कविता/पुस्तक समीक्षा
परिचय : मनोविज्ञान में एम.ए. और पत्रकारिता में डिग्री के बाद करीब डेढ़ दशक से प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में योगदान। संप्रति : रांची (झारखंड) में कार्यरत।
अब तो बख्शो
हे पुरुष
महापुरुष
परमपिता
अब तो बख्शो
मत कहो मुझे
अच्छी, संस्कारी, सुशील
कि दुखने लगे हैं जकडे पंख
लुभाता है
आसमान का न्यौता
बख्शो हे परमपिता
मत बनाओ देवी
आंगन की तुलसी
कि जडता नहीं
गतिशीलता की चाह है
तय है मंज्िाल
सामने लंबी राह है
शाम ढलते ही
लौट आऊं घर
यह अब हो नहीं सकता।
बख्शो हे परमपिता।
अजन्मी मां
हो रही तब्दील पत्थर में
जिसमें न स्पंदन है
और न सृजन
चिडियों की चहचहाहट सी
किलकारी भी
पडोस के पेडों तक सीमित
सूना मेरा आंगन
चरम पर है फूट कर बहने की चाहत
सहूं असीम पीडा का सुख
गूंजे उसका रुदन
कोंपल फूटने का ख्वाब लिए
झुकती हैं आंखें
वहां फिर न सृजन-न स्पंदन
बस बहती हैं आंखें
बिना सींचे कोई फसल
भटकता है पानी निरर्थक-निरुद्देश्य
और फिर पानी
आग में हो जाता है तब्दील
बचता है बस राख और धुआं
यहां कहां सृजन-कैसा स्पंदन!
चाहतों की दो
समानांतर नदियां
कूडों के ढेर में मिलती है
नन्ही सी जान
नमक चटा कर आज भी
लिए जाते हैं
अनचाही बेटियों के प्राण
कोख में ही
जो ख्ात्म नहीं कर दिए जाते
वे बच्चे
रेल, सडक और चौराहों पर
चिथडों में लिपटे मिलते हैं।
मां के दूध के लिए
अनाथालयों में
रात-दिन रुदन गंूजते हैं
...और मंदिरों में बजती हैं घंटियां
दरगाहों में बांधे जाते हैं
मन्नत के धागे
एक औलाद की चाहत में
शरीर परखनली बन जाता है
भटकते हैं कितने ही अभागे।
साथ तुम्हारा
बहुत पानी है तुम्हारे बिना
और बहुत प्यास भी
बहुत निराशा है तुम्हारे बिना
और बहुत आस भी
आश्वासन और असमंजस
दोनों तुम्हारे बिना
और तुम्हारे साथ भी।
चेतना झा