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पंख कतरी चिडिय़ा

गृहिणी के कार्यों का मूल्यांकन कभी नहीं किया जा सकता। घर की धुरी है स्त्री, उसके बलिदान को महिमामंडित तो किया गया, मगर उसे उसका हक और सम्मान कभी नहीं दिया जा सका। एक स्त्री जिसे अन्नपूर्णा कह कर उसकी तमाम इच्छाओं को बांध दिया जाता है, क्या उडऩे की

By Edited By: Published: Wed, 26 Aug 2015 03:07 PM (IST)Updated: Wed, 26 Aug 2015 03:07 PM (IST)
पंख कतरी चिडिय़ा

गृहिणी के कार्यों का मूल्यांकन कभी नहीं किया जा सकता। घर की धुरी है स्त्री, उसके बलिदान को महिमामंडित तो किया गया, मगर उसे उसका हक और सम्मान कभी नहीं दिया जा सका। एक स्त्री जिसे अन्नपूर्णा कह कर उसकी तमाम इच्छाओं को बांध दिया जाता है, क्या उडऩे की इच्छा नहीं रख सकती? यही सवाल करती है इस कहानी की नायिका।

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एक सामान्य गृहिणी हूं। जब से घरेलू कार्यों का मूल्यांकन किया जाने लगा है, गृहिणी का कद कुछ बढ गया है। शायद इसीलिए हाउसवाइफ से पदोन्नत होकर होम मैनेजर बन गई हूं। मैं अपनी कहानी सुना रही हूं, जिसे सुन कर कई स्त्रियों को लग सकता है कि यह उनकी कहानी है। मध्यवर्गीय परिवार था हमारा। हम तीन भाई-बहनों में मुझे ही पढाई में सबसे अधिक रुचि थी। कक्षा में प्रथम स्थान पाती। जीवन में ख्ाास मुकाम हासिल करना चाहती थी। कुछ ऐसा, जो मुझे पहचान दे, उपलब्धि का संतोष दे। मुझसे एक वर्ष बडा था मेरा भाई नीलेश। हम दोनों एक ही स्कूल में पढते थे। साथ आते-जाते थे। हमउम्र होने के कारण नीलेश मेरे सपनों का राजदार था। पर वह स्वयं जरा भी महत्वाकांक्षी नहीं था। वह अपने करियर को लेकर भी संजीदा नहीं था। उसे खेलकूद का अधिक शौक था और भूख लगने पर ही उसे घर की याद आती थी। वह अकसर मां की डांट खाता। मैं मां को काम में हाथ बंटाने के बाद अपनी पढाई भी पूरी कर लेती थी। मां-बाऊजी चाहते थे कि उनका बेटा इंजीनियर बने। प्रोत्साहित करने और डांटने का भी नीलेश पर कोई असर नहीं पडा और बोर्ड की परीक्षा में उसके इतने नंबर नहीं थे कि अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज में उसे दाख्िाला मिल सके। लिहाज्ाा मोटी फीस भरकर उसका दाख्िाला एक प्राइवेट कॉलेज में करवा दिया गया। मैंने मां को किसी तरह मनाया कि मुझे वकालत करने दें। उन दिनों ग्रेजुएशन के बाद ही एलएलबी में प्रवेश मिलता था। मैंने बीए में प्रवेश ले लिया। पढाई के साथ मैं कॉलेज की अन्य गतिविधियों में भी बढ-चढकर हिस्सा लेती थी। कई शौक थे। वाद-विवाद प्रतियोगिता में अकसर जीत जाती और कॉलेज पत्रिकाओं में मेरी रचनाएं प्रकाशित होतीं।

बीए की परीक्षा हो गई और परिणाम का इंतज्ाार था। उस दिन मैं बहुत प्रसन्न थी। एक नामी पत्रिका में मेरी दो कविताएं एक साथ छप कर आई थीं। साथ में संक्षिप्त परिचय भी था। लिखा था- 'हिंदी साहित्य को इनसे बहुत आशाएं हैं। यह पढ कर लगा था, बस मेरे ही कंधे पर टिका है हिंदी साहित्य का भविष्य और मैं एक कवयित्री बनने के ख्वाब बुनने लगी। एक दिन पहले ही ससुराल से दीदी आई थीं। मैं बडे चाव से उन्हें अपनी छपी कविताएं दिखाने पहुंची। दीदी ने सरसरी निगाह डाली और बडे रहस्यमय अंदाज्ा से पूछा, 'दो दिन पूर्व जो अंकल-आंटी परिवार सहित आए थे, याद हैं तुम्हें? याद क्यों न होगा भला। परसों की ही तो बात है। मेरी हमउम्र एक बेटी भी थी उनकी और उससे बडा एक भाई। मां ने उनकी खूब आवभगत की थी। कैसे तो मनुहार से खिला-पिला रही थीं। स्वयं तो बहुत कुछ बनाया ही था, बाज्ाार से भी मंगवाया गया था। पर दीदी भी न! बात कहां से कहां ले गईं। मुझे झुंझलाहट हो रही थी। मैं तो उनसे प्रोत्साहन की उम्मीद लेकर आई थी, पर उन्होंने मेरी कविताओं को नजरअंदाज कर दिया था, जबकि वह स्वयं हिंदी साहित्य की छात्रा रही हैं। मेरे मनोभावों को दरकिनार करते हुए वह बोलीं, 'उनके संग उनका बेटा था न रमन, उसी के साथ तुम्हारा विवाह तय हुआ है, कल मंगनी की रस्म है। उन्होंने कहलवाया है कि अपनी नाप और पसंद की अंगूठी ख्ारीद लो। सो तैयार हो जाओ, तुम्हें मेरे संग बाज्ाार चलना है..., दीदी ने निर्णायक ढंग से कहा।

'मतलब कि सब कुछ तय हो गया बिना मेरी पसंद-नापसंद जाने, बिना मुझसे पूछे?

'तुमसे क्या पूछना! सभी कुछ तो देख लिया है। लडके को तो तुम भी देख चुकी हो।

'पर अभी तो मुझे पढऩा है। करियर चुनने का समय तो अब आया है। मां ने तो मान लिया था न कि मुझे वकालत करने देंगी...

'बीए तो करना ही था न! इसके बगैर अच्छा वर कैसे मिलता!

'महज्ा बीए करने से क्या होता है? कम से कम एक बार तो मुझसे पूछा होता। पूछा होता कि मुझे अभी शादी करनी भी है या नहीं।

हम दोनों बहनें सोच के एकदम भिन्न धरातल पर खडी थीं। उम्र का अंतर उतना नहीं था, जितना सोच का। दीदी सदा से बंधी-बंधाई लीक पर चलने वाली रही थीं। उनके तर्कों में मेरे सपनों का कोई औचित्य नहीं था। एक अपरिपक्व मस्तिष्क की उडान भर थे वे। बहरहाल निर्णय तो लिया ही जा चुका था। विद्रोह करने की न हिम्मत थी और न संस्कार। विभाजन के बाद जन्मी पीढी काफी हद तक आधुनिक हो चुकी थी। लडकियां शिक्षा प्राप्त करने लगी थीं। कम से कम शहरों में तो अधिकतर लडकियां स्कूल-कॉलेज जाने लगी थीं, मगर शादी-ब्याह के मामले में अभी तक मां-बाप की ही चलती थी। वह अपनी मजर्ी से और समझ से बेटियों का विवाह तय करते थे। कब और किसके साथ- इसका निर्णय भी वही लेते थे। बेटियों से पूछना तो क्या, ज्य़ादातर घरों में तो अपने विवाह की चर्चा के समय बैठना भी लडकी की बेहयायी माना जाता था। यह वह दौर था जब 'न शब्द लडकियों के कोश में नहीं था। यही अपेक्षा की जाती थी कि बेटी सब कुछ चुपचाप स्वीकार कर लेगी। दीदी ने किया ही था न! ऐसा नहीं कि कोई भी लडकी तब घर से बाहर जाकर काम नहीं करती थी। कुछ लडकियों को नौकरी करने की छूट मिल गई थी, लेकिन गिने-चुने क्षेत्रों में और वह भी केवल कुछ ही परिवारों की लडकियों को।

स्वयं को बहुत असहाय महसूस किया मैंने उस दिन। मेरे सपने टूटे नहीं थे, पैरों तले रौंद डाले गए थे और वह भी अपनों द्वारा। मेरे भीतर बहुत कुछ लहूलुहान हो गया, पर एक आदर्श बेटी की तरह लब सिए हुए सब कुछ स्वीकार कर लिया मैंने।

संयोग ऐसा बना कि भावी पति रमन को वर्ष भर की ट्रेनिंग के लिए विदेश जाना पडा और विवाह उनके लौटने तक टल गया। कोई बडी डिग्री ले पाने की संभावना तो बची नहीं थी। इसलिए परिवार वालों को मनाकर मैंने बी.एड. में एडमिशन ले लिया। पहला साल बीता, फिर शादी हो गई। दूसरा साल विवाह के बाद था, जब तक परीक्षा होने को हुई, मेरा बेटा करन अपने आने की सूचना दे चुका था। ख्ौर, परीक्षा निपट गई। ख्ाुश थी, यह सोच कर कि एकाध साल में बेटे को थोडा बडा करके नौकरी करूंगी। मगर तब तक बेटी शिप्रा गर्भ में आ गई। करन ने स्कूल जाना शुरू कर दिया था और शिप्रा भी ढाई की हो गई तो मैंने पति से नौकरी करने की इच्छा ज्ााहिर की। घर कैसे चलेगा, इसका पहले से जवाब तैयार करके ही पति से इजाज्ात मांग रही थी। बेटा मेरे साथ ही स्कूल जाएगा और बेटी दादी के पास रहेगी, साथ में आया को देखभाल के लिए रखेंगे

'क्यों करना चाहती हो तुम नौकरी? किस चीज की कमी है तुम्हें? बहुत हाथ खोल कर ख्ार्च न कर पाते हों तो भी सारी सुविधाएं तो हैं न! आराम से रह रही हो। परवरिश की ज्िाम्मेदारी भी तो है! स्कूल से थक कर आओगी तो उन्हें समय दे पाओगी? अब इस उम्र में अम्मा फिर से बच्चे पालेंगी क्या? पति ने एक साथ कई सवाल पूछ डाले। क्रोध में नहीं, लेकिन अपना आदेश उन्होंने सुना दिया था, इस अपेक्षा के साथ कि उनकी बात मानी ही जाएगी।

उस समय वह नहीं समझ पाए थे कि कुछ सार्थक करने की इच्छा पैसा कमाने से अधिक तेज्ा हो सकती है। किसी मुकाम पर पहुंचने की ललक, अपनी स्वतंत्र अस्मिता की चाह, उपलब्धि का संतोष जीवन को अर्थ देता है। और फिर बच्चों के दायित्व से मैं कहां पीछे हट रही थी? पारिवारिक दायित्व निभाते हुए भी जिंदगी अपनी तरह से जीने की चाह हो सकती है।

पति के हर तर्क का उत्तर था मेरे पास, मगर ख्ाामोश रहने के सिवा कोई रास्ता न था। यूं मेरे सपनों के पाखी पंख कुतर दिए जाने के कारण असमय ही मर गए और उनके साथ ही मन का एक बडा हिस्सा हमेशा के लिए निस्पंद हो गया था।

बहरहाल मैं अपने सारे कर्तव्य पूरे करती रही। समाज की ओर से जो कर्तव्य स्त्री के लिए निर्धारित हैं- बच्चों की परवरिश, घर-परिवार की देखभाल, संयुक्त परिवार, नाते-रिश्तेदारों से संबंध... सब पूरी ईमानदारी से निभाए। इन सबके अतिरिक्त जो भी काम घर बैठे किए जा सकते थे, वह सब किए। कपडे घर में सिले और दजर्ी का बिल कम किया। घर के पिछले हिस्से में सब्ज्िायां उगाईं और कम बजट में सबको पौष्टिक भोजन परोसा। इन सबसे जो समय बचा, उसमें कुछ न कुछ नया सीखकर अपने व्यक्तित्व को उभारने का प्रयत्न भी किया। बस मेरे अपने सपने जीवन रस के अभाव में एक-एक कर मरते रहे और एक धुंधला सा धब्बा बन कर रह गए।

गुजरते समय के साथ-साथ सामाजिक सोच में भी परिवर्तन आता रहता है। इस परिवर्तन की गति कभी धीमी होती है तो कभी तेज।

अब लडकियां भी नौकरी के लिए घर से बाहर निकल रही हैं। वे भी लडकों की तरह पढाई-लिखाई कर रही हैं और करियर बनाने की चाह रखती हैं।

मैंने तो अपने सपने बच्चों को सौंप दिए। बेटे ने इंजीनियरिंग की और बेटी ने वास्तु-शास्त्र की पढाई की। दोनों जिस मुकाम पर पहुंचे, वहां मेरा दख्ाल नहीं था। वे मुझे पूरा सम्मान देते थे, लेकिन बौद्धिक स्तर पर दूरियां थीं। व्यावहारिक सलाह लेने के लिए वे मुझसे ज्य़ादा अपने पिता पर भरोसा करते। मैं सबके नाश्ते-खाने और लंच बॉक्स का काम संभालती और उन्हें ऑफिस टाइम पर पहुंचाने की पूरी तैयारी करती। कभी अपनी कोई राय रखती तो सभी प्यार से मुझे चुप करा देते कि मां तुम इन बातों को कैसे समझोगी? तुमने बाहर की दुनिया देखी ही कहां है?

मेरे पति रमन ने ख्ाूब तरक्की की। मैंने उन्हें घर की ज्िाम्मेदारियों से मुक्त रखा। आज वह एक इंजीनियरिंग फर्म के डायरेक्टर हैं। घर के ज्ारूरी कार्यों के लिए भी उनके पास समय नहीं। सच कहें तो इसकी कोई ज्ारूरत भी उन्हें नहीं पडी। मैं हूं न! कुछ ही दिन पहले इनकी फर्म को एक बडा कॉन्ट्रेक्ट मिला, सो पार्टी तो बनती थी।

वर्मा साहब गोरखपुर से तबादला होकर आए थे, काफी सीनियर हैं, दफ्तर के सारे कलीग्स को जानते-पहचानते हैं, मगर पार्टी के बहाने सबके परिवारों से भी रूबरू होने का मौका मिलता है। एक-एक कर सभी अपने परिवार के लोगों से उनका परिचय करा रहे थे।

'सर ये हैं मेरी पत्नी नीला, डॉक्टर हैं।

'सर ये हैं शालिनी। स्कूल में टीचर हैं

'ये हैं प्रभा पांडे, अंग्रेजी की लैक्चरर हैं।

मेरी बारी आई तो पति ने कहा, 'सर यह मेरी पत्नी हैं सुधा। मैंने आदर में हाथ जोड दिए। आदतन वर्मा जी ने पूछा, 'आप क्या करती हैं मिसेज जैन? मैं कोई जवाब दे पाती, इससे पहले ही पति बोल पडे, 'शी इज्ा जस्ट ए हाउसवाइफ...।

इसके बाद पार्टी में मेरा मन नहीं लगा। पति के शब्द हथौडे की तरह पूरी रात दिमाग्ा में बजते रहे। क्या 'कुछ न करने का यह निर्णय मेरा अपना था? हमेशा औरों ने ही तय किया कि मुझे क्या करना है और क्या नहीं करना। मुझे आदेश मिलता गया और मैं उसी हिसाब से बडों की तय की गई लकीर पर चलती गई बिना प्रश्न पूछे और मन में संशय पाले। बचपन से मुझे यही सिखाया गया था कि बडे जो फैसले लेंगे, उन्हें मानना होगा। इसे अपना सौभाग्य समझूं या कुछ और, मगर मुझे यही जताया जाता रहा कि जो कुछ भी मुझे मिल रहा है, उसके प्रति आभारी रहूं और मुस्कुराती रहूं। मुझे जो भी भूमिकाएं करने को दी गईं, उन्हें मैंने ईमानदारी से निभाया।

मगर ज्िांदगी के आख्िारी पडाव पर आकर मुझे इसलिए नाकारा करार दिया गया, क्योंकि मैं घर के बाहर जाकर नौकरी नहीं करती हूं? आख्िार क्यों? क्या मेरे इतने वर्षों की मेहनत व्यर्थ है? पति और बच्चों की कामयाबी क्या बिना मेरे त्याग के संभव हो पाती?

वर्षों पूर्व मैंने पंख फडफ़डाए थे, मगर उडान भरने से पहले ही उन्हें कतर दिया गया। आज मुझ पर इल्ज्ााम है कि मैं उड नहीं सकती। पंख कतरी चिडिय़ा सी हैरान-हतप्रभ मैं अपने ही घोंसले में अजनबी सी बैठी हूं।

उषा वधवा


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