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खुद्दार

By Edited By: Published: Tue, 03 Dec 2013 01:00 PM (IST)Updated: Tue, 03 Dec 2013 01:00 PM (IST)
खुद्दार

क्या भूख या गरीबी किसी को अनैतिक बना सकते हैं? ऐसा माना तो जाता है, लेकिन कई बार यह धारणा व्यर्थ साबित होती है। पैसे से बहुत कुछ खरीदा जा सकता है, मगर किसी मेहनतकश इंसान का जमीर नहीं। मेहनत को सम्मान चाहिए-दया नहीं, यही संदेश देती है प्रस्तुत कहानी। 11111 हरे-पीले, पके-अधपके आमों से लदे पेडों का बगीचा। बीच में निकली है सडक। बगीचे को पार करती हमारी कार एक घने आम के पेड के नीचे रुकी। हम सभी कार से उतरे। नीचे पेड की जड के पास सात-आठ पके आम पडे हुए थे। मैं कुछ बोलती, इसके पहले ही बच्चों ने आम उठा कर उन्हें बोतल के पानी से धो दिया और आम खाना शुरू कर दिया। पेड की एक डाल आमों से लदी हुई नीचे झुकी थी। पति ने डाल हिलाई तो कुछ और आम टपक पडे। मैंने मना किया, पेड के मालिक ने देख लिया तो झगडा शुरू हो जाएगा। पता नहीं होता गांव-देहात के लोगों का.., इनका तो कुछ नहीं, हमसे कुछ बोल दिया तो इज्जत  का फलूदा बन जाएगा। मगर बच्चों को ऐसी बातों से क्या लेना-देना, उन्होंने तो आराम से कुछ आम उठा कर गाडी में रख लिए। शहरी सभ्यताओं को ढो-ढोकर थके मेरे बच्चे यहां आकर आजाद  हो गए थे। मैं चुप हो गई। सोचा, चलो कुछ पल के लिए सही, बच्चे खुश तो हो रहे हैं। ये बाग-बगीचे, गांव इन्हें बार-बार कहां देखने को मिलेंगे। बाग के मालिक ने कुछ कहा भी तो पैसे दे दूंगी। यह सोचते हुए मैं दर्प भी महसूस कर रही थी। ..बगीचे से कुछ ही दूरी पर आसपास सटे हुए छह-सात घर नजर आ रहे थे। उनके बाहर इक्के-दुक्के आम, महुआ व नीम के पेड दिख रहे थे। दो-तीन घरों का दरवाज्ा बाग की तरफ खुल रहा था। इनमें से एक घर के सामने नीम की छांव में चारपाई बिछाए तीन-चार व्यक्ति ताश खेल रहे थे। समीप की दूसरी खाट पर एक अधेड व्यक्ति लेटा था। कार बगीचे में रुकी तो उन सभी की निगाह  हमारी ओर मुडी। थोडी देर तक देखने के बाद उस अधेड व्यक्ति ने किसी को आवाज्ा लगाई। घर से दो लडकियां निकल कर बगीचे की ओर आने लगीं। एक दस-बारह साल की, दूसरी उससे कुछ छोटी- लगभग आठ-नौ साल की। दोनों ने पुरानी सी फ्रॉक पहनी थी। छोटी लडकी लगातार पेड की ओर देख रही थी। वे आपस में कुछ बोल भी रही थीं। हो सकता है उन्होंने ही आम तोड कर पेड के नीचे एकत्र किए हों। तभी मेरी बेटी ने आगे बढ कर उनसे पूछा, यहां जो आम गिरे थे, उन्हें ढूंढ रही हो क्या?

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अरे, वे गिरे नहीं थे, हमने उन्हें तोड कर यहां रखा था.., छोटी लडकी के जवाब में कुछ अकड सी थी।

हां-हां। देखो, उनमें से कुछ आम तो हमने खा लिए। बडे मीठे थे.., कुछ हमने गाडी में रख लिए हैं.., मेरी बेटी की आवाज में एक शहरी लापरवाही थी।

बडी लडकी के चेहरे पर कई भाव आए और गए। शायद उसे हमारी बात बुरी लगी हो, शायद वह यह न समझ पा रही हो कि शक्ल-सूरत से भलेमानुस लगते लोग इस तरह बिना पूछे आम उठा भी सकते हैं। लेकिन वह चुप रही। मैं उसके चुप रहने का कारण खोज रही थी। क्या इसका कारण हमारी अकड या हमारा शहरी होना है, हमारी चमक-दमक या फिर उसकी उदारता? मैं लडकियों के पास आई और पूछा, यह बगीचा तुम्हारा है?

नहीं आंटी, पूरा बगीचा नहीं, सिर्फ तीन पेड हैं हमारे यहां। वो दो पेड और एक ये जिसके नीचे आप लोग खडे हैं.., बडी लडकी ने गर्व से जवाब दिया।

आम तो काफी होते होंगे, बिकते हैं?

गांव में तो सभी के पास पेड हैं, कौन खरीदेगा? हां, जब आम पक जाते हैं तो बाबा बाजार जाते हैं। कच्चे आम की खटाई और पके आम का अमावट बिक जाता है।

और फिर हम लोग भी तो आम खाते हैं। दोपहर में हमारे घर रोटी नहीं बनती, हम तो आम से ही पेट भर लेते हैं.., अब तक चुप खडी छोटी लडकी ने मुंह खोला।

शाम को तुम्हारे घर रोटी बनती है? मेरी जिज्ञासा बढ गई थी।

हां, शाम को पना (आम रस) के साथ हम रोटी खाते हैं और आज शाम को तो हमारे घर में दाल भी बनेगी। अगर सुनीता के घर से चावल मिलेगा तो भात भी बन जाएगा.., छोटी बच्ची चहकते हुए बोल रही थी लेकिन तभी बडी बहन ने छोटी को घूर कर देखा। छोटी सहम कर चुप हो गई। मुझे अब दोनों बच्चियों की बात में रस मिलने लगा था। मैंने फिर पूछा, अच्छा, तुम्हारे पास खेत भी है?

हां, है न! एक छोटा-सा खेत है, बडी लडकी ने जवाब दिया।

बस एक?

हां.. वही जो उस कुएं के पास दिख रहा है.. लडकी ने हाथ से इशारा किया। मेरी नजरें  उसके हाथ का पीछा करती कुएं के पास जाकर ठहर गई। जमीन  का छोटा सा टुकडा था।

इसमें क्या बोते हैं तुम्हारे बाबा?

सब कुछ। गेहूं, मूंग, उडद..।

सब्जियां  भी लगाते हैं?

इसके जवाब में छोटी बच्ची बोल पडी, बाबा कह रहे थे कि इस बार सब्जियां  बेचने से जो पैसे मिलेंगे, उससे हम लोगों के लिए कपडे और चप्पल लाएंगे..। एक बार फिर बडी ने छोटी के हाथ में चिकोटी काटी। उनकी हरकतें देख कर मैं मुस्करा उठी।

मेरे दोनों बच्चे भी उन लडकियों के साथ हो रही बातचीत में लुत्फ लेने लगे थे। धीरे-धीरे वे भी बच्चियों से हिल-मिल गए। आम के पेड की बडी जड जमीन  के ऊपर निकल कर गोल आकार बनाती हुई सी फिर से जमीन  में धंसी थी। पति उस जड पर बैठ गए और मैं वहीं पास में खडी रही।

कितना सुंदर बाग है। यहां का हर पेड कुछ अलग किस्म का है। डालियां कितने नीचे तक झुकी हैं। लगता है पकड कर झूलें। हमारे गांव में भी एक ऐसा ही पेड था। हम सब बच्चे पूरी दोपहर उसी के इर्द-गिर्द जमा रहते थे। यहां आकर मुझे मेरा गांव याद आ गया..। पति की आवाज्ा कुछ गहरी और भीगी-भीगी लग रही थी। बाग तो अच्छा है, लेकिन मैं तो कुछ और ही सोच रही हूं, मैंने धीमे से कहा।

क्या सोच रही हो?

यही कि अगर यहां थोडी सी जमीन  मिल जाती, यहां बाग से लग कर..एक छोटा सा बंगला बनवा लेते और छुट्टियों में यहां आकर रहते। हमारे शहर से ज्यादा  दूर भी तो नहीं है यह जगह।

जमीन मिल जाती! क्या मतलब है तुम्हारा? अरे हम चाहेंगे तो क्यों नहीं मिल जाएगी! पति की आवाज में दंभ भरा आत्मविश्वास झलक रहा था। पैसा हो तो क्यों नहीं मिलेगा?

वो तो ठीक है, पर कोई बेचेगा तब न?

क्यों नहीं बेचेंगे? दुगना पैसा दूंगा। अरे, देखना, दौड कर बेचेंगे ये लोग, इन्हें कोई ढंग का खरीदने वाला तो मिले। वैसे भी अब गांव में कौन खरीदता  है जमीन?  फिर इन्हें तो पैसा मिल जाएगा न!

ऐसा हो सके तो वह जो कुएं के बगल वाली ज्ामीन है, उसे ही हम खरीद लेते। ये लडकियां कह रही हैं कि यह जमीन  इनकी है। बहुत गरीब  हैं बेचारे.. रोज भोजन भी नहीं बनता इनके घर.. ये जरूर  बेचेंगे, मुझे लगता है इन्हें पैसे की जरूरत  भी होगी। थोडा ज्यादा  देंगे तो इनका भला हो जाएगा।

वैसे यह बात मजाक  की नहीं है। तुम्हारी योजना मुझे भा गई है। घर चल कर इस पर गंभीरता से विचार करूंगा। कुछ दिन तो घर बनवाने का काम चलेगा ही। यहां के लोगों को थोडे दिन रोजगार मिल जाएगा। एक तरह से हमारी ओर से इन्हें छोटी सी मदद हो जाएगी.., पति के जवाब से मैं भी गदगद हो उठी।

बच्चे वर्गभेद नहीं समझते, शायद इसलिए मेरे बच्चे आराम से इन लडकियों के साथ खेलने में जुटे थे। इन खेतों और बाग के बीच सुंदर सा बंगला मेरी आंखों के आगे तैरने लगा था। कुछ ही पल में कई योजनाएं बनने लगी थीं। शहर चल कर इस योजना पर विचार करना था। ख्ौर, पति ड्राइविंग सीट पर बैठे और बच्चे भी गाडी की पिछली सीट पर बैठ गए। गाडी में बैठने से पहले मैंने गाडी के बाहर खडी बडी बच्ची को बुलाया और उसे पचास रुपये का नोट थमाते हुए कहा, सुनो बेटा, मेरे बच्चों ने तुम्हारे आम लिए थे न, इसलिए ये पैसे रख लो। नोट हाथ में पकडते हुए लडकी ने जवाब दिया, पहले मैं बाबा से पूछ कर आती हूं कि ये पैसे लूं या नहीं, तब तक आप रुकिए। मैंने जोर देते हुए कहा, रख लो बेटा, इतनी सी बात के लिए उनसे पूछने की क्या जरूरत  है? लेकिन मेरी बात को अनसुना कर दोनों लडकियां अपने घर की तरफ भागीं। आम यूं तो पंद्रह-बीस रुपये से अधिक के नहीं थे, फिर भी मैं बच्चों को पचास का नोट दे रही थी। मुझे लगा, गरीब  हैं बेचारे, थोडा खुश  हो जाएंगे। मन में एक उदारता का भाव था, लेकिन इससे ज्यादा अपने पैसे का घमंड था। मुझे लगता था इस तरह मैं थोडी सी समाज-सेवा कर रही हूं और मन ही मन मैं अपनी प्रशंसा भी कर रही थी। तभी दोनों लडकियां दौडती हुई आई और पचास का नोट मेरी तरफ बढाते हुए बोलीं, बाबा कह रहे हैं, हम ये पैसे नहीं लेंगे। अगर हमने आम बेचे होते और आपने खरीदे  होते तो हम पैसे ले लेते। लेकिन आपने तो बिना हमसे पूछे आम उठा लिए। इसलिए अब ये पैसे हम नहीं लेंगे।

जरा सी बच्ची की बात सुनते ही मानो मैं अपने खयालों की दुनिया से अचानक बाहर आ गिरी। मेरे दानी और उदार मन को बडा सा धक्का पहुंचा। अति उत्साह में मैं यह नहीं सोच पाई थी कि चीजों  को जबरन उठा लेना खरीदने  की श्रेणी में नहीं, लूटने की श्रेणी में आता है और कोई खुद्दार  व्यक्ति लूटी हुई वस्तु की कीमत पाकर खुश  नहीं हो सकता।

नोट को हाथ में पकड कर मैं कुछ पल यूं ही शून्य सी बैठी रह गई। पति के चेहरे पर भी मायूसी के भाव दिख रहे थे। उन्होंने गाडी स्टार्ट कर दी। गाडी धूल उडाती हुई आगे बढ गई। आमों का बाग हमारे पीछे छूटता जा रहा था और उसके साथ ही हमारे, दर्प और लालच का बंगला भी बिना बने ही धराशाई होने लगा था..।

आशा पांडेय


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