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धानी चूनर

प्रेम बड़ा ज़्िाद्दी होता है, लेकिन समाज और वक्त के आगे कई बार उसे झुकने को मजबूर होना पड़ता है। समय की आंधी प्रेम को दूर छिटका देती है।

By Edited By: Published: Sat, 30 Jan 2016 04:10 PM (IST)Updated: Sat, 30 Jan 2016 04:10 PM (IST)
धानी चूनर

प्रेम बडा ज्िाद्दी होता है, लेकिन समाज और वक्त के आगे कई बार उसे झुकने को मजबूर होना पडता है। समय की आंधी प्रेम को दूर छिटका देती है। कुछ लोग होते हैं, जो प्रेम की ख्ाातिर हर चुनौती और मुश्किल का सामना करने को तैयार रहते हैं। वे समय के आगे हार नहीं मानते। अंतत: एक दिन समय को उनके प्रेम के आगे झुकना पडता है।

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हमेशा की तरह अपने छोटे से कमरे में बैठा एक पुरानी मैगज्ाीन को सुबह से पांचवी बार पढ रहा था। लाख कोशिशों के बाद भी किसी काम में मन नहीं लगा पा रहा था।आज सिविल सर्विसेज्ा की मुख्य परीक्षा का रिज्ाल्ट आना था। एकाएक दरवाज्ो पर दस्तक हुई।

खनकती चूडिय़ों की आवाज्ा मेरे कानों तक पहुंची। कोई अन्य दिन होता तो मैं दरवाज्ाा खोलने के लिए बेकरार हो उठता, मगर इस नितांत अपरिचित शहर में मेरी एकमात्र हमदर्द, मेरी हमउम्र दोस्त और मेरे सपनों की शहज्ाादी मुझे बुलाने आए और मैं उसे देखने में पल भर की भी देर लगाऊं, ऐसा भला कैसे संभव है!

मैं ख्ायालों में गुम था कि अचानक दोबारा चूडिय़ों की खनखनाहट सुनकर जैसे नींद से जागा। बदहवास सा दरवाज्ो की ओर भागा और झटके से मैंने चिटकनी खोल दी। गर्म हवा के भभके से मेरा मुंह जैसे सुलग उठा। मैंने झट से दरवाज्ाा बंद करते हुए थोडा ग्ाुस्से से कहा, 'इस दोपहरी में तुम नंगे पैर दौडी चली आ रही हो... कहीं तुम्हारा दिमाग्ा तो नहीं ख्ाराब हो गया? राधा तुरंत अंदर आकर धम्म से बिस्तर पर बैठ गई और अपने तलवों पर हाथ रखकर मेरी तरफ देखने लगी। राधा का गोरा चेहरा सुख्र्ा लाल होकर तमतमा गया था और वह पसीने से तरबतर थी। मेरी बात पूरी होने से पहले ही राधा धानी रंग की चुनरी से चेहरा पोंछ कर मुस्कुराते हुए बोली, 'राहुल, रिज्ाल्ट आया है तुम्हारा, उसी परीक्षा का, जिसकी तैयारी में तुमने आंखों को लालटेन बनाकर दिन-रात जलाया है। उसके हाथ में लिफाफा देखकर मैं चेतनाशून्य हुआ जा रहा था और एकटक उसकी ओर ताक रहा था। मुझे यूं घूरते देख वह थोडी असहज हो गई और अपनी चुन्नी संभालते हुए बोली, 'अब आंखें फाड-फाड कर मुझे देखते ही रहोगे या हीरा हलवाई की चाशनी में डूबी जलेबियां भी खिलाओगे? भावातिरेक में मैंने उसका हाथ पकडा और जब मुझे कुछ भी समझ में नहीं आया तो मैंने उसका हाथ अपने सीने पर रख दिया और कहा, 'देखो न, मेरा दिल कितनी ज्ाोर से धडक रहा है।

'धत, कहते हुए राधा शर्माती हुई हौले से मुस्कुराई और लिफाफा मेरे पलंग पर ही छोड कर हिरणी सी कुलाचें भर कर भाग गई। डबडबाई आखों और कांपते हाथों से मैंने लिफाफा उठाया। मेरे हाथ लगातार कांप रहे थे। लिफाफे के अंदर से झांकते अख्ाबार के पुज्र्ो को मैंने धीरेे से निकाला...। दो भाग में काग्ाज्ा को सीधा करना जैसे मुझे युगों के समान लग रहा था।

अख्ाबार के खुलते ही मेरी नज्ार मजमून पर पडी। ...सामने लाल स्याही के अंदर मेरा रोल नंबर था...। मैं धम्म से पलंग पर बैठ गया..., ख्ाुशी के मारे समझ नहीं आ रहा था कि जीवन की सबसे बडी उपलब्धि किसके साथ साझा करूं । अचानक बाबू जी का ध्यान आया...। बाबूजी को अपने रिज्ाल्ट के बारे में बताऊं..., पर कैसे! फोन करने में जितने पैसे ख्ार्च होंगे, उतने में तो बस का किराया लगाकर गांव पहुंच जाऊंगा।

जब भी पडोस वाली चाची के घर फोन करो, वो काटने नहीं देती, बल्कि होल्ड पर ही रखवाती हैं। अगर ग्ालती से मीटर की रफ्तार देखकर फोन काट दो तो फोन का तार निकालकर कहती हैं कि फोन ख्ाराब हो गया है और फिर कई दिन तक बात नहीं करवाती। बाबूजी सब समझते हैं... पर आज के ज्ामाने के हिसाब से उनके दो सबसे बडे दुर्गुण हैं...। पहला सज्जनता और दूसरी ग्ारीबी..., जिसके चलते वे चाची के हाथों में फोन का तार देखकर भी हमेशा आंखें पोंछते हुए सिर झुकाकर चले जाते। बाबू जी की याद के साथ ही उनके झुर्रीदार चेहरे पर चश्मे के मोटे फ्रेम से पीछे झांकती दो उदास आंखों ने मुझे अंदर तक भिगो दिया और मेरा हाथ तुरंत कुर्ते की जेब में तेज्ाी से चला गया..., पर उंगलियों ने कुछ सिक्कों को पहचान कर जैसे मेरी गांव जाने की उम्मीद पर घडों पानी फेर दिया। मैंने बेचैनी से पूरा कमरा तलाशना शुरू कर दिया। कभी किसी पुस्तक के पन्नों के बीच में, कभी गद्दे के नीचे और कभी मां की तरह कहीं भी ओने-कोने रुपया या पैसा खोस देना मेरी पुरानी आदत थी...।

मैं हमेशा अपने पैसे छुपा देता हूं क्योंकि बाद में जब अचानक एक-दो या दस रुपये का नोट मिले तो ऐसा लगे कि मेरे हाथ कोई छिपा हुआ ख्ाज्ााना लग गया हो, पर आज मेरे इस ख्ाज्ााने में केवल तीस रुपये थे।

जब हलका सा सर घूमता महसूस हुआ तो याद आया, सुबह से चिंता के मारे कुछ खाया ही नहीं था। मैं हिसाब जोडऩे लगा..., छह रुपये की चाय और अगर समोसा भी खाता हूं तो पांच रुपये से क्या कम आएगा...। दो समोसे तो कम से कम इतने बडे शरीर को चाहिए ही। इसका मतलब दस रुपये और छह रुपये... कुल मिलाकर सोलह रुपये...। बस का किराया सत्रह रुपये मतलब टोटल हुए, 33 रुपये। मेरे पास सिर्फ तीस ही रुपये हैं। कोई बात नहीं, मैं एक समोसा खा लूंगा...। गांव पहुंचकर बाबू जी खाना बना देंगे।

मां के न रहने पर सालों से बाबू जी ने ही तो बाहर के साथ-साथ घर का चूल्हा भी संभाल रखा था। आंखों में मोतियाबिंद होने के कारण बेचारे सूखी और गीली लकडी में भेद न कर पाते और खांसते-खांसते बेदम हो जाते...। उन्हें पानी देता हुआ मैं उनसे पूछता, 'बाबूजी..., चाची कहती हैं, तुम्हारी आंख में तारा टिमटिमाता है। इस कारण तुम्हें सब धुंधला दिखता है....और उसका ऑपरेशन करवाने के बाद तुम्हें सब अच्छी तरह दिखने लगेगा। तुम क्यों नहीं करवा लेते ऑपरेशन?

बाबू जी कहते, 'तू ही तो है मेरी आंखों का तारा... और मुझे सीने से लगा लेते। मैं कुर्ते की आस्तीन से आंसू पोंछता हुआ उठ खडा हुआ। तभी राधा दरवाज्ो से अंदर आती दिखाई दी। साफ-सुथरे सफेद कपडे से ढकी थाली में घी से बघारी दाल और बैंगन के भरते की ख्ाुशबू मेरी भूख बढाने लगी थी। अंदर आकर वह बोली, 'खाना खा लो, फिर चले जाना...। मेरा दिल भर आया। खाना ख्ात्म करके मैं निकलने को हुआ तो तो वह मुझसे लिपट गई और फूट-फूट कर रोते हुए बोली, 'बाबू मेरी शादी की बात कर रहे हैं...। लडका सरकारी दफ्तर में क्लर्क है। मैंने उसे चुप कराते हुए कहा, 'इस लिफाफे को संभाल कर रखना...। जब बाबू शादी की बात करें, तब दिखा देना...। कह देना, एक दिन कलक्टर बनकर लौटूंगा। तुम्हें हमेशा-हमेशा के लिए अपने साथ ले जाने के लिए। मैं वापस आऊंगा तुम्हें लेने...। इस बार न तो वह शरमाई और न कुछ बोली...। बस सुबकते हुए उसने अपनी चुन्नी खोलकर उसमें से सौ के कुछ मुडे-तुडे नोट निकाले और पथराई आंखों से देखते हुए मेरी दायीं हथेली में पकडा दिए...। मुझे उसकी तरफ नज्ारें उठाकर देखने की भी हिम्मत नहीं हुई, ऐसा लगा, जैसे मेरी हथेली में सैकडों मन बोझ लदा हो। वहां से गांव पहुंचा तो बाबू जी के साथ पूरा गांव मेरे सिविल सर्विसेज्ा क्लियर करने की ख्ाुशी में जैसे पागल हो उठा था...। आज बाबू जी गांव के हीरो थे...। कुछ ही दिनों बाद मैं ट्रेनिंग करने चला गया...। कामकाज में दो साल कब बीत गए, मैं जान ही नहीं पाया...।

पहली ही फुर्सत में मैं राधा से किया अपना वादा निभाने के लिए उससे मिलने निकल पडा...। रास्ते से हीरा हलवाई की देसी घी में डूबी दो किलो जलेबी और एक टोकरी फल ख्ारीद कर मैंने ड्राइवर से कार की डिक्की में रखवा लिए। राधा को देखने की बात तो दूर, उसका घर देख कर ही मेरा दिल ज्ाोरो से धडकने लगा था। कार से उतरते समय मैंने काला चश्मा पहन लिया कि कहीं राधा मेरे आंसू न देख ले। ड्राइवर और मैंने सावधानी से फल की टोकरी उठाई और अंदर जाकर आंगन में रख दी...।

सामने के कमरे से बाबू जी निकलते दिखाई दिए...। दो वर्ष में ही वह बहुत ज्य़ादा बूढे और थके हुए लग रहे थे। मैंने जैसे ही झुककर उनके पैर छुए, वो भरभराकर रोते हुए मेरे गले से लग गए।

किसी अनहोनी की आशंका से मेरा दिल कांप उठा। मैंने बाबूजी को दिलासा देते हुए पूछा, 'क्या हुआ बाबूजी...? राधा नहीं दिखाई दे रही है।

'वो भाग गई..., कहते हुए निढाल से बाबूजी खटिया पर पसर गए। मेरी आंखों के आगे जैसे अंधेरा छा गया। मैं उनके पैरों के पास ज्ामीन पर ही बैठ गया...। बहुत देर तक हम दोनों चुपचाप बैठे रहे।

चश्मा उतारकर आस्तीन से आंसू पोंछते हुए वो सुबकते हुए बोले, 'मुझे क्या पता था कि वह तुझसे शादी करना चाहती है...। उसने कभी बताया ही नहीं। मैंने भी उसकी शादी तय कर दी...। बस तभी से गुमसुम रहने लगी थी...। दिन-रात एक अख्ाबार के टुकडे को देखती रहती थी...। एक दिन उसी पुज्र्ो को ले आई और बोली, वो आएगा मुझे लेने...। ये काग्ाज्ा आपको दिखाने को कह गया है। मैंने देखा तो उसमें तुम्हारा रोल नंबर था...। न तुम्हारा पता था न कोई फोन नंबर। दो साल हमने तुम्हारी राह देखी। फिर मुझे लगा कि तुम नहीं आओगे। मैं बीमार हूं। कुछ भी हो जाता तो मेरे बाद उसे कौन देखता? इसलिए एक अच्छा परिवार देख कर उसका रिश्ता तय कर दिया..., पर शादी के एक दिन पहले ही वह घर छोड कर चली गई...। कहते हुए बाबू जी का गला रुंध गया और उनकी आंखों से आंसू गिरने लगे।

मेरे हाथ से दोना गिर गया। मैंने थूक निगलते हुए पूछा, 'लेकिन कहां गई वह? किसी ने तो देखा होगा...आपने ढूंढने की कोशिश नहीं की उसे? पुलिस में रिपोर्ट करवाई? बाबूजी ने मुझ पर एक भरपूर चुभती हुई निगाह डाली और फिर सामने शून्य में देखने लगे। उन निगाहों ने मुझे अंदर तक झिंझोड दिया। मैं आत्मग्लानि से भर उठा। ग्ालती तो कहीं न कहीं मेरी ही थी। मैं बीच में उसे किसी भी तरह संदेश तो भिजवा सकता था। बाबूजी के पैर छूकर मैं जैसे ही उठने को हुआ, वह धीरे से बोले, 'ये जलेबी और फल वापस ले जाना बेटा। इसके आगे मुझसे कुछ सुना नहीं गया। मैं वापस आकर कार में बैठ गया।

मैं बाबूजी से अपनी मजबूरी बताना चाहता था, उनसे कहना चाहता था कि मैं एक पल को भी राधा को नहीं भूला था। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि मेरे कारण राधा की ज्िांदगी बर्बाद हो जाएगी।

राधा की तलाश में मैंने दिन-रात एक कर दिए, पर उसका पता नहीं चला। इसी बीच किसी दोस्त ने मनुहार से चाय पर बुलाया तो सोचा, थोडा मन बदल जाएगा। हम चाय के साथ गपशप कर रहे थे कि किचन से उसकी पत्नी की कर्कश आवाज्ा आई, जो नौकरानी को डांट रही थी, 'राधा, जल्दी हाथ चला और ये बर्तन कैसे धो रही है? काम नहीं हो पा रहा है तो छोड दे, दूसरी काम वाली ढूंढ लूंगी। राधा...यह नाम सुनते ही मेरे हाथ से चाय का प्याला छलक उठा। मित्र शर्मिंदा होते हुए समझा कि मैं उसकी पत्नी के व्यवहार से घबरा गया हूं, इसलिए धीरे से बोला, 'अरे, मेरी पत्नी भी क्या करे, ये लडकी काम कर ही नहीं पाती और सपने तो देख, घर छोडकर भागी है...किसी कलक्टर की तलाश में, जिसका न नाम-पता मालूम है और न घर।

मेरे रोएं खडे हो गए। मैं लगभग दौडता हुआ किचन के अंदर पहुंचा...। बर्तनों के ढेर के आगे राधा सिर झुकाए अपनी उसी धानी चुन्नी से आंखें रगडते हुए तेज्ाी से हाथ चला रही थी।

मंजरी शुक्ला


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