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शोभा

वह निराशावादी थी, उदास थी तो उसकी दोस्त हंसमुख और आशावादी। कई बार तो निराशा और विध्वंस उस पर इतना हावी होता कि पागलपन की हद तक पहुंचने लगता। लेकिन गलती उसकी नहीं थी, उसकी स्थितियों ने उसे ऐसा बना दिया था। क्या उसकी सोच भी दोस्त की तरह सकारात्मक बन पाई, शीजोफ्रेनिया से ग्रस्त एक स्त्री की मार्मिक दास्तान कहानी के रूप में।

By Edited By: Published: Tue, 01 Apr 2014 05:57 PM (IST)Updated: Tue, 01 Apr 2014 05:57 PM (IST)
शोभा

शोभा मेरी दोस्त थी। इतनी पक्की कि मेरी कोई बहन होती तो ऐसी ही होती। पर तब तक मैं उसकी असलियत नहीं जानती थी। शोभा और मेरे स्वभाव में जमीन-आसमान का अंतर था। जहां शोभा हंसमुख, खुशदिल और एक्स्ट्रोवर्ट थी, वहीं मैं निराशावादी लडकी थी। कई बार तो मेरा व्यवहार पागलों जैसा हो जाता था।

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पर गलती मेरी नहीं थी। कोई भी ऐसा हो जाता, यदि उस पर वह घटना बीती होती, जो मुझ पर बीती थी। मैं छह साल की थी, जब मैंने हिंसक भीड के हमले में माता-पिता और दो साल के छोटे भाई को मरते देखा था। पर्दे के पीछे से वह मंजर अपनी आंखों से देखा था मैंने। भीड ने मेरे घर में आग लगा दी। किस्मत से मैं बच गई दयालु पडोसी की कोशिशों के चलते, जिन्हें मेरी चीख समय पर सुनाई दे गई। उन्होंने जान पर खेल कर मुझे बचाया और हॉस्पिटल पहुंचाया। चार दिन बाद मेरी विधवा दादी मां पहुंचीं और फिर दादी के साथ मैंने दो साल बिताए। तकदीर ने फिर मुझे धोखा दिया। एक दिन दादी मुझे स्कूल छोडने जा रहीं थीं, हमारे रिक्शे को एक कार ने टक्कर मार दी। रिक्शा-चालक और दादी मां वहीं खत्म हो गए और मैं घायल हालत में अस्पताल पहुंचा दी गई।

इस हादसे के बाद रिश्तेदारों ने मुझे मनहूस मान लिया। कोई भी मेरी जिम्मेदारी लेने को तैयार न था। अस्पताल के अधिकारियों ने मुझे अनाथालय में भर्ती करवा दिया। इसे एक धार्मिक संस्था चलाती थी।

अनाथालय में हमारी जिंदगी कठोर थी। खाना साधारण था, कभी-कभी कम पड जाता था। गर्मियों में बिना पंखे के पसीने से तरबतर रहते तो सर्दियों में एक कंबल में ठिठुरते रहते थे। मगर हमें शिकायत नहीं थी, अनाथालय की संचालिकाएं भी हमारी जैसी थीं। वे भी उसी अभाव में जीती थीं। काम वह जरूर करवाती थीं, जैसे- बुनाई, कढाई, सिलाई का, पर गलती होने पर कभी डांटती नहीं थीं। हमारे बनाए हुए कपडे नीलाम किए जाते थे, उसी से संस्था का कुछ खर्च निकलता था। हम दिन में काम करते थे, शाम को पढाई।

धीरे-धीरे मुझे समझ आया कि संस्था का उद्देश्य हमें अपने पैरों पर खडे होने के लिए तैयार करना था। कोई भी सारी जिंदगी वहां नहीं काट सकता था। नियमानुसार 18 साल की उम्र के बाद अनाथालय छोडना पडता, ताकि फिर किसी बच्चे को जगह मिल सके।

दस सालों में अनाथालय का सख्त पर शांत जीवन मैंने बिताया। साल में दो-तीन बार हम बाहर की दुनिया देखते। बाल फिल्म, स्कूल ड्रामा, फुटबॉल, हॉकी मैच या बडे दिन की खुशी में पिकनिक मनाने निकलते।

..फिर वह दिन भी आया, जब मैं बालिग हुई। कुछ दिन बाद अध्यक्ष ने मुझे बुलाया। उसने बताया कि दस दिन बाद अनाथालय छोडना पडेगा। मैंने आदेश का विरोध करना चाहा, पर उसने मुझे शांत होने का इशारा किया। उसने बताया कि बाहर की दुनिया में जीवन बिताने का प्रबंध हो चुका था। उन्हीं के साथ वाली संस्था के महिला हॉस्टल में मेरे लिए कमरा रिजर्व था। हॉस्टल के पास एक एनजीओ में मुझे कंप्यूटर ऑपरेटर का काम करना था। कंप्यूटर ट्रेनिंग हमें पिछले तीन सालों से मिल रही थी। उसने बताया कि मेरे हॉस्टल में मुझे एक बुजुर्ग महिला मदद करेगी, जो खुद कई साल पहले अनाथालय से वहां गई थी। मुझे तोहफे में चार जोडी नए कपडे, साबुन, तेल व रोजमर्रा के इस्तेमाल की वस्तुओं के अलावा तीन-चार महीने के खर्च के पैसे मिले। अध्यक्ष ने मुझे बताया कि वह पैसे मेरे ही थे। मेरे हाथ की बनी हुई वस्तुओं की बिक्री पर उसमें से कुछ प्रतिशत हर महीने बचाया जाता था।

मेरी किस्मत अच्छी थी कि बाहरी जिंदगी में मुझे खास दिक्कत नहीं आई और मैंने नए माहौल को जल्दी ही अपना लिया। फिर एक दिन अपने ही साथ काम करने वाले मोहित से मेरी मुलाकात हुई। वह भी अनाथ था। हमारी दोस्ती बढी और एक साल बाद हमने शादी कर ली। शादी के छह महीने बीते थे कि मैं प्रेग्नेंट हो गई।

पर दुर्भाग्य कि हमारे शहर में फिर सांप्रदायिक दंगे भडके। दंगे शहर से थोडी दूर हुए थे, इसलिए मुझे खास चिंता न हुई। रविवार था और मैं सुबह-सुबह सब्जी लेने बाजार गई थी। वहां से लौटते हुए मेरे करीब भयानक विस्फोट हुआ। यह इतना जबर्दस्त था कि मैं झटके से दूर जा गिरी। मेरा पूरा बदन दर्द और जलन से भर गया। मेरे इर्द-गिर्द शव बिखरे थे। अचानक मेरी आंखों के सामने माता-पिता और भाई की तसवीरें घिर आई। मैं चीखने लगी। लगभग 15 मिनट बाद मुझे अस्पताल ले जाने के लिए एंबुलेंस आई..। मैंने अपना बच्चा खो दिया था और डॉक्टर ने मुझे बताया कि मैं भविष्य में मां नहीं बन सकूंगी। मैं तकरीबन पागल हो गई। धीरे-धीरे मेरा बर्ताव खराब होने लगा। नौकरी चली गई और लोग मुझ से कटने लगे। केवल मोहित था, जिसका प्यार मेरे लिए कम नहीं हुआ। वह मेरा पागलपन शांति से सहता था।

मैं कभी-कभी हदें पार कर देती थी। जब मेरे जन्मदिन पर मोहित लाल रंग की साडी लाया तो मैंने खुशी से उसे स्वीकार लिया। पर उसे अलमारी में रखने गई तो जाने क्यों लगा कि साडी तो खून से लथपथ है। मेरे मन में इतनी नफरत भर गई कि मैंने मोमबत्ती जलाई और साडी को आग लगाने की कोशिश की। मोहित ने ऐन वक्त पर देख लिया। साडी तो नष्ट हो गई पर घर जलने से बच गया।

ऐसी दो-तीन घटनाओं के बाद मोहित ने मुझसे कहा, देखो, गलती तुम्हारी नहीं है, क्योंकि तुम्हारी हरकतें तुम्हारे बस में नहीं हैं। पर अब समय आ गया है कि मैं तुम्हें अच्छे डॉक्टर को दिखाऊं। मैंने मोहित की बात मान ली, क्योंकि मुझे अपने आप पर शक होने लगा था। मैं डरती थी कि न जाने कब घर में तोड-फोड या कोई खतरनाक हरकत कर बैठूंगी।

दो दिन बाद मोहित मुझे डॉक्टर गुप्ता के पास ले गया। मैंने डॉक्टर गुप्ता को देखते ही नापसंद कर दिया। वह स्थूल काया वाली थी। उसकी चमकती सूक्ष्म आंखों को देखने से लगता था जैसे वह मुझे नहीं, मेरी आत्मा को देख रही हो। प्राथमिक जांच के बाद मेरी ईईजी जांच करवाने को कहा गया। इसमें बिजली के जरिये रोगी के दिमाग का नक्शा बनाया जाता है।

खैर दो स्पेशलिस्ट डॉक्टर्स ने जांच की और देर तक डॉ. गुप्ता के साथ उनकी बैठक चली। बाद में मोहित ने कहा, डॉक्टर्स को यकीन है कि तुम पूरी तरह ठीक हो जाओगी। हालांकि इसमें कुछ समय जरूर लगेगा।

यूं तो मोहित का स्वर आनंदित था, पर मुझे लगा कि अंदर ही अंदर उसे कोई बात खाए जा रही थी। एक हफ्ते बाद मेरा इलाज शुरू हुआ। खाने की गोलियां, साइकोलॉजिस्ट से बात और दूसरे दिन एक इंजेक्शन। गोली और बातचीत से मुझे ऐतराज न था, पर इंजेक्शन से बहुत परेशानी होती थी। इंजेक्शन लगने के 10-12 मिनट बाद मेरे दिमाग में रंगीन विस्फोट होने लगते। अनदेखे भूत-प्रेतों के खयालों से दिमाग भर जाता। मैं चीखती, छटपटाती, रोने लगती। मैं वहां से भागना चाहती, पर मुझमें ट्रीटमेंट वाली कुर्सी से उठने की भी ताकत नहीं होती थी।

मोहित ने पहले इंजेक्शन का असर मुझ पर देखा। इसके बाद वह हर सिटिंग में किसी न किसी बहाने से बाहर चला जाता था। शायद मेरी दुर्दशा उससे देखी नहीं जाती थी। लेकिन जब मैं उससे विनती करती कि मुझे अब आगे इलाज नहीं करवाना है तो वह समझाता कि मेरे ठीक होने का बस यही तरीका है।

इलाज शुरू होने के तकरीबन दो हफ्ते बाद मुझे वह मिली, यानी मेरी हंसमुख दोस्त शोभा। उसकी चंचलता, बात-बात पर हंसना और जीवन की गंभीरता को मजाक में उडाने वाला मिजाज मुझ पर हावी हो गया। हम जल्दी ही दोस्त बन गए। एक दिन मैंने उसे मोहित से मिलवाया। मैंने सोचा था, मोहित उससे शिष्टाचारवश दो-चार बातें करेगा। मगर शोभा से मिल कर तो मेरा पति जैसे खिल ही उठा। उससे ऐसे बातचीत करने लगा जैसे बरसों से जानता हो। मुझे शक सा हुआ कि कहीं शोभा उसकी कोई कॉलेज की दोस्त या पुरानी प्रेमिका तो नहीं थी। खैर, मैंने शक को मन से निकाल दिया और अपने अंदर के शैतानों से लडने में जुट गई।

अब डॉ. गुप्ता ने इलाज में बदलाव किया। साइकोलॉजिस्ट से बातचीत कम हो गई। दूसरे दिन (जिस दिन मुझे इंजेक्शन नहीं लगते थे) मुझे कम वोल्टेज वाले बिजली के शॉक दिए जाने लगे। ऐसा लगने लगा, मानो शॉक मेरा मानसिक संतुलन बिगाड रहा है और मेरी याद्दाश्त धीरे-धीरे जा रही है। मैंने डॉ. गुप्ता और मोहित से कहा तो दोनों ने मुझे आश्वासन दिलाया कि अब मेरे इलाज का अंतिम पडाव आने वाला है। चंद दिनों में ही मैं पूरी तरह स्वस्थ हो जाऊंगी। लेकिन ऐसा बोलते हुए दोनों में से कोई भी मुझसे नजरें नहीं मिला पा रहा था। अब तो मुझे पूरा यकीन हो चला था कि जरूर मोहित और डॉक्टर मुझसे कोई राज छुपा रहे हैं।

फिर एक रात मेरे शक यकीन में बदल गए। मुझे लगा कि मानो मेरी दुनिया चकनाचूर हो गई। मेरे सारे सपने ही बिखर गए। मैं कोई काम कर रही थी कि मैंने दूसरे कमरे में बैठे मोहित को फोन पर धीरे-धीरे कुछ बोलते सुना। मैं चौकन्नी हो गई। वह कह रहा था, मैं तुम्हें साफ-साफ बताना चाहता हूं कि शोभा बहुत अच्छी लडकी है और मैं उससे बहुत प्यार करता हूं..।

मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई। मेरा पति, जिसने मेरे कारण इतने जुल्म सहे, वह किसी और से प्यार करता था और वह कोई और नहीं, मेरी ही सहेली शोभा थी।

उस पूरी रात मुझे नींद नहीं आई। सोचती रही कि अगर मोहित को शोभा से प्यार था तो मुझे तलाक देकर उससे शादी क्यों नहीं कर लेता। पर फिर लगा इससे उसे बदनामी का भय होगा और फिर मुझे गुजारा भत्ता भी देना पडेगा। हो न हो, वह डॉ. गुप्ता से मिल कर मुझे पागल बना रहा है। सोच रहा होगा कि एक बार वह मुझे पागलखाने में भर्ती करा देगा तो शोभा से शादी करने को आजाद हो जाएगा। हाय! मोहित, तुम कितने धोखेबाज निकले। मैंने तय कर लिया कि अगले दिन बिजली के ट्रीटमेंट के बाद मैं मोहित और डॉ. गुप्ता का सामना करके उनसे सच्चाई उगलवा कर रहूंगी।

अगली सुबह रोज की तरह मोहित क्लिनिक ले गया। ट्रीटमेंट रूम में मुझे बिजली की कुर्सी पर बिठा कर पेटी से बांध दिया गया। लेकिन आज मोहित कमरा छोडकर बाहर नहीं गया। वह डॉ. गुप्ता और उनकी नर्स के पास खडा रहा। तीनों मेरी ओर आशा भरी नजरों से देखने लगे, जैसे कोई महत्वपूर्ण घटना घटने वाली हो। मेरे मन में डर भर गया। मुझे लगा कि जरूर कुछ गडबड होने वाला है। मैंने पेटी खोल कर कुर्सी से निकलने की कोशिश की, पर तब तक बहुत देर हो चुकी थी। डॉ. गुप्ता ने बिजली का स्विच दबा दिया था। मेरे दिमाग में भूचाल आ गया। विस्फोट पर विस्फोट हो रहे थे। पहाड गिर रहे थे। आसमान फट रहा था। लगता था, मानो प्रलय आ गई है..। और फिर अंधेरा छा गया-घुप्प और शांत अंधेरा। जब मैं ट्रीटमेंट रूम से क्लिनिक में आई तो डॉ. गुप्ता ने मुझसे हाथ मिलाया और कहा, मुबारक हो शोभा भाभी, अब आप ठीक हैं।

मोहित भी मुझसे गले मिला और बोला, हां! शोभा अब तुम पूरी तरह ठीक हो। तुम्हारी शीजोफ्रेनिया (वह बीमारी जिसमें मरीज के भीतर दो पर्सनैलिटीज उभर जाती हैं) की बीमारी अब खत्म हो गई है। तुम्हारे अंदर जो अध-पगली सी दूसरी औरत थी, वह हमेशा के लिए दूर चली गई है। चलो अब हम फिर से जिंदगी शुरू करते हैं। हाथ में हाथ डाले हम दोनों अपने घर की ओर चल दिए..।

राजेश्वरी सिंह


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