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खोखली मान्यताएं

समय बहुत बदल चुका है। बेटा-बेटी समान समझे जाने लगे हैं। उनके कर्तव्य और अधिकार भी समान हैं। मगर आज भी कुछ मान्यताएं ऐसी हैं, जो बेटियों को अधिकारों से वंचित करती हैं। क्या अब समय नहीं आ गया है कि ऐसी मान्यताओं को बदल दिया जाए और कुछ नए विधान बनाए जाएं! यही सवाल उठाया जा रहा है इस कहानी में।

By Edited By: Published: Mon, 03 Nov 2014 11:29 AM (IST)Updated: Mon, 03 Nov 2014 11:29 AM (IST)
खोखली मान्यताएं

पिछले दस दिन बडी व्यस्तता और मुश्किलों में बीते। मैं ही क्या, मेरी पुत्रवधू भी इन दिनों व्यस्त रही। उसने ही घर-बाहर का सारा प्रबंध किया था। कितनी बार तो शांभवी के घर खाना बना कर भेजा। जरूरी भी था, शांभवी की मम्मी ममता मेरी बचपन की सहेली जो थी। ममता के जाने के बाद कितनी खाली सी हो गई हूं मैं।

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..और आज तो ममता की तेरहवीं भी हो गई। इतनी जल्दी यह सब हो जाएगा, किसी ने सोचा भी नहीं था। अच्छी-भली तो थी, मगर दिल की बीमारी कब मौत का रूप धारण कर जीवन में दस्तक दे देगी, कोई नहीं जानता। सभी सकते की स्थिति में थे, मगर ईश्वर के निर्णय पर किसी का बस नहीं चलता है।

ममता मेरी सबसे प्रिय सहेली थी। बचपन में हमें देखकर सबको यही लगता था कि हम सगी बहनें हैं। कई साल हमने साथ-साथ बिताए। फिर दोनों की शादी हो गई और दोनों अपने-अपने परिवारों में व्यस्त हो गए। इन सबके बीच दोस्ती जारी रही और एक-दूसरे से संपर्क बना रहा। कुछ वर्ष बाद उसकी बेटी शांभवी की शादी मेरे ही शहर लखनऊ में हो गई तो एक जरिया और बन गया ममता से बातचीत का।

फिर कुछ ऐसा संयोग बना कि ममता अपनी बेटी के पास रहने आ गई। जब मैंने यह खबर सुनी तो लगा, मानो विधाता भी हमें मिलाने को आतुर हैं। उसका आना मेरे लिए खुशबू के झोंके की तरह था। अब तो हम लगभग रोज मिलने लगे। कभी मैं उसके घर तो कभी वह मेरे घर। शांभवी भी अकसर हमारे घर आने लगी। हम दो सहेलियां क्या मिलीं, मानो हमारा बचपन लौट आया हो। बातें थीं कि खत्म ही न होतीं। दोनों परिवार भी काफी घुल-मिल गए थे।

शांभवी ममता की पहली संतान थी। मुझे आज भी याद है, जब शांभवी हुई थी तो ममता ने मुझे एक पत्र लिखा था, जो अब भी कहीं मेरे पास सुरक्षित है। उसकी एक-एक पंक्ति मुझे याद है। उसने लिखा था-

मंजू,

मैंने एक बेटी को जन्म दिया है। तू मौसी बन गई है। मुझे मां बन कर कितना सुखद अनुभव हो रहा है, बता नहीं सकती। लेकिन कुछ कमी सी भी महसूस हो रही है। तू तो जानती है न कि हम दोनों को लगता था कि हमारी पहली संतान पुत्र होगी। हमने तो बेटे का नाम, बचपन, शिक्षा-दीक्षा सब कुछ सोच लिया था। मगर..अब ये बेटी, पता नहीं क्यों मैं कुछ असहज सी हो गई हूं। मेरे पति का भी यही हाल है। पहली संतान के रूप में पुत्र जन्म की बात ही कुछ अलग है-भव्य और गौरवशाली। मैं ठीक कह रही हूं न मंजू!

उसका पत्र पढ कर मुझे आघात सा लगा। बचपन में अपनी मां के व्यवहार से दुखी रहने वाली ममता आज बेटी के जन्म पर असहज महसूस कर रही है। उसे तो खुश होना चाहिए कि जो भेदभाव उसके साथ हुआ, वह अपनी बेटी के साथ न करे।

मैंने उसके पत्र के उत्तर में इतना ही लिखा-

ममता,

तुम एक शिक्षित स्त्री हो। तुम्हें बेटी के जन्म पर निराश होना शोभा नहीं देता। तुम याद करो, बचपन में मां की कही बातें तुम्हें कितनी चुभती थीं, फिर आज तुम अपनी बेटी के प्रति कठोर कैसे हो सकती हो! ममता, मेरा मन कह रहा है कि तुम्हारी यह बेटी ही एक दिन तुम्हारे गर्व का कारण बनेगी। तुम्हें अपनी बेटी पर नाज होगा और तब तुम मुझे याद करोगी। देखो ममता, निराश न हो। बेटी का पालन-पोषण अच्छी तरह करो, उसे आत्मनिर्भर बनाओ..।

शांभवी के बाद ममता के दो बेटे हुए। समय के साथ तीनों पढे-लिखे, अच्छे पदों तक पहुंचे और घर-गृहस्थी वाले बने। शांभवी प्रांतीय सेवा में चयनित हुई। उसका विवाह उसके सहपाठी शाश्वत से हुआ। तब से पति-पत्नी लखनऊ में ही रह रहे हैं।

ममता और उसके पति शुरू से बनारस में थे। रिटायरमेंट के बाद उन्होंने वहीं घर बना लिया था। पति-पत्नी का समय आराम से कट रहा था। बच्चे अपनी जिंदगी में खुश और मस्त थे। मां-बाप को भला और क्या चाहिए? मगर उनकी प्रसन्नता अधिक समय तक कायम नहीं रह सकी। एक दिन अचानक ममता को दिल का दौरा पडा। बडा बेटा उन दिनों विदेश प्रवास पर था और छोटे को छुट्टी नहीं मिल सकी। शांभवी पति के साथ दौडती-भागती मां को देखने चली गई। पहला हार्ट अटैक जानलेवा था। डॉक्टरों के अथक प्रयास से जान तो बची, लेकिन शांभवी को अनेक हिदायतों का पुलिंदा भी मिल गया। इन्हें आराम की आवश्यकता है। सारी दवाएं समय से देनी होंगी। तनाव घातक हो सकता है.., डॉक्टर की एक-एक बात को गौर से सुन रही थी शांभवी।

शांभवी ने मां को साथ चलने को कहा तो पति-पत्नी एक स्वर में बोल पडे, नहीं-नहीं, दो बेटों के रहते तुम क्यों ले जाओगी हमें। भाइयों को फोन करो, आकर ले जाएंगे। शांभवी ने फोन पर छोटे भाई को सारी स्थिति समझाई तो उसका जवाब था, दीदी मैं अभी-अभी यूके से लौटा हूं। मैं कब कहां चल दूं, मेरा कोई ठिकाना नहीं है। तुम मेरी पत्नी का हाल जानती हो। न जाने कितने महिला संगठनों के कार्यक्रम में जाती रहती है। जब उसे हम लोगों के लिए ही समय नहीं है तो मां की देखभाल कैसे कर पाएगी? मां यहां और अकेली हो जाएंगी। दीदी, मैं बनारस में उनके लिए फुलटाइम नर्स की व्यवस्था कर देता हूं। उसका पूरा खर्च मैं ही उठाऊंगा। आप चिंता न करें, मैं जल्दी ही बनारस आने की कोशिश करता हूं.., इतना कह कर उसने फोन रख दिया। शांभवी स्तब्ध रह गई। फिर उसने दूसरे भाई को फोन कर मां की स्थिति समझाई। छोटा भाई भी कहां कम था। बोला, दीदी मैं मां-पापा को अपने पास ला सकता तो सचमुच मुझे ख्ाुशी होती। मगर तुम शिखा के स्वास्थ्य के बारे में जानती ही हो। हमेशा बीमार रहती है। उसकी बीमारी को ही लेकर मैं परेशान रहता हूं, उस पर मां की जिम्मेदारी कैसे संभाल पाऊंगा। प्लीज, मेरी बात को अन्यथा न लेना। मैं जल्दी ही बनारस आऊंगा और जितना संभव होगा, मदद करने का प्रयास करूंगा।

दोनों भाइयों की मजबूरियां अपनी जगह थीं। मगर शांभवी को जल्दी निर्णय लेना था, समय कम था। इसके बाद उसने तुरंत माता-पिता का सामान पैक किया और उन्हें अपने साथ चलने को तैयार कर लिया। तब से ममता और उसके पति यहीं थे। शांभवी की भी गृहस्थी थी। स्कूल जाने वाले बच्चे थे। पति-पत्नी को सुबह नौकरी पर निकलना होता था। दोनों प्रशासनिक सेवा में थे, जिम्मेदारियां थीं। माता-पिता के आने से शुरुआत में दोनों असहज हुए, मगर जल्दी ही दिनचर्या व्यवस्थित हो गई। शांभवी को मालूम था कि मां की जिम्मेदारी उसे ही निभानी है और दोनों भाई सिर्फ आश्वासन ही देंगे, वे मुडकर भी नहीं देखेंगे अब। इसलिए जितनी जल्दी हो, इस जिम्मेदारी को संभालने की मानसिकता में आना होगा। पैसे की समस्या नहीं थी। एक नर्स सुबह-शाम दो घंटे के लिए मां की सेवा के लिए आने लगी। एक अन्य महिला खाना बनाने आती थी और पूरे दिन घर पर रह जाती थी। जल्दी ही सारे काम सुचारु ढंग से चलने लगे। शांभवी ने माता-पिता की देखभाल में कोई कसर नहीं छोडी। पापा को भी कुछ सामाजिक संस्थाओं का सदस्य बनवा दिया, ताकि उनका समय आसानी से कट सके।

कई सालों से दोनों पति-पत्नी सम्मानपूर्वक मां-पापा की देखभाल कर रहे थे। बच्चे भी नाना-नानी का साथ पाकर निहाल थे और नाना-नानी भी बच्चों पर जान छिडकते थे। नौकरी के बाद सारा समय शांभवी अपने बच्चों और माता-पिता को देती। मां से बातें करती। कहीं कोई अभाव नहीं था।

लेकिन मां को कैसे समझाए। शायद कहीं ममता के मन में मौत का भय भी था, जो बार-बार बेटों से मिलने की जिद पकडने लगी थी। शांभवी ने कई बार फोन किया, मगर कुछ व्यस्तता और कुछ शर्म के कारण भाई नहीं आ सके। उनसे बिना मिले ही ममता इस दुनिया से चली गई।

मौत का समाचार सुन कर दोनों भाई आए मगर इस बार भी उनके साथ परिवार वाले नहीं थे। अंतिम रस्में निभाने का समय आया तो बडा बेटा तैयार हो गया। परंपरा के अनुसार ममता का पूरा श्रृंगार करके उसे विदा करना था। पंडित जी ने आदेश दिया कि यह रस्म बहुओं को निभानी होगी, मगर बहुएं थीं कहां? तब सबने बेटी को औपचारिकताएं निभाने की सलाह दी। शांभवी आगे बढी और बोली, मैं मां को तैयार करूंगी। तभी पीछे से आवाज आई, बेटी यदि मां के शव को हाथ लगाएगी तो मां के लिए स्वर्ग के द्वार बंद हो जाएंगे। ऐसा कोई विधान नहीं है कि बेटों के होते बेटी-दामाद अंतिम क्रियाकर्म करें। शांभवी सहम कर पीछे हट गई। उसने तो मां का हमेशा भला सोचा था। इसलिए भाइयों के मना करने पर मां को साथ ले आई। भरसक उन्हें सुख देने की कोशिश की। बीमारी में उन्हें अपने हाथों से नहलाती, खाना खिलाती और देखभाल करती। शाश्वत भी कहां पीछे रहे। उन्होंने भी कभी खुद को दामाद के रूप में नहीं देखा। सास-ससुर की वैसी ही सेवा की, जैसी अपने माता-पिता की करते। मगर जब अंतिम सेवा का अवसर आया, दोनों को अशुभ ठहरा दिया गया। ये कैसे रीति-रिवाज हैं! वह फफक-फफक कर रो पडी। चारों तरफ इस आशा में देखने लगी कि कोई तो उसके पक्ष में बोलेगा। लेकिन वहां तो पूरी सभा मौन धारण किए थी। ऐसा लग रहा था मानो सभी पंडितों के कथन से सहमत हों।

मैं जो अब तक चुपचाप इस तमाशे को देख रही थी, देर तक चुप न रह सकी। मैंने खडे होकर आदेश भरे लहजे में शांभवी से कहा, कौन कहता है कि बेटी के छूने से मां को मुक्ति नहीं मिलेगी! वास्तव में तो तुम्हारे छुए बिना ममता की आत्मा को शांति नहीं मिलेगी बेटी। सच्चे अर्थो में तुम और शाश्वत ही ममता के अंतिम संस्कार करने के अधिकारी हो।

मेरी बात सुन कर शांभवी रोती हुए कहने लगी, नहीं-नहीं, मौसी मुझमें इतनी हिम्मत नहीं है कि मैं पंडित जी की बात का उल्लंघन कर सकूं। जो अधिकार भाइयों को मिले हैं, उन्हें ही निभाने दो। मैं और शाश्वत घर के भीतर चले जाएंगे...। इतना कह कर शांभवी रुकी नहीं, रोती हुई शाश्वत के साथ सीधी अपने कमरे में चली गई और तभी बाहर आई, जबकि मां की अंतिम विदाई हो गई।

अश्रुपूरित आंखों से मैं सोचने लगी, यह कैसा विधान है! जिस लडकी ने मां-बाप की सेवा की, वही मां को अंतिम समय पर देखने से वंचित रह गई! उसका होना मां के लिए अशुभ हो गया! क्या अब समय नहीं आ गया है कि ऐसी मान्यताओं का बहिष्कार किया जाए! ऐसे ही प्रश्नों में उलझी मैं व्याकुल मन से घर लौट आई। काश कि शाश्वती हिम्मत दिखाती तो कई लडकियों के लिए मिसाल बन सकती..।

मृदुला गुप्ता


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