Move to Jagran APP

जड़वाद

मन में पीड़ा होगी तभी सुख का भी एहसास होगा। कई बार समय से पहले सब कुछ मिलने से भी मन का उत्साह मरने लगता है। इच्छाएं फिर जन्म लें, इसके लिए एकरसता को तोड़ना पड़ता है, कुछ कठोर सच्चाइयों के करीब भी होना पड़ता है..।

By Edited By: Published: Tue, 02 Apr 2013 03:46 PM (IST)Updated: Tue, 02 Apr 2013 03:46 PM (IST)
जड़वाद

पिछले दिनों से लगातार इन पहाडों की रचना देख रहा हूं। ये घाटियां और पेड.. सुबह-शाम पेडों की स्वस्थ काया को ठंडी हवाओं में झूमते देखता हूं तो अनायास मन डोलने लगता है। जंगल के बीच छोटी पुलिया और तीखे मोडों पर मोटर-कारों के संभल कर आने-जाने के दृश्य मन को आंदोलित करते हैं। घाटियां हैं कि दूर तक पसर गई हैं और उन पर खिंची सडकें किसी पसरी चीज को बांधने का उपक्रम लगती हैं। जंगल के बीच दुबके गांव और कहीं बाजार की यादें ताजा करती दुकानें। यहां सब कुछ है, लेकिन दूर से देखने पर लगता है कि जंगल के सिवा कुछ नहीं। उनका कहना है कि यह जगह ठीक है। जहां वे ठहरे हैं, वहां मालूम भी नहीं पडता कि जून का महीना चल रहा है। पाइन के ऊंचे व घने पेडों के बीच होटल एयरकंडीशंड लगता है। गर्मी से अन्ना की परेशानी बढ जाती है। डॉक्टरों ने यही वातावरण ठीक बताया है।

loksabha election banner

अन्ना को लालजी साथ लाए हैं। पिछले चार वर्षो से अन्ना को किसी ठंडी जगह रहने का इंतजाम उन्हें करना पडता है, लेकिन इतने दिन वह साथ नहीं रह सकते। तब अन्ना के साथ नौकर या कोई रिश्तेदार होता है।

लालजी साहब ने अन्ना के लिए असंभव को भी संभव कर दिखाया है। इतना कुछ उन्हें दे दिया, जिसे वह ले न सकीं। आदमी दुख के बोझ को नहीं झेल पाता, लेकिन जरूरत से ज्यादा सुख भी वह नहीं झेल पाता। इन्हीं सुखों ने अन्ना को जड बना दिया है।

अन्ना बीमार हैं, हालांकि बात इतनी सी है कि सब कुछ होते हुए भी उनके मन में कोई इच्छा जन्म नहीं ले रही। इच्छाएं समय से पहले पूरी हुई लगती हैं। इसलिए वह चुप रहती हैं। मस्तिष्क में सन्नाटा है, ठहरे हुए उस महाशून्य  में चेतना नाम की कोई चीज नहीं। अन्ना पहले से अधिक शांत व गंभीर हैं, उसी तरह जैसे कोई तपस्वी एकदम निर्विकार रहता है।

लालजी साहब के साथ पाइंस  होटल की तरफ चल पडा हूं। होटल का दृश्य आंखों को अच्छा लगता है। पाइंस  के घने आसमान छूते पेड.. वहीं अन्ना से मुलाकात होगी।

लालजी अन्ना के बारे में मेरी राय जानना चाहते हैं। कितनी अच्छी जगह हो, कितना अच्छा मौसम..हर जगह शिकायतें आदमी के साथ होती हैं। उनकी बातों का उत्तर मैं नहीं देना चाहता। कुछ कहूंगा तो भडक उठेंगे। यही कहेंगे कि जिन लोगों के पास पैसा नहीं होता, उन्हें पैसे में खराबियां ही दिखती हैं।

उनकी बात को नकारा नहीं जा सकता। लेकिन पैसा ही सब कुछ  है, यह भी सच नहीं। पैसा बडी चीज है, लेकिन वह उतनी ही छोटी चीज क्यों नहीं हो सकता! मैंने कई बार पैसे को बदनाम व नाकारा होते देखा है। वक्त पर जो काम न आए उसके होने का क्या फायदा! लालजी साहब  से मैंने कहा भी कि यदि पैसा ही सब कुछ  करता तो अन्ना को अब तक ठीक हो जाना चाहिए था। पाइंस होटल के गेट तक हम आ पहुंचे हैं। वहीं लालजी ने एक स्पेशल फ्लैट बुक करा लिया था। कमरे का दरवाजा खुला तो अन्ना खिडकी के पास पलंग पर बैठी मिलीं। उनकी बडी-बडी आंखें दूर घाटियों में फैली थीं। हमारे आने का आभास भी उन्हें नहीं हुआ।

लालजी साहब पलंग के पास पहुंचे। अन्ना के बाएं गाल पर हथेली रख उन्होंने कमरे की तरफ उनका मुंह फेर कर पूछा, इन्हें जानती हो? अन्ना की खुली आंखें लगातार मुझे देखने लगीं। जैसे पहचानने की कोशिश कर रही हों। मुझे लगा कि उन आंखों में पहचान खो गई है। भीतर खाली पडा हो तो आंखों में कोई तसवीर नहीं बनती। इसलिए पहचान नाम की कोई चीज वहां नहीं रह गई थी।

लालजी साहब खुश थे। उस दिन मेरी तारीफ करते रहे। बोले, तुम ठीक कहते हो, पैसा ही सब कुछ  नहीं है। मुसीबत में जो काम आए, वही अपना है।

लालजी में अचानक परिवर्तन का कारण मैं समझ न सका। अन्ना सामने हैं, मन ही मन उन पर तरस आता है। लालजी बताते हैं, एक समय था जब उनके चेहरे पर फैलने वाली मुसकान को झेलना मुश्किल था। उन्हें सारे शौक थे। मेजबानी करना, बच्चों के साथ हंसना-हंसाना और बुजुर्गो की बातों को ध्यान से सुनना उन्हें अच्छा लगता था..। लालजी अंत में याचना भरे लहजे में बोले कि उन्हें कुछ जरूरी काम से वापस लौटना है, इतने समय अन्ना की देखभाल कर सकूं तो वह मेरा उपकार नहीं भूलेंगे। मुझे लगा कि लालजी गए तो फिर उनका लौटना मुश्किल है। सुबह मेरे हाथ में एक भरा पर्स थमा कर लालजी निकल लिए। उनके जाने के बाद मैं कमरे में लौट आया। अन्ना की आंखें खिडकी से बाहर देखती रहती हैं। वहीं बैठ कर मैंने पर्स खोला तो हजार-हजार के नोटों की इंच भर परतें देख मन का पंछी उडने लगा। सुना था कि पैसे से दुनिया है। एक दुनिया मेरे भीतर चक्कर लगाने लगी। अन्ना साथ न होतीं तो मनमाने ढंग से इन पैसों का काम-तमाम कर डालता। लेकिन अन्ना के रहते वह सब बेकार लगने लगा। पैसा है तो उसके साथ परिस्थितियां भी हैं, भला-बुरा सभी कुछ पैसे से जुडा है।

मैंने पर्स किनारे रख दिया। यही है, जिसने आदमी की दुर्गति बनाई है। लेकिन जिसके पास पैसा नहीं, वह भी सद्गति को प्राप्त नहीं होता। पैसा है तो लालजी ने यहां भी वे सारी सुविधाएं जुटा रखी हैं, जो यहां भी अन्ना का साथ नहीं छोड पा रही हैं। इन्हीं के कारण अन्ना की जडता बढी है। सुख-सुविधाओं के चरम विकास के बाद पतन का सिलसिला शुरू हो जाता है। अन्ना में सब कुछ मरा नहीं है। देर के बाद सही, वह बात समझ जाती हैं और सिर हिला कर हां या ना में उत्तर देती हैं। जैसा कहो, वैसा करने में भी उन्हें आपत्ति नहीं।

हफ्ते भर बाद लालजी का पत्र मिला। लिखते हैं, तुम पर भरोसा है। जैसा ठीक समझो, करो। लेकिन अन्ना के लिए कुछ असंभव नहीं होना चाहिए। पैसे की चिंता मत करना। लालजी ने अपने लौटने का जिक्र नहीं किया। अगले दिन अन्ना को कमरे से बाहर निकाल लाता हूं। गेट से बाहर निकलते ही उन्होंने अपना हाथ छुडा लिया और जंगल की ओर मुडने वाली कच्ची सडक पर धीरे-धीरे कदम बढाने लगीं। शायद कुछ कदम चलने की उनकी इच्छा हुई है। लालजी ने डॉक्टरों की राय के मुताबिक उनका चलना-फिरना बंद कर रखा था। सुबह से शाम तक वह डनलप के मखमली गद्दों पर लेटतीं, बैठी रहतीं या आडे-तिरछे होकर वक्त गुजार देतीं। लगा कि ऊबड-खाबड कच्चे रास्ते पर चलना उन्हें अच्छा लग रहा है। पेडों से छन कर आने वाली हवा की नाजुक छेडखानी से उन्हें शिकायत नहीं। काश! इन पेडों के घने व चमकीले पत्तों की नोक पर अटकी शबनम की अंतिम बूंदों को वह देख पातीं। ठंडी बूंदें कई बार उनकी गर्दन पर टपक चुकीं, लेकिन अन्ना ने उन्हें पोंछने की कोशिश नहीं की।

होटल से हम कुछ दूर निकल आए हैं। लंबी सांस छोडते हुए अन्ना वहीं बैठ जाती हैं। वह थक चुकी हैं। उनका थकना अच्छा लग रहा है। कुछ देर बाद उन्हें वापस लौटने को कहता हूं। अन्ना लौटना नहीं चाहतीं। जितनी देर बैठना चाहें, बैठी रहें। लेकिन कुछ देर बाद यहां धूप आ जाएगी। पहाडों की तेज धूप। तब अन्ना को वापस लाना मुश्किल होगा। कुछ कदम आगे दुकानें नजर आई। मन-प्राणों को ताजगी से भर देने वाले मोड भी जीवन में कभी-कभी आते हैं। अन्ना को वहीं मिट्टी-गोबर पुते एक कमरे में ले आता हूं। आते ही वह कच्चे फर्श पर पसर जाती हैं। उनकी अधखुली विवश आंखें.. पहली बार आंखों ने उनके थकने की बात कही। वर्ना तो उन आंखों में कुछ होता ही न था।

कमरे के ऊबड-खाबड खाली फर्श पर इस तरह उनका पसरना अच्छा न लगा। लालजी  साहब का कहना कि वह बहुत नाजुक बन चुकी हैं। नाजुक हैं, पर इस तंगदस्ती से परेशान नहीं। न पाइंस  होटल के रेशमी गद्दे ही उन्हें आराम पहुंचा सके हैं।

अन्ना को लेकर मेरे मन में द्वंद्व उठ खडा हुआ है। सोचता हूं, जब मन में पीडा और अभावों का जन्म होगा, तभी वहां सुख और आनंद की अनुभूति भी हो सकती है। यों तो सभी सुख-दु:ख आदमी के आसपास रहते हैं, यह उस पर निर्भर है कि वह कहां से क्या ले पाता है। अन्ना को यहीं रहना चाहिए। इसी जगह वह कुछ दिन रहेंगी तो किसी निर्णय तक पहुंचा जा सकता है। सोचा, उनके खाने-रहने का अच्छा इंतजाम यहीं कर दिया जाए। लेकिन नहीं, यहां जो है वही ठीक है। जडता को सुविधाएं देकर उसे बनाए रखना अपना काम नहीं। जडता को तोडने के लिए पांच सितारा होटलों की सुविधाओं से लैस वातावरण से खींच कर उन्हें झोपडों में लाना जरूरी है। जीवन की सच्चाइयां ही जडता को तोड सकती हैं। जंगल का अंधेरा कोना, गोबर-मिट्टी से संवारे गए घर और कच्चे फर्श पर बिछी चटाई खुद में एक बडी सच्चाई है। अन्ना को इस सत्य के करीब देखना चाहता हूं। पिछले दो दिन से उन्हें खाने-रहने की वैसी सुविधा नहीं मिली। आइसक्रीम, जैम, बटर, मटन-चिकन जैसी बेहूदा चीजों की जगह सूखी रोटी और उबला साग ही मिल रहा है। कभी दुकान से चना-चबेना लाता हूं तो अन्ना बडे स्वाद से खाने लगती हैं। लगता है, भूख ने उन्हें होशियार बना दिया है।

हालात बदलते देर नहीं लगती। दस दिन में ही अन्ना इतनी बदल गई कि हर चीज को लेकर उनकी शिकायतें तेज होने लगी हैं। कभी खुश्क रोटी को लेकर तो कभी साग में मिर्च तेज लगने की शिकायत। अपने बिछौने पर पडी गांठों के चुभने की शिकायत तो वह तीसरे दिन से ही करने लगी थीं। उन्हें लेटने में कष्ट होता है। दिन-दिन उनकी शिकायतें बढने लगी हैं। उनका कहना कि ठंड के कारण आज उन्हें नींद नहीं आई। मैंने उन्हें बताया कि यहां रात में ठंड बढ जाती है। लेकिन जब वह करवटें बदलती रहीं तो मैंने यह फटा कंबल उनके ऊपर डाल दिया था।

अन्ना की आंखें देर तक उस पुराने कंबल पर टिकी रहीं। बोलीं, लगा था कि तुमने कुछ ओढा दिया है। ठंड थी, लेकिन बाद में गर्मी मिली तो मैंने मजे की नींद ली। धीरे-धीरे अन्ना के भीतर कुछ लौटने लगा है। थोडे से समय में जब उन्हें अपनी स्थिति का बोध हो गया तो तीखे तेवर दिखाते एक दिन उन्होंने पूछा कि हम यहां कैसे आए? मैंने जवाब दिया, आप चल कर यहां आई हैं। आपको यह जगह पसंद है, इसलिए। अन्ना को अजीब तो लग रहा था लेकिन कुल मिला कर वह खुश थीं। बोलीं, जगह अच्छी है, लेकिन यहां कुछ भी नहीं है।

आप ठीक कहती हैं। यहां कुछ नहीं है। इसलिए तो आपको भूख लगी, नींद भी आई। जब कुछ नहीं है तो आपको चीजों की जरूरत महसूस हुई। लेकिन अब हम ज्यादा देर यहां नहीं रुकेंगे।

अगली सुबह हम वापस होटल लौट आए। अगले दिन ही अन्ना ने लालजी को पत्र लिखा और खुद उसे लैटर-बॉक्स में डाल आई। अन्ना अब ठीक थीं। चेतना लौटी तो उनका व्यक्तित्व भी निखर आया। अब अन्ना के भीतर इच्छाओं के बंध तेजी से टूटने लगे हैं..।

बल्लभ डोभाल


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.