Move to Jagran APP

फोबिया

अपने दादा जी के बुज़्ाुर्ग मित्रों के सान्निध्य में रहते हुए नन्हा सा बच्चा समय से पहले परिपक्वता की तरफ बढ़ रहा था। यह देख कर सबको चिंता होने लगी। पोते की हालत देख दादा ने अपनी मित्र मंडली की बातों का रुख़्ा बदलने की कोशिश की, ताकि बच्चे को

By Edited By: Published: Fri, 23 Oct 2015 03:28 PM (IST)Updated: Fri, 23 Oct 2015 03:28 PM (IST)
फोबिया

अपने दादा जी के बुज्ाुर्ग मित्रों के सान्निध्य में रहते हुए नन्हा सा बच्चा समय से पहले परिपक्वता की तरफ बढ रहा था। यह देख कर सबको चिंता होने लगी। पोते की हालत देख दादा ने अपनी मित्र मंडली की बातों का रुख्ा बदलने की कोशिश की, ताकि बच्चे को फोबिया से बाहर निकाला जा सके। लेकिन अंत में जो हुआ, उससे तो दादा जी भी निरुत्तर रह गए।

loksabha election banner

राहुल को ऑफिस रवाना कर वृंदा ने यश को संभाला। वह भी स्कूल के लिए तैयार हो चुका था।

'लो ये टिफिन... और बॉटल संभालो। वृंदा ने टिफिन और बॉटल रखी तो दूध पीते यश के हाथ थम गए और वह एकटक

टिफिन और बॉटल को देखने लगा।

'क्या हुआ? वृंदा ने उसे हिलाया।

'मम्मा, थोडे टाइम बाद क्या हमें स्कूल में छोटा ऑक्सीजन सिलिंडर भी लेकर जाना

पडेगा?

'क्या? क्यों? किसने कहा तुमसे ऐसा? वृंदा उसके इस अप्रत्याशित सवाल पर हैरान थी।

'मम्मा, वो पॉल्यूशन बढ रहा है न तो.....

'हा हा हा.....गुड जोक बेटा! पर अब जल्दी निकल लो, स्कूल बस निकल जाएगी। मुझे भी तो ऑफिस के लिए देर हो रही है।

वृंदा ने बीच में ही उसकी बात काटी और प्यार से उसके गाल थपथपा दिए। वृंदा उसे दूर तक जाते देखती रही। आज उसने बाय भी नहीं किया। जाते वक्त दादा से भी नहीं मिला। हूं...भूल गया लगता है, बच्चा है। उफ आठ बज गए....अभी तो सारा काम पडा है। वृंदा फटाफट काम निबटाने लगी। कुछ ही देर बाद वह तैयार होकर निकल गई थी। बेटा, बहू, पोता सभी निकल गए तो हरदयाल जी ने बाई से अपना दूध-नाश्ता लिया और आराम से अख्ाबार पढऩे बैठ गए।

'कैसी तूफान मेल सी ज्िांदगी हो गई है। हमारे ज्ामाने की तरह बैठ कर बोलने,

हंसने, बतियाने, एक-दूसरे के दुख-सुख साझा करने का तो इनके पास वक्त भी

नहीं है। मशीन की तरह हाथ-पांव चलते हैं इनके। उसमें भी एक हाथ तो हर वक्त

मोबाइल पर रहता है। शुक्र है, पोता यश अभी इस संक्रामक रोग से दूर है। मेरा तो उसी की वजह से मन लगा रहता है।

राहुल और वृंदा भी यश को अपने दादा के भरोसे छोड कर निश्चिंत रहते थे। शाम को वह दादा के साथ पार्क चला जाता था। कभी बच्चों के साथ खेलता तो कभी दादा के साथ सैर करके लौट आता। दोनों को शाम का बेसब्री से इंतज्ाार रहता था। हरदयाल जी सैर के बाद पार्क की बेंचों पर अपने हमउम्र दोस्तों के साथ अड्डा जमा लेते थे। उसके बाद 'हमारे ज्ामाने की... बातों का जो दौर चलता तो अंधेरा घिर आने या किसी का बुलावा आने पर ही थमता। अकसर यश दोस्तों के साथ खेलकर दादा के पास आ बैठता था। साथ लाए बिस्किट कुतरते हुए वह उन बुज्ाुर्गों की बातें सुनता रहता। उनके ज्ामाने की बातें नौ वर्षीय यश का मनोरंजन करतीं। ऑक्सीजन सिलिंडर ले जाने की बात भी उसने बुज्ाुर्गों की इसी गोष्ठी में सुनी थी। दरअसल हरदयाल जी और उनके दोस्त पर्यावरण प्रदूषण को लेकर चिंता ज्ााहिर कर रहे थे। किसी को अपने पिंड के खुले-खुले हरे-भरे खेत याद आ रहे थे तो किसी को गांव की कल-कल बहती नदी। हरदयाल जी भी प्रकृति की सुरम्य वादी में बसे पिंड को याद कर भावविभोर हो उठे थे। ताज्ो दही-मक्खन और लस्सी के साथ जितनी ताज्ाी हवा का सेवन उनकी पीढी ने किया था, आज की पीढी तो इसकी कल्पना भी नहीं कर सकती। इसी झोंक में उनके मुंह से निकल गया था कि जल्दी ही वह दिन देखने को मिलेगा, जब स्कूल जाते बच्चे से मां पूछेगी, 'बेटे, टिफिन-बॉटल के साथ ऑक्सीजन सिलिंडर भी रख लिया न?

ज्ाोर का ठहाका गूंजा था उनकी बात पर। इस घटना को ज्य़ादा दिन नहीं गुज्ारे थे। उस दिन सभा जल्दी विसर्जित हुई तो यश ने दादा जी से कारण पूछा। इस पर दादा बोले, 'अरे, तुम्हारे किशन दादा बीमार चल रहे हैं। 3-4 दिनों से पार्क भी नहीं आए हैं तो सोच रहे हैं कि दो मिनट उनका हाल-चाल लेते चलें।

किशन दादा की सेहत सचमुच ख्ाराब थी। पलंग के पास ही ऑक्सीजन सिलिंडर रखा था। नली से उन्हें ऑक्सीजन चढाई जा रही थी। 5-7 मिनट रुक कर सब घर लौट गए थे। उस समय तक हरदयाल जी को गुमान भी नहीं था कि उनके पोते ने उनके मज्ााक को इतनी गंभीरता से ले लिया है। वह तो एक छुट्टी के दिन उन्होंने बहू का मूड उखडा देखा तो कारण पूछ बैठे थे।

'इस लडके को न जाने क्या हो गया है बाबूजी? अच्छी-भली मैं दिन में ए.सी. चलाकर गहरी नींद में सोई थी कि गर्म हवा के थपेडों से आंख खुल गई। पता चला, यश की कारस्तानी है। उसने खिडकी खोल दी थी। कहने लगा, 'लाइट चली जाती और आपका दम घुट जाता तो? हमारे घर में तो ऑक्सीजन सिलिंडर भी नहीं है। कच्ची नींद से उठने के कारण सिरदर्द कर रहा है।

हरदयाल जी कुछ सोचने लगे थे, 'पहले भी उसने कभी ऐसी कोई बात कही थी?

वृंदा सोचने लगी..., 'हां याद आया, एक बार स्कूल जाते वक्त मज्ााक कह रहा था कि थोडे दिन में आपको टिफिन व बॉटल के साथ मुझे ऑक्सीजन सिलिंडर देना होगा।

हरदयाल जी के माथे की शिकन गहरी हो गई। बात उनकी समझ में आई और बहू को सब कुछ बताया तो वृंदा चिंतित हो उठी।

'तुम चिंता मत करो। मेरी ग्ालती से वह इस फोबिया का शिकार हुआ है। अब यह ग्ालती मैं ही ठीक करूंगा। मुझे सबक मिल गया है कि बच्चों की उपस्थिति में सोच-समझ कर बोलना चाहिए। न जाने कौन सी बात उनके दिल-दिमाग्ा पर असर कर जाए? बाबूजी की बातों ने वृंदा को आश्वस्त कर दिया था।

शाम को यश दादा दी के साथ पार्क जाने के लिए तैयार था। हरदयाल जी ने ग्ाौर किया कि आजकल उसमें खेलने का उत्साह नहीं रह गया था। थोडी देर खेल कर ही वह उनसे आ चिपकता था। कहता, सांस भर रही है। यह सब याद करके उनका मन अपराध-बोध से भर उठा। पार्क में पहुंचते ही सभी बुज्ाुर्ग खुशी-ख्ाुशी हाथ मिलाने लगे।

'हम तो शाम होने का इसलिए बेसब्री से इंतज्ाार करते हैं कि घर से बाहर निकलेंगे तो ताज्ाी हवा में सांस लेंगे। यारों से गपशप करेंगे, लेकिन हमारे बच्चे इंतज्ाार करते हैं कि कब शाम हो, घर लौटें और सुबह तक के लिए अपने-अपने दडबों में बंद हो जाएं...., महेश जी ने अपनी बात रखी तो सतपाल जी ने भी सहमति में गर्दन हिलाई।

'दडबे में घुसने के बाद तो उन्हें मुंह खोलने में भी तकलीफ होती है। एक से दूसरे कमरे में बातचीत भी व्हॉट्सऐप पर चलती है। मैं ये तौर-तरीके देखकर हैरान होता हूं। इनका दम भी नहीं घुटता। बंद कमरों में जाने कैसे रहते हैं? प्रदीप जी बोले।

'अरे, आजकल तो सब कुछ स्काइप हो गया है, मनोहर जी ने ज्ञान उडेला।

'पर स्काइप में झप्पी वाला आनंद तो नहीं है। साथ बैठना, बात-बात में ताली देना, धौल जमाना... उस सबका मज्ाा अलग है।

'भई मैं तो कहता हूं कि मॉडर्न टेक्नोलॉजी ने हमें भले ही पास ला दिया हो, लेकिन दिलों को दूर कर दिया है..., प्यारेलाल जी ने अलग अंदाज्ा में अपनी बात रखी तो सभी उनकी हां में हां मिलाने लगे। हरदयाल जी का ध्यान आज दोस्तों की बातों पर कम, पोते पर ज्य़ादा था। उसे अपनी ओर आता देख कर वे चौकन्ने होकर बोले, 'बात तो आप ठीक कह रहे हैं पर और चारा क्या है? हाथ पर हाथ धरकर बैठ जाएं? ज्ारा सोचें, इंटरनेट, स्काइप या व्हॉट्सऐप न होता तो हम सात समंदर पार बैठे बच्चों, दोस्तों, रिश्तेदारों के बोल सुनने, शक्ल देखने को तरस जाते।

'हां, यह तो है, मनोहर जी बोले।

'आगे बढेंगे तो बाधाएं तो आएंगी ही। फिर शुरू होगा समाधान खोजने का सिलसिला। जैसे औद्योगीकरण और तकनीकी प्रगति से प्रदूषण बढा तो जगह-जगह प्रदूषकमापी लगा कर, वृक्षारोपण कर, सीएनजी ऑटो चलाकर उसकी रोकथाम के प्रयास भी तो किए जा रहे हैं। आगे बढऩा प्रकृति का नियम है। पूरी ज्िांदगी आदि-मानव की तरह जंगल में पत्ते लपेटकर तो नहीं रहा जा सकता न?

'हंू, बात में दम है। सतपाल जी ने भी हां में हां मिलाई तो हरदयाल जी उत्साहित हो उठे। उन्होंने कनखियों से यश को देखा, जो ग्ाौर से उन्हें सुन रहा था। 'अब कल की ही बात ले लो। राहुल ने पूरी रात बैठकर एक रिपोर्ट तैयार की, सुबह उसका पिं्रट लेकर ऑफिस निकलने ही वाला था कि ज्ारूरी कॉल आ गई। मोबाइल पर बात करते-करते वह निकल गया। ऑफिस का आधे से ज्य़ादा रास्ता पार करने के बाद उसे याद आया कि वह प्रिंट तो लाया ही नहीं। बैग तलाशने के बाद उसने घर फोन किया। हमने ढूंढना शुरू किया तो शू रैक के ऊपर पिं्रट रखा मिला। मैं तो परेशान हो उठा। अब क्या इतनी दूर से वह प्रिंट वापस लेने आएगा? पर वृंदा ने तुरंत मोबाइल से उसका फोटो खींचकर राहुल को व्हॉट्सऐप पर भेज दिया। पलक झपकते ही रिपोर्ट राहुल के पास पहुंच गई।

दोस्त हैरानी सेे हरदयाल जी को सुन रहे थे।

'और क्या? हमारे ज्ामाने में यह सब कहां संभव था? महेश जी ने अपना मत रखा।

सारे बुज्ाुर्ग सोचने की मुद्रा में आ गए। वापसी में यश एक पत्थर को ठोकर मारता मस्ती से चल रहा था। हरदयाल जी ने नोट किया कि उसकी बेपरवाही फिर से लौट रही है तो उन्होंने राहत की सांस ली। एकाएक यश बोला, 'दादा जी, मैं सोच रहा हूं कि पापा के साथ चल कर आपके लिए एक स्मार्ट फोन ले आऊं।

'लेकिन मुझे चलाना कहां आता है?

'मैं सिखा दूंगा न। तबीयत ख्ाराब होने पर जब आप घर से नहीं निकल पाते तो दोस्तों से व्हॉट्सऐप पर बातें कर सकते हैं..।

जवाब न आता देख यश ने नज्ारें ऊपर उठाईं तो पाया कि दादा जी की खोई-खोई

आंखों में चमक सी उभर रही थी। शायद वे खुली आंखों से सपना देख रहे थे। यश ने राहत की सांस ली कि चलो इसी बहाने उसे भी स्मार्ट फोन पर गेम खेलने को मिलेगा। मम्मी तो उसे फोन दिलाने से रहीं।

पार्क की अगली मीटिंग विशेष थी। सतपाल जी का जन्मदिन था और वे सबके लिए गाजर की पिन्नी बनवा कर लाए थे। 'आजकल के केक, कुकीज्ा तो इन पिन्नियों के आगे पानी भरते हैं..., कहते हुए मनोहर जी ने कटोरदान से एक और पिन्नी उठा ली।

'और क्या! भई पारंपरिक व्यंजन और वे भी घर के बने हुए....इनकी तो बात ही अलग है। मुझे भी गांव की घाणी का गुड और सरसों का साग याद आ रहा है.., हरदयाल जी पिंड की यादों में खो गए थे।

'तीज-त्योहार तो आज भी घरों में मनाए जाते हैं, पर बाज्ाार की चीज्ाों में वह स्वाद और अपनापन कहां? महेश जी ने नाक चढाई।

'बहुएं भी क्या-क्या करें? घर-बाहर की दोहरी ज्िाम्मेदारी निभाते-निभाते थक जाती हैं। बनाएं भी तो किसके लिए? परिवार में गिनती के लोग हैं, उस पर भी किसी को हाई बीपी है तो किसी को डायबिटीज्ा...। लाइफस्टाइल ऐसी है कि न कुछ खा सकते हैं और न पचा सकते हैं। वीकेंड पर मॉल चले जाते हैं, ताकि जिसका जो मन हो, खा ले। घूमना भी हो जाता है और पेट-पूजा भी। शुरू में तो अजीब लगता था, लेकिन अब तो मैं ख्ाुद ही वीकेंड का इंतज्ाार करता हूं। अब तो घर बैठे खाना भी ऑर्डर करा सकते हैं। हमारे ज्ामाने में कहां थीं इतनी सहूलियतें! हरदयाल जी ने बात ख्ात्म ही की थी कि सुखेश जी बोल पडे, 'अरे मॉल से याद आया। मेरा बेटा बता रहा था कि इस पार्क की जगह मॉल बनने जा रहा है। उसके ऑिफस में अज्र्ाी आई थी।

'क्या? फिर हम कहां मिलेंगे? बच्चे कहां खेलेंगे? यही तो एक खुली जगह है....। सबके चेहरे लटक गए थे।

'हमें इतनी जल्दी हार नहीं माननी चाहिए। हम सोसाइटी के कुछ प्रतिष्ठित लोगों को लेकर आपके बेटे के ऑफिस चलते हैं। वहां उच्च अधिकारियों से संपर्क करके अपनी बात रखते हैं। मुझे उम्मीद है कि हमारी सुनवाई होगी और पार्क सही-सलामत रहेगा। पार्क नहीं भी रहा तो भी निराश होने की ज्ारूरत नहीं है। सोसाइटी के क्लब में मिलेंगे। वैसे एक और आइडिया है। अपने बच्चों से बात करके सोसाइटी टैरेस पर बडा सा गार्डन भी बनवा सकते हैं। बच्चे वहां हमारी देखरेख में खेलते रहेंगे। विकास की थोडी कीमत तो चुकानी ही होती है। वाहेगुरु एक दरवाज्ाा बंद करते हैं तो दूसरा खोल भी देते हैं। अरे बेटा यश, तुम कब आए? लगता है, आज हमारी मीटिंग लंबी चल गई है।

घर पहुंच कर हरदयाल जी ने बच्चों को सारी बात बताई तो वे भी चिंतित हो उठे। 'एक

ही तो खुली जगह है बच्चों के लिए। मैं सोसाइटी मीटिंग में यह मुद्दा उठाता हूं और ज्य़ादा से ज्य़ादा लोगों को हमारे पक्ष में लेने का प्रयास करता हूं।

'दादा, हम अपने स्मार्ट फोन पर भी यह मुद्दा उठाएंगे। देखना, खूब लाइक्स मिलेेंगे।

'स्मार्ट फोन? राहुल-वृंदा एक साथ बोले।

'हां, दादा जी ले रहे हैं न! यश दादा जी के पास खिसक आया और उनका हाथ थाम लिया कि कहीं वे मुकर न जाएं।

'बाबूजी आप स्मार्ट फोन यूज्ा करेंगे? राहुल दुविधा में था।

'दादा अब पुराने दादा नहीं रहे। अब तो वह 'हमारे ज्ामाने वाले फोबिया से निकल कर मॉडर्न दादा बन गए हैं।

हरदयाल जी चकित होकर पोते को निहार रहे थे। शायद समझने का प्रयास कर रहे थे कि अब तक कौन, किसे और किस फोबिया से निकाल रहा था।

संगीता माथुर


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.