जीवन अभी ठहरा नहीं
स्त्री को जीवन के हर पड़ाव पर खुद को सही साबित करना पड़ता है। हमेशा दूसरों के मूल्यों और अपेक्षाओं पर खरा उतरने की कोशिश उसे पीछे धकेलती है। दूसरों की बंद सोच से बाहर निकल कर जब वह सोचना शुरू करती है, तभी उसकी
पूना की एक सोसाइटी के पार्क की बेंच पर बैठी थी संध्या। मन बेहद उद्विग्न था। विश्वास नहीं हो रहा था कि उसके बच्चे उसके बारे में ऐसा सोचते हैं, लेकिन कानों से सुनी गई बात को झुठला भी तो नहीं सकती थी। सुबह मॉर्निंग वॉक से लौटकर गैस पर चाय का पानी चढा कर फ्रिज से दूध निकाल रही थी कि बहू मिताली की आवाज्ा कानों में पडी। वह राजीव से कह रही थी, 'मम्मी को इस उम्र में न जाने क्या सूझी है कि विनय कुमार जी से दोस्ती की पींगें बढा रही हैं। यह भी नहीं सोचतीं कि लोग क्या कहेंगे। आखिर तुम्हारी भी सोसाइटी में कुछ इज्ज्ात है कि नहीं? इस उम्र में यह सब उन्हें शोभा देता है क्या...?' राजीव ने क्या कहा, इसे तो वह नहीं सुन सकी। संध्या की आंखों के आगे अंधेरा छा गया। उसका सिर घूमने लगा। किसी तरह फ्रिज का सहारा लेकर खुद को गिरने से बचाया। चाय पीने की इच्छा भी खत्म हो चुकी थी। गैस बंद करके अपने कमरे में जा लेटी। थोडी देर में ही राजीव आ गया और उसका माथा छूकर कहा, 'क्या बात है मम्मी, तुम्हारी तबीयत तो ठीक है? आज अपने हाथ की चाय नहीं पिलाओगी मुझे?'
बेटे की बात का जवाब न देकर उसने अपनी आंखें भींच लीं। बंद पलकों की कोरों से आंसू बह निकले। 'मम्मी, अपना मन मत दुखाओ। एक इंसान की ग्ालत सोच दूसरे के चरित्र का मापदंड तो नहीं हो सकती न! इन बातों से ऊपर उठो और आगे बढो। मैं आपके साथ हूं।'
बेटे की बातों ने उसके घावों पर मरहम का काम किया, फिर भी वह पूरे दिन अनमनी रही। खाना भी बेमन से खाया और शाम को सहेलियों के साथ न बैठ वह इस पेड के नीचे जाकर बेंच पर बैठ गई। बैठे-बैठे बहुत कुछ सोच लिया है उसने। कुछ ही दिन पहले तो उसकी ज्िांदगी ने नई दिशा पकडी थी। इससे पहले तो दुखों और संघर्षों की परछाइयों ने उसकी ज्िांदगी को अंधकारमय बना रखा था। हां, शादी के बाद कुछ साल ऐसे ज्ारूर बीते, जिनकी यादें आज भी मन में सुख की अनुभूति जगा जाती हैं। पति नवीन का प्यार, सास-ससुर का भरपूर स्नेह और एक हमउम्र ननद शैली, जो ननद होने के साथ-साथ सहेली की कमी भी पूरा करती थी। शैली से दिल की हर बात कह लेती थी वह। शादी के ठीक दो साल बाद बेटे राजीव का जन्म हुआ और घर में किलकारियां गूंजने लगीं। मातृत्व की गर्माहट ने उसके व्यक्तित्व को और निखार दिया था। कुछ ही समय बाद ननद का विवाह तय हो गया। घर में जोर-शोर से तैयारियां चल रही थीं कि इसी बीच ससुर को रात में एकाएक हार्ट अटैक पडा। हॉस्पिटल ले जाते हुए रास्ते में ही उन्होंने दम तोड दिया। अचानक हुए इस हादसे से घर में कोहराम मच गया। सभी स्तब्ध थे। नवीन का तो और बुरा हाल था। अचानक पिता का साया सिर से उठ जाने से वह खुद को बिलकुल असहाय महसूस कर रहे थे। मगर शैली की शादी करनी थी। दिल पर पत्थर रख कर ही सही, नवीन ने बहन का विवाह धूमधाम से किया। बडे भाई का फज्र्ा निभाते हुए शादी में कोई कसर नहीं छोडी। सब कुछ इस तरह किया, जैसा पिता कर सकते थे।
शैली ससुराल चली गई। पापा के जाने का सदमा मां ज्य़ादा दिन तक बर्दाश्त न कर सकीं। एक के बाद एक बीमारियों के कारण वह बिस्तर पर पड गईं। फिर रात-दिन मां की सेवा और राजीव की पढाई की चिंता में साल दर साल बीतते गए। मां के जाने के बाद भी संघर्षों का अंत न हुआ। राजीव ने जैसे ही आइआइटी की परीक्षा उत्तीर्ण की, नवीन की दोनों किडनियां खराब हो गईं। इसके बाद हॉस्पिटल और घर के बीच सिमट कर रह गई उसकी ज्िांदगी। क्या कुछ नहीं झेलना पडा। शारीरिक थकान के अलावा मानसिक तनाव और धीरे-धीरे फैलता जा रहा आर्थिक अभाव। सप्ताह में दो बार होने वाले डायलिसिस ने उसे और नवीन को तोडकर रख दिया था। जमा-जमाया बिज्ानेस नवीन के पार्टनर साहनी के हाथों में पहुंच गया था और अब वह साहनी के रहमो-करम पर थी। जो भी वह देता, नवीन के इलाज के लिए ही पूरा नहीं पडता। इकलौते बेटे राजीव के कॉलेज और हॉस्टल की फीस का जुगाड मुश्किल से हो पाता था। धीरे-धीरे सारी जमा-पूंजी खर्च हो गई। राजीव ने लाख चाहा कि अपनी इंजीनियरिंग की पढाई छोड कर दिल्ली लौट आए पापा का बिज्ानेस संभालने, मगर पापा-मम्मी नहीं माने। वे चाहते थे कि बेटे का सपना पूरा हो और वह इंजीनियर बन सके। इसके बाद कोई चारा न बचा तो उन्होंने चार बेडरूम वाला शानदार घर बेचा और एक वन बीएचके के छोटे फ्लैट में रहने आ गए, ताकि नवीन के इलाज में कमी न हो और राजीव की पढाई चलती रहे। बेटे ने भी निराश नहीं किया। मेहनत से पढता रहा। चार साल पूरे होते-होते ही उसे पूना की एक मल्टीनेशनल कंपनी में अच्छी प्लेसमेंट मिली और फिर कुछ ही महीने बाद वह व्यवस्थित हो गया। नवीन शायद बेटे के सपने को साकार होते देखने के लिए ही जीवित थे। राजीव की नौकरी लगते ही वह चल बसे। इसके बाद तो उसकी ज्िांदगी ही ठहर गई। शून्य सा घिर आया जीवन में। वह पूना आ गई....। बेटे राजीव ने मिताली से शादी की। वह सब कुछ होते देखती थी, मगर अपने होने का मकसद जैसे भूल चुकी थी। लगता था, मानो जीने का अर्थ खो चुका है। एक लंबे समय तक उसके जीवन में अंधेरा छाया रहा, मगर फिर उसे एक नई दिशा मिल गई...।
एक दिन राजीव पडोस में रहने वाले विनय कुमार जी को घर लेकर आया, 'मम्मी, आपने इन्हें पहचाना? विनय कुमार जी हैं ये, जिनकी कहानियां आप पत्रिकाओं में पढती रही हैं। संयोग से ये हमारे घर के ही सामने रहते हैं।'ंध्या अभिभूत थी उन्हें देख कर। उसे विनय कुमार की कहानियां बहुत पसंद थीं। उनसे मुलाकात के बाद तो वह उनके व्यक्तित्व से भी प्रभावित हुई। एक दिन बातों-बातों में राजीव ने विनय कुमार जी को बताया कि उसकी मम्मी पहले कविताएं-कहानियां लिखा करती थीं। मगर ज्िांदगी की आपाधापी में ऐसी उलझीं कि लिखना-पढऩा भूल गईं। उनके सारे शौक मर गए।
'इंसान के शौक कभी मरते नहीं हैं, केवल कभी-कभी धूल की परत जम जाती है उन पर, उसे पोछ डालें और अपनी रचनात्मक प्रतिभा को उभारें, फिर देखें ज्िांदगी कितनी सुखद और आसान हो सकती है...., विनय कुमार जी ने उसे समझाया था।
इसके बाद विनय कुमार अकसर घर आने लगे। वे रचनाओं पर चर्चा करते, किताबें लाते, कई बार अपनी रचनाओं पर उसकी राय लेते...। संध्या को भी उनका साथ भाने लगा था। उसमें एक नई ऊर्जा भरने लगी। हिम-शिला सा उसका मन धीरे-धीरे पिघलने लगा था। शिथिल पडी धमनियों में रक्त-प्रवाह तेज्ा होने लगा था और जीवन में कुछ करने का एहसास जागने लगा। वह पत्र-पत्रिकाओं में लिखने लगी। धीरे-धीरे उसकी पहचान बनने लगी। सोसाइटी में हमउम्र महिलाओं के क्लब में उसका प्रवेश हुआ। शाम को सब एकत्र होते और सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर चर्चा करते। कभी-कभी शहर में होने वाली साहित्यिक गोष्ठियों में भी वह विनय कुमार जी के साथ जाने लगी थी। जब भी उनके साथ बाहर जाती, बहू मिताली के चेहरे के भाव बदलने लगते। शुरू में इसे वह अपना वहम समझ कर अनदेखा कर देती, मगर आज जो कुछ कानों से सुना, उसने तो दिल पर बडा सा बोझ लाद दिया। मिताली की बातों ने उसके आत्म-सम्मान को झकझोर डाला है। क्या उम्र के किसी भी दौर में स्त्री को अग्नि-परीक्षा से गुज्ारना पड सकता है? आज के बदलते परिवेश में पुरुष और स्त्री की मित्रता बहुत सामान्य बात है। लोगों की मानसिकता बदल रही है, उनका नज्ारिया प्रगतिशील हो रहा है। संकीर्ण विचारधारा को छोड कर लोग व्यापक नज्ारिया अपना रहे हैं। स्त्रियों के स्वावलंबी होने से समाज में उनका सम्मान भी बढा है, मगर उसका अपना वजूद क्या नवीन के चले जाने से खत्म हो गया है? उसकी अपनी कोई इज्ज्ात नहीं रही? क्या उसे विनय कुमार का साथ छोडऩा पडेगा? लिखना-पढऩा छोड कर क्या उम्र के इस पडाव पर सत्संग या कीर्तन-भजन करने लगे, तभी लोगों को तसल्ली मिलेगी? उसके मन में विनय कुमार जी के प्रति सम्मान-भाव है। वह अच्छे साहित्यकार के अलावा बेहतर इंसान भी हैं। उन्होंने ही उसकी राख बन चुकी इच्छाओं में दबी-ढकी चिंगारी को ढूंढ निकाला है। उस चिंगारी को उनकेप्रोत्साहन की हवा मिली तो वह प्रकाश पुंज बन गई। विनय कुमार ने एक शिक्षक की तरह उसे नई व सही राह पर चलना सिखाया है।
घर लौट कर भी वह पूरी रात विचारों के द्वंद्व में फंसी रही। कभी सोचती कि पीछे लौट जाए, फिर से उसी पीडा भरी दुनिया में जीना सीख ले, फिर सोचती कि आगे बढे और बाकी का जीवन सार्थक और रचनात्मक कार्यों में व्यतीत करे। इसी उधेडबुन में रात बीत गई। सुबह कोई फैसला लेती कि विनय कुमार जी का फोन आ गया, 'संध्या, तुम्हारे लिए अच्छी खबर है। तुम्हारी कहानी को प्रथम पुरस्कार मिला है। आज शाम एक कार्यक्रम में तुम्हें सम्मानित किया जाएगा'
इस खबर ने रात भर की पीडाएं खत्म कर दीं और उसमें एकाएक नई ऊर्जा का संचार होने लगा। राजीव ने यह खबर सुनी तो कमरे में आकर उसके गले लग गया। 'हमें आप पर गर्व है मम्मी। आज के कार्यक्रम में हम भी आपके साथ चलेंगे....' राजीव ने कहा तो उसकी आंखें भीग गईं। वह कमरे से बाहर आई तो बहू मिताली ने उसका हाथ थाम कर पश्चाताप भरे स्वर में कहा, 'आइ एम सॉरी मम्मी, मैं अपनी छोटी सोच के लिए शर्मिंदा हूं। पता नहीं क्यों विनय कुमार जी का घर आना-जाना और आपसे बातें करना मुझे अखरता था, मगर शायद मैं ग्ालत थी। उन्होंने कुछ ही दिनों में वह कर दिखाया, जो हम नहीं कर सके। उन्होंने आपकी रचनात्मक क्षमताओं को निखारा। प्लीज्ा मुझे माफ कर दीजिए मम्मी...। 'संध्या ने मुस्कराकर स्नेह से उसका सिर थपथपा दिया। सोचने लगी, जीवन में आगे बढऩे के लिएतूफानों से लडऩा ही पडता है। लोगों के मन में दबे बैठे पूर्वाग्रह भी एक न एक दिन खत्म हो जाते हैं। आखिर तूफानी धारा के आगे छोटे-मोटे अवरोध कहां ठहर पाते हैं....।
रेनू मंडल