Move to Jagran APP

उसका सुख

कहते हैं, स्त्री पानी की तरह होती है। जहां भी जाती है, वहीं की होकर रह जाती है। गुजरे जमान े का हर सुख-दुख उससे दूर छिटक जाता है, कुछ भी मन में शेष नहीं रहता। प्रेम के चाहे-अनचाहे पल भी वर्षो बाद दिल में बस एक याद बन कर रह जाते हैं, जिनसे कभी-कभी धूल हटाती है और फिर वैसे ही तहा कर मन की अलमारी में बंद कर देती है..।

By Edited By: Published: Wed, 01 Jan 2014 12:53 AM (IST)Updated: Wed, 01 Jan 2014 12:53 AM (IST)
उसका सुख

बस की प्रतीक्षा में काफी समय गुजर  गया। धीरे-धीरे भीड जमा होती गई और अब तो इतनी भीड हो गई कि दो बसें भी एक साथ आ जाएं तो बात न बने। कुछ देर बाद ही जंगल के बीच तीखे मोड और पुलियों को लांघती बस की आवाज कानों में पडने लगी।

loksabha election banner

वह संगीता से बोला, तुम्हारा घर तो नहीं, फिर यह इंतजार किसलिए?

ऐसी कोई बात नहीं, वह बोली, यह हम लोगों के दिन-रात का रास्ता है। याद है.. कभी कूद-फांद करते इसी रास्ते हम स्कूल जाया करते थे, लेकिन अब अकेले जाने को मन नहीं करता। हां, वे भी क्या दिन थे, बराबर याद आते हैं और अब घूम-घूम कर उन्हीं पुरानी यादों को ताजा  कर लेता हूं। सोचा था, आज इसी जंगल के रास्ते पैदल उतर जाऊं, लेकिन अब तुम मिल गई तो..

तो ठीक है, मैं भी आपके साथ चलूंगी।

जंगल के बीच कम चौडी पगडंडी पर उसने संगीता को आगे कर दिया। भूला-बिसरा सब कुछ याद आ गया। कहीं जम कर बातें हों, सोच कर उसने एक किनारे हरी घास पर बैठने का प्रस्ताव रखा तो संगीता बोली, अब बैठना ठीक नहीं, घर चल कर ही बैठते हैं।

तुम मुझे अपने घर ले जाओगी?

हां, मां ने ही नया घर बनवा कर मुझे दिया है।

देखने नहीं चलोगे?

तुम ले जा रही हो तो चलूंगा, लेकिन ये तो बताओ कौन-कौन हैं तुम्हारे साथ?

मैं और मेरे दो बच्चे। फिर कुछ देर बाद संगीता ने पूछा, आपके कितने बच्चे हैं?

मेरे भी दो बच्चे हैं।

इसका मतलब हमारी शादियां लगभग एक ही समय पर हुई हैं।

शायद.., खुशी जाहिर  करते हुए वह संगीता से बोला, तो आज मुझे तुम अपना नया घर दिखाने ले जा रही हो।

हां, एक बार आप भी मुझे अपना घर दिखाने ले गए थे, याद है कि नहीं? कह कर संगीता ने जैसे उसे दूर धकेल दिया हो। ओह..तो यह अभी तक उस बात को भूली नहीं है। भूलने वाली बात हो तब न! ...लेकिन वह तो बस एक उम्र थी, जब सोच-समझ की जगह एक तूफान-सा दिल-दिमाग्ा पर हावी था। वह संगीता को अपना घर दिखाने ले गया था और उसके बाद..? उसे अपने प्रति शर्म महसूस हुई। अनायास एक अपराध-बोध ने उसे घेर लिया। संगीता के प्रति उसके मन में कई एहसास जन्म लेने लगे थे उस दिन..।

..काफी देर वह चुप रह गया।

पगडंडी पर उतरने की एक रफ्तार बनी है। वह समझ नहीं पा रहा था कि कौन-सी बात संगीता के मन में घर किए है। आगे-आगे उसका चलना अच्छा लग रहा था। वह जरा  भी बदली नहीं है। बदला है तो इतना कि पहले से ज्यादा  स्वस्थ और आकर्षक.. बात करने में भी संकोच नहीं है उसे। लेकिन पुरानी याद को ताजा कर संगीता ने उसे निरुत्तर कर दिया था। उसे सालों पीछे धकेल दिया है। चुप्पी का माहौल वह ख्ाुद भी बर्दाश्त न कर सकी। बोली, उस दिन आप अपनी इच्छा से मुझे घर ले गए थे और आज मैं अपनी इच्छा से आपको ले जा रही हूं, कह कर संगीता ने जैसे डूबते हुए को सहारा दिया। वह कुछ भी नहीं भूली। उसे लगा कि संगीता के मन में अभी कुछ बाकी रह गया है, जिससे निजात  पाने का अच्छा मौका उसे मिला है। धीरे-धीरे बातों का सिलसिला फिर शुरू हुआ और बातों-बातों में कब वे रास्ता तय कर गए, पता ही नहीं चला।

उन्हें घर आया देख आंगन में खेलते दोनों बच्चे दौड आए और मां से लिपट गए। संगीता ने झुक कर उन्हें चूम लिया, फिर उनके चेहरों पर हाथ फेरती रह गई। थोडी देर के लिए मानो सब कुछ भूल गई वह। फिर जल्दी से कपडे बदल डाले और देखते-देखते चाय तैयार करके वह बरामदे में ले आई। आंगन में दोनों बच्चे अपने खेल में मगन थे। बच्चों का खेल.. पास में जो मिल गया, उसी से मन लगा कर खेल लेते हैं।

चाय खत्म  होने पर संगीता बोली, अब आपको थोडी देर अकेले बैठना होगा। मैं खाना बनाती हूं, खाना खाकर जाइए। इतना कह कर वह किचन में चली गई। बरामदे में बैठा वह सोचता रहा, क्या वह महज उसे खाना खिलाने इतनी दूर ले आई है या फिर..। तभी उसकी नजर आंगन में खेलते बच्चों पर पडी। कितने प्यारे बच्चे हैं, ठीक मेरे अपने बच्चों जैसे। संगीता भाग्यशाली है। दो फूल जैसे प्यारे बच्चे.. पति बैंक में यही कार्यरत थे। अब पास के ही शहर में ट्रांस्फर  हुआ है तो हफ्ते में एक बार आ जाते हैं..। किचन में जाकर संगीता ने काम शुरू कर दिया था। बीच में बाहर आकर बोली, यहां अकेले बैठने से अच्छा है कि अंदर चले आइए, साथ-साथ बातें भी हो जाएंगी। बेहिचक बात कर रही है संगीता। किसी दुराव की बात उसके मन में नहीं है। आज भी वही अपनत्व और लगाव देख कर वह उठ खडा हुआ और संगीता के साथ किचन में चला गया। किचन का आधा काम संगीता ने पूरा कर लिया था। अंडे उबल चुके थे और वह आलू छीलने वाली थी। नमक, मिर्च-मसाले सभी सामने रख संगीता ने फ्राइपैन  में घी निकाला और चूल्हे पर रख दिया। उसे मदद पहुंचाने के लिए वह बोला, कहो तो आलू मैं छील दूं?

क्यों नहीं..

संगीता के हां कहते ही उसने प्लेट अपने सामने रख ली, एक-एक आलू छीलने लगा। इस बीच संगीता ने परात में आटा छान कर उसे गूंथना  शुरू कर दिया और उससे बोली, थोडा जल्दी कीजिए, पहले आलू फ्राइ  होगा। लेकिन तभी उसकी नजर  छिले हुए आलुओं  पर पडी, जहां जरूरत  से ज्यादा  मोटे छिलके उतारे जा रहे थे और इस प्रयास में आलू न के बराबर बच गया था। आलू की यह हालत देख कर उसे हंसी आ गई।

वह कुछ कहना चाहता था कि संगीता बीच में बोल पडी, कोई बात नहीं, जैसे भी बन पडे, छील कर रख दें।

उसने महसूस किया कि पुरुष की कमजोरी  को औरत इसी तरह हंस कर झेल जाती है। यदि वह हंसने की स्थिति में नहीं हो तो नजरअंदाज  कर जाना उसकी मजबूरी है। उसने एक बार फिर स्वयं को हारा हुआ महसूस किया।

इन्हें धो दूं? आलू छीलने के बाद उसने पूछा। अब रहने दीजिए, मैं सब ठीक कर लूंगी। लेकिन इतने सारे काम तुम एक साथ कैसे कर जाती हो?

संगीता ने एक नजर भर कर उसे देखा, फिर बोली, तो आप मानते हैं कि औरतों को बहुत सारे काम एक साथ करने पडते हैं, यह भी कि जो वह नहीं चाहती, वह भी उससे करवा लिया जाता है?

हां, क्यों नहीं। यह तो मैं पहले से महसूस करता आ रहा हूं कि औरत न होती तो दुनिया किसी काम की नहीं रह जाती।

उसकी बात सुन कर संतोष की एक झलक संगीता के चेहरे पर उभर आई, जैसे कि इसी स्वीकृति की अपेक्षा उसके मन में रही हो।

घी के गर्म होने की खुशबू  किचन में फैल गई। संगीता ने आलू धोकर फ्राइपैन  में डाल दिए। लेकिन आटा तो गीला हो गया। जाने किन खयालों  में डूबी थी कि पता ही नहीं चला कि पानी ज्यादा  चला गया। अब बातों का सिलसिला लगभग ठंडा पड गया। वह जितनी फुर्ती से खाना बनाने में जुटी थी, उतनी ही शिथिलता काम में आ गई। इस हालत में शायद रात तक खाना तैयार न हो, सोच कर उसने बाहर जाकर बैठने की बात की तो संगीता बोली, बाहर अकेले बैठना आपको अच्छा लगेगा?

अच्छा तो नहीं लगेगा, पर मेरे यहां बैठने से तुम्हें काम में कठिनाई हो रही है।

कोई कठिनाई नहीं, कह कर वह फिर से चुस्त हो गई। आटा तैयार हुआ तो अचार, पापड, नमक-मिर्च सब एक जगह रख कर बोली, आपको तो पराठे पसंद हैं न?

हां, वही बनाओ। जैसे ही एक पराठा बना, तश्तरी में तरकारी निकाल कर उसने आगे रख दिया। तश्तरी के ऊपर तैरते घी का रंग देख कर उसे लगा कि उस डावांडोल  स्थिति में भी तरकारी लाजवाब बनी है। मगर पहला कौर मुंह में डालते ही लगा, सब्जी मीठी सी लग रही है। फिर भी वह चुपचाप खाता गया। साथ में खट्टा-मीठा अचार और पापड..।

क्या अच्छा, क्या बुरा.. इसका कोई जिक्र  नहीं। संगीता के चेहरे पर संतोष की गहरी परत उभर आई। वह गरम पराठे उतार-उतार कर उसकी प्लेट में रखती गई। जैसे कोई मां अपने बच्चे को भरपेट खिलाते हुए तृप्ति का अनुभव करती है, वही तृप्ति संगीता के चेहरे पर थी, मानो उसका सुख संतोष की सीमा लांघ कर असीमित बन गया हो।

सुख-दुख दोनों आदमी को बेचैन कर जाते हैं। उसे लगा कि सबका सुख एक जैसा नहीं है। सुख पाने के सबके अपने तरीके हैं। याद आया, जब वह संगीता को अपने घर ले गया था तो उसने संगीता के मन-शरीर में अपना सुख तलाशना चाहा था..। आज संगीता उसे अपने घर लाई है। सोच कर उसका दिल धडकने लगा। जाने अभी उसके मन में क्या चल रहा होगा? क्या गुजरे वक्त की कोई याद बाकी होगी? यही जानने के लिहाज से खाने के बाद जब उसने चलने की बात की तो संगीता ने जरा भी रुकने का आग्रह नहीं किया। बोली, हां, अब तो अंधेरा घिर आया है। आपका यहां से जल्दी निकलना ही ठीक होगा। रात गहराने से पहले आप अपने घर पहुंच जाएं, यही अच्छा होगा..।

बल्लभ डोभाल


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.