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जहां रहें खुश रहें

बुढ़ापा और जवानी परस्पर विरोधी हैं। हालांकि दोनों अवस्थाएं कहीं न कहीं एक-दूसरे की याद दिलाती हैं। नई पीढ़ी की सिमटती जा रही दुनिया में मां-बाप भी पीछे छूटते जा रहे हैं। बच्चों की व्यस्त होती दुनिया और बदलती जा रही लाइफस्टाइल माता-पिता को दूर छिटका दे रही है। ऐसे में उम्मीदें रखेंगे तो तकलीफ होगी ही। बेहतर है बस बच्चों के लिए दुआएं करें कि वे जहां रहें खुश रहें। कुछ यही संदेश देती है यह कहानी।

By Edited By: Published: Tue, 02 Jul 2013 02:32 PM (IST)Updated: Tue, 02 Jul 2013 02:32 PM (IST)
जहां रहें खुश रहें

आसमान में अब भी बदल छाए थे। तीन-चार दिन से लगातार पानी बरस रहा था। बीच में कुछ देर को धूप निकली थी और अब मौसम खुशनुमा हो चला था।

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घरों में बंद बच्चे, बूढे, जवान, सभी कैद से छूटने का जश्न मनाते पार्क की ओर बढ चले थे। दो खूबसूरत रंग-बिरंगी चिडियों का जोडा जाने कहां से उड कर आ गया था, पार्क की बाउंड्री वॉल पर बैठा चीं-चीं करता सुहाने मौसम का अभिनंदन कर रहा था।

ज्यादातर बच्चे और बूढे ही नजर आ रहे थे। बच्चों के शोर से सारा वातावरण गुंजायमान था। माथुर दंपती भी नियमानुसार चार दिन के ब्रेक के बाद पार्क की हवा खाने घर से निकल आए थे। मिस्टर माथुर पिछले साल ही एक प्राइवेट सेक्टर कंपनी से जी.एम. की पोस्ट से रिटायर हुए थे। लंबे और भव्य व्यक्तित्व के मालिक माथुर साहब स्टाइल में रहने में विश्वास रखते थे। आज वे बैगनी कलर का सुंदर कढाई वाला सिल्क का कुर्ता पहने थे जो उन पर खूब जंच रहा था। कनपटी पर हलकी सी सफेदी के अलावा उनके काले बाल नैचरल ही थे।

श्रीमती माथुर भी शालीन व्यक्तित्व वाली थीं, हालांकि पति से उन्नीस ही थीं। उनका इकलौता बेटा अंशुमन और उसकी पत्नी अनन्या दुबई में रह रहे थे। मेडिकल की पढाई के दौरान दोनों का अफेयर हुआ और फिर दोनों ने पेरेंट्स की रजामंदी से शादी कर ली। अब दोनों दुबई में थे। श्रीमती माथुर जबसे आई थीं, उनकी नजरें लगातार कपूर दंपती को ढूंढ रही थीं। हम तो आज थोडा लेट आए हैं, लेकिन कपूर्स तो वक्त के पाबंद हैं। कहीं तबीयत तो खराब नहीं? उनकी नाजुक सेहत देखते हुए यह असंभव भी नहीं।

श्रीमती कपूर के घुटनों में दर्द रहता है। उन्हें चलने-फिरने में तकलीफ होती है। कहीं आज दर्द बढ तो नहीं गया। श्रीमती माथुर सोच ही रही थीं कि सामने से मिस्टर कपूर अकेले आते दिखाई दिए, भाई साहब आज अकेले कैसे?

हां, सुधा के पैरों में दर्द बढ गया था। कहने लगी मैं रेस्ट करूंगी, आप अकेले ही चले जाओ तो मैं अकेले ही आ गया।

ये दर्द उन्हें चैन से रहने नहीं देता.., चलिए अब आ गए हैं तो आप दोनों वॉक करिए, मैं तो कुछ थक गई हूं। कुछ देर यहीं बैठूंगी। फिर हम वापसी में सुधा जी को देखने आपके घर चलेंगे.., कहते हुए श्रीमती माथुर बैठ गर्ई।

मिस्टर माथुर और कपूर चले गए तो आशा जी ने अपने चारों तरफ निगाह डाली। पार्क बडे एरिया में फैला हुआ था। जॉगिंग के लिए अलग ट्रैक बना हुआ था। बडे-बडे छायादार पेड और उनसे झरते फूल-पत्ते एक अलग ही सौंदर्य प्रदान कर रहे थे पार्क को। बच्चों के शोरगुल से पार्क में रौनक थी। बडे बच्चे फुटबॉल या क्रिकेट खेल रहे थे तो छोटे बच्चे झूलों का मजा ले रहे थे। कुछ बुजुर्ग नीचे चटाई या चादर बिछाए ताश खेलते नजर आ रहे थे तो कुछ सामूहिक भजन-कीर्तन में मगन थे।

आशाजी जब भी अकेली बैठतीं, ध्यान बेटे-बहू की ओर चला जाता। न चाहते हुए भी बहू का व्यवहार याद करके उनकी आंखें नम हो जातीं। बेटी न होने का गम उन्हें सालने लगता। मन ही मन वह उन्हें आशीर्वाद जरूर देतीं, लेकिन उन कांटों की चुभन से बच न पातीं जो उनकी बहू अनन्या ने उन्हें दी थी।

उसकी सोच ही उल्टी थी। हर बात को नकारात्मक ढंग से लेने की उसकी आदत ने घर की सुख-शांति भंग करके रख दी। वह आई ही कई पूर्वाग्रह लेकर। पहले ही दिन से उसने ससुराल वालों को प्रतिद्वंद्वी मान लिया था और उन्हें पटखनी देने पर तुली थी। उनकी हर प्यार भरी पहल को वह शक से देखती और नीचा दिखाने की कोशिश करती। वह हर बात की सफाई देते-देते थक चुकी थीं। इकलौते बेटे को कितने लाड-दुलार से पाला था उन्होंने, लेकिन पल भर में ही वह जैसे पराया हो गया।

दोनों के दुबई जाने के बाद ही उन्हें राहत मिल सकी। हालांकि वक्त लगा था संभलने में, लेकिन धीरे-धीरे सब ठीक हो गया। उन्होंने अपने हमउम्र लोगों के साथ लाइफ को नए सिरे से एंजॉय करना सीखा। सेकंड इनिंग काफी हद तक ख्ाुशगवार थी। साल में एक या दो बार विदेश की सैर भी हो जाती। ढंग से खातीं, मनमुताबिक रहतीं और पसंद के कपडे पहनतीं। बहू तो उन्हें इस तरह अपनी इच्छा से जीते देख ही नहीं पाती थी। ..पता नहीं, बुरी यादें इतना क्यों कचोटती हैं। अनजाने ही आंखें भर आई थीं उनकी। उन्होंने ख्ाुद को कंट्रोल किया। देखा, सामने से उनके पति और कपूर साहब हंसते-ठहाके लगाते चले आ रहे हैं। उनके साथ एक अजनबी हमउम्र व्यक्ति भी था। पति ने पास आते ही उनका परिचय कराते हुए कहा, ये मिस्टर शाह हैं, आर्मी से रिटायर हुए हैं। देख कर पता चलता है न आशा, देखो इस उम्र में भी क्या पर्सनैलिटी है इनकी। आशा ने मुस्कराते हुए अभिवादन में दोनों हाथ जोड लिए। भाभीजी आप हमारे यहां चल रही हैं न! शाह साहब आप भी आमंत्रित हैं। हमारी श्रीमती जी से मिल कर आपको निराशा नहीं होगी। आपकी तरह वह भी उर्दू शायरी में गहरी दिलचस्पी रखती हैं। उनका एक गजल संग्रह प्रकाशित भी हो चुका है, मिस्टर माथुर ने नए साथी से कहा।

दैट्स ग्रेट मिस्टर माथुर, मिस्टर शाह ने खुश होकर कहा। कपूर साहब ने अपनी पत्नी को फोन कर उन सबके आने के बारे में सूचना दे दी थी। लोगों के बीच कपूर साहब की पत्नी भी अपने घुटनों का दर्द भूल गई। ऐसे ही हलकी-फुलकी बातचीत में आशा जी ने पूछ लिया, आपके बेटा-बहू यूएस से कब आ रहे हैं?

सिद्धार्थ और आलिया अगले महीने की बीस तारीख को आ रहे हैं। हर दो वर्षो के बाद क्रिसमस पर वे हमारे साथ होते हैं। कुछ दिन घर गुलजार रहता है। बाद में फिर हम अकेले अपनी दुनिया में..।

कपूर साहब अब मिस्टर शाह से उनके परिवार के बारे में पूछने लगे थे। इस पर उन्होंने बताया, दो बच्चे हैं। बेटा विवेक और बेटी निताशा हैं। बेटा यूएस में है। बेटी की शादी को लेकर चिंतित हैं। अभी कई प्रस्ताव मिले हैं, लेकिन बेटी मास कम्युनिकेशन का कोर्स करने के बाद बाहर जाने की जिद कर बैठी है। बस इसी को लेकर घर में थोडा तनाव है। बेटे की शादी इंटरनेट के जरिये तय की गई थी, लेकिन वह शादी में खुश नहीं है। दोनों की नौकरियां अलग-अलग शहरों में हैं और इस वजह से उनके बीच खटपट लगी रहती है।

..गपशप के दौर के साथ चाय-नाश्ते का दौर देर तक चलता रहा।

अच्छा कपूर साहब, आप लोग तो यूएस घूम आए होंगे, माथुर साहब ने पूछा।

गए तो थे, लेकिन चार दिन में ही ऊब गए। बेटा-बहू सुबह ही काम पर निकलते और छोटे से फ्लैट में पूरे दिन हम अकेले टहलते रहते। वे दोनों रात को थक कर चूर होकर लौटते। हमारे लिए वहां समय बिताना मुश्किल काम था। न तो किसी को जानते थे, न वहां के रास्तों से परिचित थे कि कहीं घूम लेते।

बातचीत के बीच सबके मन में रह-रह कर यही ख्ायाल आ रहा था कि हम दोस्तों में सबकी कहानी काफी हद तक मिलती-जुलती सी है। सभी एक उम्र के और एक ही नाव पर सवार थे।

ाशाजी ने खिडकी से बाहर देखते हुए कहा, अंधेरा हो चला है, अब हमें चलना चाहिए। उन्होंने एक-दूसरे से विदा ली और अपने-अपने घरों की ओर चल पडे। घर पहुंच कर आशाजी सोफे पर लेटकर थकान उतार ही रही थीं कि दुबई से अंशुमन का फोन आ गया, मम्मा हम दो हफ्ते के लिए इंडिया आ रहे हैं। फ्लाइट परसों रात एक बजे पहुंचाएगी। कहीं आप लोगों की नींद ख्ाराब तो नहीं होगी?

कैसी बात कर रहे हो बेटा? तुम्हारे आने की ख्ाबर सुन कर नींद भला किसे आएगी? लता जी ने स्नेह से कहा।

ओके मॉम फिर मिलते हैं, कहते हुए अंशुमन ने दूसरी ओर से फोन काट दिया। उन्हें थोडी निराशा भी हुई कि बहू ने बात करनी नहीं चाही, लेकिन फिर उन्होंने इस खयाल को झटक दिया। वह उम्मीद ही क्यों रखती हैं। वह पहले ही कहां बोलती थी जो अब बोलेगी।

उन्हें अब थोडी चिंता भी सताने लगी। क्या खिलाएंगी बच्चों को। फ्रिज खोल कर देखा तो उसमें बस बूढों वाली सब्जियां बची थीं। लौकी-तोरई वगैरह। आशा जी ने लिस्ट तैयार करनी शुरू की। स्नैक्स, दूध के एक्स्ट्रा पैकेट्स, दही, आइसक्रीम, मौसमी फल और बच्चों की पसंद की सब्जियां और मिठाइयां-पेस्ट्रीज..। अब वक्त ही कहां है। बेटे-बहू का कमरा भी तो ठीक करना है।

आशा जी जानती थीं कि पंद्रह दिनों में बेटा उनके पास मुश्किल से दो-तीन दिन रुकेगा। बाकी समय तो ससुराल में बीतेगा उसका। कुछ दिन घूमने-फिरने और दोस्तों से मिलने में निकल जाएंगे। लेकिन ये एक-दो दिन उनकी लाइफ डिस्टर्ब होकर रह जाएगी। अगले ही पल बेटे के लिए ढेर सा ममत्व उमड आया। मन ही मन प्लानिंग में जुट गई कि बच्चों को क्या गिफ्ट्स देने हैं। माथुर साहब को पत्नी की चिंता सता रही थी। आशा मानेंगी नहीं, अति उत्साह में आकर शरीर को जरूरत से ज्यादा खटाएंगी और फिर बच्चों के जाते ही बिस्तर पकड लेंगी।

खैर, बच्चे आए और चले भी गए। दो-चार दिन रुटीन डिस्टर्ब हुआ लेकिन फिर सब यथावत हो गया।

..उधर कुछ समय बाद पता चला कि मिस्टर शाह के बेटा-बहू ने आपसी सहमति से तलाक ले लिया। शाह दंपती ने राहत की सांस ली, लेकिन बेटे ने तुरंत दूसरी शादी की जिम्मेदारी मां-बाप को ही सौंप दी। बेटी निताशा उनकी इच्छा के विरुद्ध यूएस चली गई। दूसरी ओर कपूर दंपती भी इस बार बच्चों की ओर से निराश हुए। उनके बेटा-बहू इंडिया आए तो घर के बजाय होटल में ठहरे। उनके साथ एक विदेशी कपल भी था। सिद्धार्थ ने फोन पर कहा, डैड आप और मॉम दिल्ली आकर मिल लें। हमें जैक और ब्रिटनी को भारत दर्शन कराना है।

लेकिन बेटे तुम जानते हो तुम्हारी मॉम ट्रेवल नहीं कर सकती हैं।

ओके फिर नेक्स्ट टाइम डैड, कह कर सिद्धार्थ ने फोन रख दिया था।

कपूर साहब असमंजस में थे कि पत्नी को, जो बेटे-बहू और पोते-पोती के आने की उत्सुकता से राह देख रही है, कैसे खबर दें।

वह जानते थे कि पत्नी को यह सुन कर बहुत निराशा होगी, लेकिन देर-सबेर सही, बताना तो होगा ही। असमंजस की स्थिति से उन्हें पत्नी ने ही निकाल दिया। बोलीं, आप परेशान न हों। मैंने दूसरे फोन पर बेटे से हुई आपकी बातचीत सुन ली है। मैं जरा भी निराश नहीं हूं। बल्कि सच कहूं तो इस बार मुझे उनके न आने की ख्ाबर से राहत ही मिली है। मुझसे काम होता नहीं और उनके आने से काम का दबाव बढ जाता है। अगर वे इतने समझदार हैं कि हम पर बोझ नहीं डालना चाहते तो हमें भी समझदार हो जाना चाहिए। उम्मीद क्यों रखें। उनकी दुनिया अलग है और हमारी अलग। इतना ही काफी है कि उनकी खैरियत हमें मिलती रहे। जहां रहें खुश रहें। बस हमें क्या चाहिए।

उषा जैन शीरीं


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