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अब मेरी बारी है

दहेज की मांग के कारण न जाने कितनी लड़कियों की बेमेल शादी होती है। कई बार माता-पिता ही बेटियों के साथ ग़्ालत कर बैठते हैं। क्या लड़की के लिए शादी इतनी ज़्ारूरी है कि किसी के भी साथ सात फेरे लेने को मजबूर होना पड़े? शादी के बाद पछतावे से

By Edited By: Published: Wed, 26 Aug 2015 02:49 PM (IST)Updated: Wed, 26 Aug 2015 02:49 PM (IST)
अब मेरी बारी है
दहेज की मांग के कारण न जाने कितनी लडकियों की बेमेल शादी होती है। कई बार माता-पिता ही बेटियों के साथ ग्ालत कर बैठते हैं। क्या लडकी के लिए शादी इतनी ज्ारूरी है कि किसी के भी साथ सात फेरे लेने को मजबूर होना पडे? शादी के बाद पछतावे से बेहतर है कि अपनी आंंखें खुली रखें और ख्ाुद को कमतर न समझें। आत्मनिर्भर बनें, तभी ज्िांदगी का महत्वपूर्ण फैसला लें।

घर को दुलहन की तरह सजाया गया था। फूलों की लडिय़ां व बंदनवार ख्ाूबसूरत लग रहे थे। चारों ओर रौनक ही रौनक। रिश्तेदारों के आने के बाद घर में हंसी-ठिठोली का जो दौर शुरू हुआ, उसमें पिता को शामिल देख अच्छा लगा। तीन-चार वर्षों से मेरे लिए उपयुक्त वर की तलाश में पिता परेशान रहते थे। कहीं मेरे सांवले होने केकारण बात नहीं बनती तो कहीं दहेज की अधिक मांग बात बिगाड देती। इन सबके बीच उनके चेहरे की हंसी लगभग ग्ाायब हो गई थी। मां कभी-कभार ताना देती- ठूंठ सी होती जा रही है, जाने क्या भाग्य में लिखा कर लाई है। मैं चुपचाप काम में लगी रहती, सुन कर अनसुना कर देती। मुझे पता था कि पिता की व्यथा से मां दुखी हो जाती है, वरना वह आरंभ से ही हम तीनों बहनों के लिए सबसे मज्ाबूत आधार रही है। हमें पढाने-लिखाने में मां का ही निर्णय ऊपर रहा है।

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ख्ौर, वह दिन भी आ गया, जब पिताजी ने गोरखपुर से लौट कर यह ख्ाुशख्ाबरी दी कि मेरी शादी पक्की हो गई है, वह भी बिना दहेज के। एक पैसा भी नहीं मांगा उन्होंने, कह रहे थे कि लडकी है, कोई वस्तु नहीं है कि सौदा किया जाए। दोनों छोटी बहनों ने दौड कर यह बात मुझे बता दी। हालांकि मां ने धीमे से बात उठाई, ऐसे कैसे तय कर ली उन्होंने विवाह की बात। न लडकी देखी और न कोई दान-दहेज की बात हुई, लडका तो ठीक-ठाक है न? पिता आदतन मां पर जैसे बरस ही पडे, 'तुम्हें तो बात का बतंगड बनाने की आदत है। क्या दुनिया में अच्छे लोग नहीं होते? लडका लेफ्टिनेंट है सेना में। जो समृद्ध होते हैं, उनके दिल भी बडे होते हैं। ईश्वर की कृपा समझो कि अब नन्ही और गुड्डो का भी अच्छी जगह रिश्ता हो जाएगा। मां चुप हो गईं। धीरे-धीरे विवाह की तैयारियां शुरू हो गईं। रिश्तेदारों के यहां निमंत्रण, बर्तन-कपडों की ख्ारीदारी जैसे काम तेज्ा हो गए। बीच-बीच में सुखदेव अंकल जिन्होंने इस विवाह में मध्यस्थ की भूमिका निभाई थी, आते रहते थे। मुझे समझ नहीं आता कि उनके आने पर मां-पिताजी हमें बाहर क्यों भेज देते थे। कभी ख्ारीदारी करने भेजते तो कभी कहीं और। एक दिन अपने शोध-कार्य के सिलसिले में मैं सुबह ही बाहर निकल गई। शाम तक लौटने की बात थी, मगर काम दोपहर में ही ख्ात्म हो गया तो लौट आई। बाहर का दरवाज्ाा भिडा था, इसलिए कॉलबेल बजाने की ज्ारूरत नहीं थी। पिताजी के कमरे के बाहर से जाते हुए मैं ठिठक गई। खिडकी से देखा, पिताजी बहुत सारे नोटों की गड्डियां एक संदूक में सजा रहे हैं। उनकी बातचीत से जो निष्कर्ष निकला, उससे कुछ आशंका हुई। 'अरे, लडकी तो पराया धन है। इतने दिनों तक पाल-पोस कर अपनी ज्िाम्मेदारी निभा दी। अब जहां जाएगी, अपने भाग्य से रहेगी। हमें बाकी दोनों बेटियों के भी हाथ पीले करने हैं.., मां जो हमेशा बेटियों के लिए सुरक्षा कवच बन कर खडी रहती थीं, आज पिता की हां में हां मिला रही थीं। बारात और शादी की तारीख्ा आते देर न लगी। मां ने तैयारी में कोई कसर नहीं छोडी थी।

नियत तिथि पर विवाह और फिर विदाई भी हो गई। विदा करते हुए मां ने कहा, 'बेटी अब ससुराल ही तुम्हारा घर है। वहां के माहौल में ख्ाुद को अच्छी तरह ढालना। कोई तुम पर उंगली न उठा सके। मैंने भी मां से लिपटते हुए कहा, 'आपकी बेटी हूं मां, आपके सम्मान पर आंच नहीं आने दूंगी। तब कहां पता था कि मां की इस सलाह में उनकी कितनी मजबूरियां छिपी थीं।

ससुराल में भव्य मकान, नौकर-चाकर और अन्य सुविधाएं थीं, मगर पति ही न था। रिसेप्शन वाले दिन नज्ारें चुरा कर विक्रांत को देखती तो उन्हें मोबाइल पर व्यस्त पाती। मुझे देखने या मुझसे बात करने में उन्हें रुचि ही न थी। एक हफ्ता यूं ही निकल गया। विक्रांत घर पर कम ही रहते थे। एक दिन सब्र का बांध टूट गया। रात में करीब दस बजे मैंने सास का दरवाज्ाा खटखटाया। लगता था, वह मेेरा इंतज्ाार कर रही थीं। मैंने आक्रोश से पूछा, 'क्या आप लोग मुझसे ख्ाुश नहीं हैं? फिर मेरे प्रति यह रूखा व्यवहार क्यों है? विक्रांत यहां क्यों नहीं रहते? सास ने व्यंग्य से कहा, 'ओह, तो तुम्हारे माता-पिता ने तुमसे असलियत छुपा ली? देखो, सच तो यह है कि मेरे बेटे ने अपने दादा जी की बात रखने के लिए तुमसे शादी की है। तुम्हें धन-दौलत और सुख-सुविधा की कोई कमी यहां न होगी, मगर विक्रांत से दूर ही रहना। मैं सकते में आ गई, 'क्यों? मैंने शादी की है, फिर ऐसा क्यों? जवाब मिला, 'इंतज्ाार करो, इस सवाल का उत्तर भी मिल जाएगा।

मैंने सास के पैर पकड लिए, मगर वह मुझसे पीछा छुडा कर कमरे से बाहर निकल गईं। मैंने विक्रांत को फोन घुमाया। लगता था, बस आज फैसला हो जाए। फोन किसी स्त्री ने उठाया, 'अच्छा, मन नहीं लग रहा होगा तुम्हारा, मगर विक्रांत से तो तुम बात नहीं कर सकती। वह अभी-अभी सोए हैं...।

'और मैं 15 दिन से उनके इंतज्ाार में हर रात जागते हुए बिता रही हूं। वैसे आप हैं कौन?

उधर से खनकती हुई आवाज्ा आई, 'मोना हूं, विक्रांत की पत्नी, कहते हुए फोन काट दिया गया। ग्ाुस्से और अपमान से भरी मैं सास के कमरे की ओर जाने लगी, मगर सास की प्रिय परिचारिका ने रास्ता रोक दिया, 'मांजी आराम कर रही हैं और किसी को भी उनसे मिलने की इजाज्ात नहीं है।

अगले दिन विक्रांत आए। मुझे ग्ाुस्से से भरा देख शांत होकर बोले, 'मुझसे नहीं, अपने पापा से पूछो, उन्हें सब कुछ पता है। फिर उन्होंने नंबर मिलाते हुए मुझे फोन पकडा दिया। मैंने रोते हुए पूछा, 'पापा विक्रांत ये क्या कह रहे हैं? कि आपको सब मालूम था, फिर भी आपने....? मेरी आवाज्ा थर्रा रही थी। उधर से पापा संभल-संभल कर बोल रहे थे, 'शांत हो जाओ बेटा, देखो वहां तुम्हें कोई कमी नहीं होगी। ज्ारा सोचो, तुम्हारी शादी की बात बन नहीं रही थी। छोटी बहनों की उम्र भी निकलती जा रही थी। क्या करता? तुम्हारे कारण बाकी को कैसे घर में बिठाता बेटा?

'हम बोझ हैं पापा? ऐसा ही था तो मुझे घर छोडऩे को कह देते। कम से कम अकेले अपनी ज्िांदगी का फैसला तो ले पाती।

'बात समझो और एडजस्ट करने की कोशिश करो। देखो, तुम कुछ भी ऐसा न करना कि मेरी बदनामी हो। मैं सहन न कर सकूंगा।

मैंने फोन काट दिया। कर्नल साहब मेरे चेहरे पर आते-जाते भाव देख रहे थे। अचानक बोले, 'तुम्हें यहां कोई कमी नहीं होगी। सब तुम्हें बहू मानते हैं। तुम चाहो तो नौकरी कर लो। समय कट जाएगा। मैं कोई सलाह नहीं सुनना चाहती थी। मैंने उनसे कहा कि मुझे अकेला छोड दें। उनके जाते ही मैंने दरवाज्ाा बंद कर लिया। मुझे रह-रह कर पुरानी बातें याद आने लगीं। क्यों सुखदेव अंकल के आते ही हमें बाहर भेज दिया जाता था और क्यों पिताजी नोटों की गड्डियां हमसे छिपा कर बक्से में रखा करते थे। यह सब पापा का मुंह बंद रखने के लिए किया गया था। मैंने फिर मां को फोन किया तो वहां से जवाब मिला, 'बेटा, इन बातों को ज्य़ादा न उछालो। घर की बात घर में ही रखो।

'कौन सा घर मां? न तो मेरा मायका है और न ससुराल। दहेज-रहित शादी के लिए आपने तो मेरी ही ज्िांदगी का सौदा कर दिया। ख्ौर आप चिंता न करें। मैं अपना दुख लेकर आपके दरवाज्ो पर कभी नहीं आऊंगी। मगर आपसे विनती है कि मेरी बहनों को धोखा मत देना..., कह कर मैंने फोन काट दिया।

रात भर में मुझे कुछ नया सोचना था। थोडी ही देर पहले ख्ाुद को असहाय-हताश समझ रही थी, मगर अब उस मोड पर खडी थी, जहां निर्णय लेना था। मेरे भीतर एक नया आत्मविश्वास आ गया था। अगली सुबह मैंने स्थानीय कॉलेज में आवेदन देने का फैसला लिया। सास ने साथ में ड्राइवर को भेज दिया। मौका मिलते ही मैंने कार के ड्राइवर से पूछा, 'चाचा, आप तो बहुत पुराने हो इस घर में, बता सकते हैं कि आख्िार मुझे क्यों मोहरा बनाया गया है?

ड्राइवर चाचा बोले, 'विक्रांत के दादा जी के पास काफी संपत्ति है, जो विक्रांत के नाम तभी हो सकती थी, जब वह उनके पसंद की स्वजातीय लडकी से शादी करता। कुछ दिन पहले उन्हें स्ट्रोक पडा है और उनकी हालत सुधर नहीं रही। अभी वे गांव में अपने भाई के घर पर हैं। उनकी इच्छानुसार जल्दबाज्ाी में तुमसे विक्रांत का विवाह करवाया गया है। जबकि विक्रांत पहले ही अपने बॉस की बेटी से शादी कर चुका है, जोकि दादा जी को कभी मंजूर न होगी। उन्हें उस शादी के बारे में बताया भी नहीं गया। ड्राइवर चाचा ने एक सांस में सारी बातें बता दीं। साथ में इशारा भी किया कि मुझे अपनेे पैरों पर खडे होकर अलग होने के बारे में सोचना चाहिए। जिस भी दिन दादा जी नहीं रहेंगे, मोना व विक्रांत इस घर में लौट आएंगे।

....आख्िार एक दिन कॉलेज से नियुक्ति-पत्र मिला। फिर वह दिन भी आया, जब परिणाम को देखने के लिए घर में सभी बेताब थे। दादा जी चल बसे। उनकी मृत्यु के एक दिन पहले ही सास और विक्रांत गांव चले गए थे। वहां से वे सारा कामकाज निपटा कर आने वाले थे। इस बीच मैंने भी चुपचाप एक बडा निर्णय ले डाला। एक फ्लैट किराये पर लिया और उसमें ज्ारूरत भर का सामान इक_ा करना शुरू किया, जिसकी ख्ाबर सिर्फ ड्राइवर को थी। हफ्ते भर बाद मेरी सास और विक्रांत वापस आए। फिर एक दिन विक्रांत कमरे में आए और मुझे एक लिफाफा पकडा कर बोले, 'तलाक के पेपर्स हैं, साइन कर देना। मैंने पेपर्स ले लिए और शांत स्वर से बोली, 'कल संडे है, कोर्ट बंद रहेगा। आप परसों पेपर्स ले लेना। मेरे जवाब से विक्रांत हडबडा गए। उन्हें लगा था कि मैं क्रोध में उन्हें बुरा-भला कहूंगी, इसलिए साथ में मां को लाए थे, जो दरवाज्ो पर ही खडी थीं।

सोमवार सुबह ही विक्रांत काग्ाज्ा लेने आए। ड्राइंगरूम में बैठे हुए ही उन्होंने कहलवाया कि तलाक के पेपर्स दे दूं। पेपर्स के साथ ही एक बडे बैग को लिए मैं नीचे आई और बोली, 'आपको तलाक के काग्ाज्ा चाहिए थे न, लीजिए। उन्होंने उसे खोल कर पढा और वाक्यों में परिवर्तन देख कर बोले, 'मगर ये तो वो पेपर्स नहीं हैं, जो मैंने दिए। मैंने उनके लिफाफे को बैग से निकालते हुए कहा, 'आपके पेपर्स ये हैं। यह कहते हुए मैंने उस काग्ाज्ा के टुकडे-टुकडे कर दिए। सास मुझ पर झपट पडीं, 'क्या कर रही है नालायक? मैंने उन्हें एक हाथ से रोका, 'नालायक मैं नहीं, आप और आपके ये सुपुत्र हैं, जिन्होंने मेरे साथ-साथ अपने दादा जी को भी अंधेरे में रखा। सासू मां, तलाक ये मुझे नहीं देंगे, बल्कि मैं इन्हें दूंगी। फिर विक्रांत से मुख्ाातिब होकर बोली, 'कोर्ट में आवारागर्दी और अय्याशी का इल्ज्ााम लगाया जाएगा आप पर। पहली पत्नी के होते हुए दूसरी शादी कैसे कर ली आपने? विक्रांत क्रोधित हो गए और मेरी बांह पकड कर चिल्लाए, 'पागल हो गई हो क्या? तुम इस घर की बहू हो। मैंने भी चिल्ला कर कहा, 'किस बहू की बात कर रहे हो आप? कितने दिन मेरे साथ बिताए हैं आपने? यह सुनते ही सास बोलीं, 'तुम्हारे पिता को इसी के लिए तो मोटी रकम चुकाई थी हमने, बदले में तुम्हें वही करना होगा जो हम चाहते हैं। मैंने विरोध करते हुए कहा, 'पिताजी को उनकी तीन बेटियों की चिंताओं को हल्का करने का वास्ता देकर आपने जो सौदा किया, उसका पाई-पाई तो मैंने अपनी ख्ाुशियां बलिदान करके चुका दिया है। अब आपको वही करना पडेगा, जो मैं चाहूंगी और जो कोर्ट का आदेश होगा। मैंने बैग उठाया और यह कह कर बाहर निकल गई, 'यह घर आपको मुबारक हो। मैं अपनी ज्िांदगी अपने हिसाब से जीने जा रही हूं।

कविता विकास


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