नी के साथ-साथ आस-पडोस के लोग भी उसे खिसका हुआ समझते हैं क्योंकि उनके हिसाब से आज के युग में भला कोई दूसरों के लिए इतना कुछ थोडे ही करता है। वह सबको समझाना चाहता है कि आराम की लालसा और संपत्ति इक_ा करने की तृष्णा नशे की तरह होती है, जितना मिलता है, उतना ही पाने की लालसा बढती है, पर उसकी यही बातें लोगों को समझ नहीं आतीं, वे उस पर हंसने लगते हैं...।

रीता कुमारी


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