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मां

मां का समूचा जीवन बच्चों के लिए होता है, मगर बच्चों की जिंदगी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है, मां पीछे छूटती चली जाती है। कभी किसी त्योहार या जरूरत के वक्त मां याद आती है। एक दिन अचानक होश आता है तो पता चलता है कि अपना वजूद मिटा कर जिसने हमें बनाया, वह आंचल कहीं खो गया है..।

By Edited By: Published: Mon, 01 Sep 2014 04:27 PM (IST)Updated: Mon, 01 Sep 2014 04:27 PM (IST)
मां

आज पौत्र ने खेलते-खेलते मेरे कुर्ते की जेब में हाथ डाल दिया। जेब तो खाली  थी। उसने अपना छोटा सा हाथ जेब में इधर-उधर घुमाया, फिर कुछ रुक कर मेरे चेहरे की ओर ऐसे निहारने लगा जैसे कुछ सोच रहा हो। उसकी छोटी-छोटी आंखों की गहराई में कोई भोला सा प्रश्न उभर आया था। धीरे से बोला, खाली है...मैं जब बडा हो जाऊंगा, खूब  पैसे लाऊंगा और आपकी जेब भर दूंगा..।

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मैं जोर  से हंसा था। इतना कि हंसते-हंसते आंखों से आंसू छलक उठे और अंजाने में ही मेरे मन को अतीत में बहा ले गए। मैं भी तो तब ऐसे ही किया करता था। मां की गोद में बैठ कर अपने नन्हे हाथों को नचा-नचा कर कहता था, मैं जब बडा हो जाऊंगा तो तुम्हारे लिए सोने का उडन-खटोला लाऊंगा..।

उडन-खटोले की कहानियां मां ही मुझे सुनाया करती थीं। मुझे गोद में लिटा लेतीं और तब तक कहानियां सुनातीं, जब तक कि मैं सो नहीं जाता। सारे उडन-खटोले मैं मन में संजोए सो जाया करता।

पर क्या सचमुच कुछ कर पाया? कभी व्यस्तता का बहाना तो कभी पत्नी और बच्चों के खर्च का बहाना और बस यूं ही जिंदगी  सरकती चली गई हाथों से।

अतीत के पन्ने यादों की हवा में पलटते चले गए और याद आ गया वह दिन, जब मुझे मां के देहांत की सूचना मिली। मैं बदहवास स्थिति में बस अड्डे की तरफ भागा और जो भी पहली बस मिली, उसी में चढ गया।

बस चल पडी थी। मैं अवसाद की चादर में लिपटा खुद को कोसने लगा था। अतीत का हर पल साकार होकर मानस पटल पर सुई की तरह चुभने लगा था।

..वह भोला बचपन, मां का दुलार भरा आंचल, पिता का हरदम गंभीर चेहरा, हंसी-खेल, चोट-मरहम..कैसे बीत गया सब कुछ, पता भी न चला। कभी यह भी नहीं सोचा कि अपने बेटे को राजा बेटा बनाने के लिए मां ने क्या-क्या झेला होगा। अकसर वह मुझे गोद में लिटाती और गातीं, मेरा राजा बेटा है-मेरा राज दुलारा है..। सोचता हूं, मैं राजा बेटा कैसे बन सकता था, जब मेरा पिता ही राजा न था। एक मध्यवर्गीय व्यक्ति जो अपने खून-पसीने की कमाई से गृहस्थी का पालन-पोषण करने में सारा जीवन झोंक देता है, मैं उसी की संतान हूं, फिर मैं राजा बेटाकैसे हो सकता था! शायद हर मां को अपना बेटा-बेटी राजा बेटा या रानी बेटी ही लगते हैं। शायद इन संबोधनों में कहीं उसकी आकांक्षा छिपी होती है।

खैर,  उनका राजा बेटा कभी राजा साहब नहीं बन सका और आम आदमी बन कर रह गया। अब इसमें उनका क्या दोष! मां का दुलार तो याद आता है, पर पिता का चेहरा हमेशा गंभीर क्यों रहता था? इसका उत्तर तो मुझे तब जाकर मिल पाया, जब मैं खुद पिता बना। बच्चा तो मां के शरीर का हिस्सा होता है, उससे नि:स्वार्थ जुडाव होता है मां का। लेकिन पिता जन्म के बाद से ही अपने सारे अधूरे सपने बच्चे की आंखों में देखना चाहता है और इसके लिए सारे प्रयास करता है। ..ड्राइवर ने जोर  से ब्रेक लगाया और बस एक झटके से रुक गई। वह किनारे लगे शीशे से पीछे आने वाले ट्रैफिक  का निरीक्षण कर रहा था। फिर उसने बस को तेजी से काटा और सडक के दूसरे किनारे पर बने ढाबे के सामने ले जाकर बस खडी कर दी। ड्राइवर खुद अपनी सीट वाले दरवाजे  से कूदा और सीधा ढाबे पर बढ गया। कंडक्टर ने घोषणा की, बस यहां कुछ देर रुकेगी। सब लोग चाय पी लो।

वह भी ड्राइवर के पीछे हो लिया। लगभग सारी बस खाली  हो गई। कुछ लोग ढाबे के सामने बिछी चारपाइयों पर पसर गए थे तो कुछ कुर्सी-टेबल पर बैठे चाय पीने लगे थे।

मैं गहरी उदासी में घिरा भीड को देख रहा था। मन में बेचैनी बढ रही थी। इतना अकेलापन तो पहले कभी महसूस नहीं हुआ था। धैर्य ने जवाब दे दिया तो मैंने बस से उतर कर ड्राइवर से कहा, भैया, हो सके तो जल्दी बस चला दो। मेरी मां की मौत हो गई है और मुझे उनकी अंतिम क्रिया से पहले घर पहुंचना है। प्लीज भाई..! मेरी आंखों में आंसू उतर आए थे। ड्राइवर और कंडक्टर ने एक-दूसरे को देखा, फिर ड्राइवर मुझसे बोला, इतनी जल्दी थी तो दूसरी बस पकड लेते न! खैर चलो, हम आते हैं।

ड्राइवर के उत्तर से मन फट सा पडा। मन तो किया कि उसका गिरेबान पकड लूं, मगर ऐसा कभी करने के बारे में सोच भी नहीं सकता था। चुपचाप वापस आया और अपनी सीट पर बैठ गया। थोडी देर बाद ड्राइवर आया। उसके पीछे-पीछे एक-एक कर सारे यात्री भी बैठ गए। बस चल पडी।

एक बार फिर मां की याद बेतरह आने लगी। स्नेह से भरे उस बचपन में कई बार मां के गुस्से  को भी सहना पडता था। गलती  करता तो मां को गुस्सा आता और वह एकाध चपत जड देती। मगर इसके तुरंत बाद उसके चेहरे पर जितनी पीडा उभरती, वह दिन बीतने के बाद भी नहीं उतरती। जब मैं पास जाकर उसके दोनों गालों पर अपने हाथ रख कर उससे हंसने की जिद  करता तो वह आंसू भरी आंखें लिए मुझे अपने पास समेट लेती। उन पलों की अनुभूति आज इतनी तीव्र क्यों हो रही है?

बस जिस रास्ते से गुजर  रही थी, उसमें सडक के अवशेष ही थे, बाकी तो गड्ढे थे। बस हिचकोले खाती बैलगाडी की रफ्तार से आगे बढ रही थी। मैं इस स्थिति में भी नहीं था कि सडक पर ध्यान दे पाता, लेकिन जब ड्राइवर ने जोर  से ब्रेक लगा कर बस रोक दी तो सारा चिंतन बिखर गया।

बस के इस तरह अचानक रुकने से सारे यात्री शंकित निगाहों से इधर-उधर देखने लगे। मुझे तो लगा, मेरा कलेजा फट कर बाहर न आ जाए। बस रोकते ही ड्राइवर अपनी सीट के बाजू वाली खिडकी से नीचे कूद गया और कंडक्टर अगले दरवाजे से नीचे चला गया। वे दोनों बस के इधर-उधर घूम कर मुआयना कर रहे थे। अनगिनत आंखें उनकी ओर टकटकी बांधे देख रही थीं। तभी कंडक्टर जोर  से चिल्लाया, टायर पंचर हो गया है, सब लोग नीचे उतर जाओ.., फिर तनिक रुक कर बोला, अपना-अपना सामान  भी उतार लेना.।

अब तो प्रश्नों की बौछार शुरू हो गई,

अब क्या होगा.?

हे भगवान, आगे का रस्ता कैसे कटेगा.?

अरे भाई, कुछ इंतजाम  करोगे या फिर रात यहीं बिताने का इरादा है?

स्त्रियों की आंखों में कई शंकाएं साफ नजर आ रही थीं तो बस रुकते ही नन्हे बच्चे नींद से जाग कर चिल्लाने लगे थे। ड्राइवर इत्मीनान से एक पेड के नीचे धूम्रपान में व्यस्त था। लोगों ने कंडक्टर को घेर लिया। वह बडी सहजता से सबको आश्वासन दे रहा था, अभी कोई न कोई बस आएगी, चिंता मत करो, मैं सबको बैठा दूंगा..। मैं बोझिल मन लिए सडक के एक किनारे जा खडा हुआ था।

समय के हाथ में जैसे कोई ब्लेड थी, जिससे वह पल-प्रतिपल मेरी नस काट रहा था। मैं हारे हुए सिपाही से भी बदतर हाल में था। इसलिए वह करने लगा, जो जिंदगी  में कभी नहीं किया। सडक पर गुजरती  हर गाडी या मोटरसाइकिल को रोक-रोक कर लिफ्ट मांगने लगा। लोगों से गुहार लगाने लगा, मगर कोई न रुका। इस तेज  रफ्तार जमाने  में कोई भला किसी के लिए रुकता है क्या? मैं अब तक रुआंसा हो चुका था। मेरे भीतर एक अंजाना अपराध-बोध जन्म लेने लगा था।

इस बीच सडक से एक-दो बसें गुजरीं  तो कंडक्टर ने उन्हें इशारा किया। बसों की रफ्तार कुछ धीमी हुई मगर भीड को देखते ही उनके ड्राइवरों ने हाथ नचा कर जता दिया कि बस में जगह नहीं है।

काफी देर बाद एक खाली बस नजर आई। कंडक्टर लपक कर सडक के बीचों-बीच खडा हो गया। अपने दोनों हाथ हवा में लहराते हुए उसने बस को रुकने का इशारा किया। बस जोर के झटके के साथ रुकी तो कंडक्टर चिल्लाया, चढ जाओ सब, जल्दी करो..।

इसके बाद तो जैसे भगदड ही मच गई और फिर जो कुछ हुआ, उसका इससे पहले मुझे कभी एहसास नहीं हुआ था। संकरा सा दरवाजा, उसमें अनगिनत लोग पोटलियां, बैग, बक्से और बच्चे लिए चढ रहे थे। दरवाजा लोहे का न होता तो टूट ही जाता। चीख-पुकार के बीच स्त्रियों की अनुनय-विनय द्रवित करने को काफी थी, मगर मैं क्या करता। मेरे पास कोई उपाय नहीं था। मैंने सोचने में जरा भी देर नहीं लगाई और तुरंत भीड का हिस्सा बन गया। बस में इस कदर लोग भरे हुए थे कि पीछे जाने के लिए चलने की आवश्यकता भी न पडी। भीड ने ठेल-ठेल कर बस की सबसे पिछली सीट के पास तक पहुंचा दिया। पैर टिकाने को जगह न मिली तो पिछले दरवाजे के पायताने खडा हो गया और लोहे का रॉड पकड लिया। लगा कि कहीं बेहोश न हो जाऊं। मैं लगभग अचेतन अवस्था में था। लोगों के पसीने, बीडी-सिगरेट की बदबू के बीच दम घुट रहा था। समय देखना चाहा, मगर इतनी भी जगह न थी कि अपना हाथ ऊपर कर घडी देख पाता। खिडकी से बाहर को देखा तो शाम काफी हो चुकी थी। सूरज ढलने ही वाला था। छोटी सी यह यात्रा अनियंत्रित ही नहीं, अनंत लगने लगी थी। इस वक्त मैं अपनी ही नजरों  में अपराधी था और इस अपराध का कोई समुचित उत्तर भी मेरे पास नहीं था। मैं मां की देखभाल नहीं कर सका, उसकी जिम्मेदारी नहीं निभा पाया। पिछले कितने वर्षो से मां की शक्ल भी नहीं देखी थी मैंने। कभी नौकरी के खटराग तो कभी बच्चों की जरूरतें..। मां इन सबके बीच हाशिए पर चली गई थी। सोच रहा था, ढलती आयु में उसकी काया को कितनी क्षति पहुंची होगी? अब वही काया निर्जीव अवस्था में घर के कच्चे आंगन पर लेटी मेरी प्रतीक्षा कर रही होगी। पता नहीं, अब होगी भी कि नहीं। जिसने मुझे उंगली पकड कर चलना सिखाया, लोग उसकी काया के इधर-उधर बैठे मेरी राह देख रहे होंगे। सारा वातावरण बोझिल होगा। सूर्यास्त से पहले-पहले अंत्येष्टि संपन्न होगी। शायद अब तक लोग मेरी ओर से निराश भी हो चुके होंगे और उनके मन में मेरे प्रति आक्रोश पनप रहा होगा।

मां, जिसने मुझे यह शरीर दिया, वे हाथ जिन्होंने मेरे जीवन की चेतना के प्रथम क्षण में मुझे दुलारा, वे अब नहीं हैं, यह कल्पना भी मेरे लिए मुश्किल थी। जी कर रहा था कि उड कर मां के पास पहुंच जाऊं और उससे लिपट कर रो पडूं। मां को ऐसे हाल में देखना मेरे लिए संभव नहीं था। मां बार-बार मुझसे पूछ रही थी, तू कब आएगा बेटा?

क्या जवाब दूं मां को? मैं खडे-खडे रोने लगा था, अपनी ही हिचकियों से मेरी तंद्रा भंग हुई। आसपास लोग न जाने कब से मेरी ओर ताक रहे थे। ड्राइवर किसी लोकगीत की धुन पर झूम रहा था और कंडक्टर ऊंघ रहा था। बस पूरी तरह खडखडा रही थी। मैं आशंकित था, कहीं यह बस भी...!

आखिरकार बस अपने गंतव्य तक पहुंची। मगर तब तक शाम अंधेरे में घुलने लगी थी। मैं बेतहाशा गांव की ओर दौड पडा। पगडंडी दर पगडंडी..मेरा दम उखड रहा था। मैं बरसों से नहीं दौडा था, मगर इस समय जैसे मैं कोई स्कूली बच्चा बन गया था। कैसे भी मां से अंतिम बार मिल लूं और मन में बरसों से जमे अपराध-बोध को कम कर लूं।

गांव पहुंचने से पहले ही पता चल गया कि मां मेरी प्रतीक्षा न कर सकी। उसका अंतिम संस्कार कर दिया गया। आहत मन और शरीर को किसी तरह घिसटते हुए जब गांव में घुस रहा था, मां की चिता की आग धीमी हो रही थी। जिसने मुझे बनाया, वह खुद धीरे-धीरे राख में तब्दील हो रही थी..।

सुबोध मिश्र


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