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झुमका गिरा रे!

इस महंगाई के दौर में जैसे-तैसे तो कोई ऐसी चीज हाथ लगती है, जिससे दुनिया को अपने स्टेटस का कुछ पता चले। अब वही चीज किसी दूसरे के भी हाथ लग जाए तो मतलब ही क्या रह जाता है..

By Edited By: Published: Mon, 03 Nov 2014 03:31 PM (IST)Updated: Mon, 03 Nov 2014 03:31 PM (IST)
झुमका गिरा रे!

हमें बचपन से पढाया गया - हमारा देश कृषिप्रधान देश है। इस देश का किसान खेतों में सोना उपजाता है। और कई बार वरदानों का अभाव किसानों की मेहनत पर पानी फेर देता है। मुझे पिछले दिनों हुई बारिश का समाचार याद हो आया - वरदान की कमी से बारिश में कई क्विंटल गेहूं भीग गया। एक कहावत है, दाने-दाने पर लिखा है, खाने वाले का नाम। कहीं इस बारिश में भीगे-सडे दानों पर मेरा नाम न लिख जाए। इस डर से झोला थामे सपत्नीक बाजार की ओर भागा।

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मैं घर खर्च के लिए साल भर का सोना भंडारण कर लेता हूं। बेशक मैं अनाज की बात कर रहा हूं। बार-बार हर महीने बाजार नहीं भागना पडता। बाजार में गेहूं के दाम सुनकर मेरा दम निकलने को हो आया। मैंने दुकानदार को फटकार लगाई, अरे भले मानस, दाम भी जरा संभलकर बताया करो। भाई, हार्ट पेशेंट हूं! दुकानदार मुझे अपना मित्र कहता है। उसने मुझे अपनी चिकनी-चुपडी बातों में फंसा लिया था। मैं प्रतिवर्ष उसी की दुकान पर पहुंच जाता हूं। मेरे साथ उसकी गाढी मित्रता इसलिए भी थी क्योंकि मेरी पहचान से उसे मेरे विभाग से कई और लोग बतौर ग्राहक मिल जाते हैं।

दुकानदार श्रीमती जी की ओर देख मुस्कुराया और मशविरा दिया, भाभी जी, अभी खरीद लो। वरना सडा गेहूं मिलेगा, इसी दाम में। मैं चौंका और जिज्ञासावश पूछा, क्या तुम सरकार हो? मेरा मतलब तुम्हारे सामने भी वरदान की समस्या है? कोई गोदाम-वोदाम नहीं है क्या। वह हें.हें करके हंसा और बोला, ऐसी बात नहीं जी। अब आपसे क्या छिपाना। अपने पास तो ऐसे-ऐसे गोदाम हैं कि टनों अनाज भरा रहता है। साल-दो साल भी पडा रहे तो परवाह नहीं करता। फिर मौका देखकर निकालता और बेचता रहता हूं। बात पूरी करते-करते उसने हमें गाढी मित्रता का चारा डाला, पसंद कर लो भाभी जी आप तो, वाजिब दाम लगा दिए जाएंगे। अब आपसे भी कमाकर भगवान को क्या कहूंगा। उसने चालाकी में भगवान को भी शामिल कर लिया था। मुझे उसकी चालाकी और सरकार की उदासीनता एक ही सिक्के के दो पहलू लगे।

खैर सोना न सही, पेट-पूजा के लिए सोने के दाने.. मेरा मतलब अनाज तो संजोना ही पडता है। घर में सब सुख-सुविधाएं जुटाते-जुटाते बुढापे ने आ घेरा। इसके बावजूद मेरी अर्धागिनी को हमेशा यह शिकायत रहती है कि मैं उन्हें कभी कुछ लाकर नहीं देता।

सोचता हूं उन्हें सोने के झुमके बनवा दूंगा। लेकिन जब भी सोना खरीदने की बात सोचता हूं तो सोना हराम हो जाता है। सोने की गिरावट देखकर जब तक उठने की साम‌र्थ्य जुटाता हूं, सोना फिर कुलांचें मारने लगता है। मेरी तकलीफ यथावत है। पिछले कुछ दिनों से श्रीमती जी जिद पर अडी थीं। किंतु मेरी हालत पतली थी। माह का आखिरी सप्ताह चल रहा था। जेब ने हडताल कर रखी थी। इस पर श्रीमती जी का बार-बार उलाहना मुझे इंसल्टिंग फील दे रहा था। लेन-देन की आधुनिक परंपरा में मैं सदैव अपने आपको पीछे पाता हूं। ईमानदारी लेने नहीं देती और बेचारगी देने से रोक रही है। मैंने उन्हें फिल्मी स्टाइल में बहलाने की कोशिश की, तुम्हें और क्या दूं मैं दिल के सिवा..

मेरी इस हरकत को उन्होंने आडे हाथों लिया तथा मेरा राग-भंग करते हुए कहा, चलो हटो! दो-दो बच्चों के पिता होते हुए, ऐसे गाने-गाते शर्म नहीं आती!

ही-ही.. करता रहा मैं। हर परिस्थिति में मुस्कुराने की ये भी एक अदा है। मैं अकसर ऑफिस से घर लौटते समय लेट हो जाता हूं। एक दिन सोचा कि निर्धारित समय से पूर्व घर पहुंचकर श्रीमती जी को सरप्राइज दी जाए। जमाना बदल गया है। अजब कारनामे करके गजब कर देना चलन में है। यह मेरी छोटी सी कोशिश थी।

बतर्ज हर्र लगे न फिटकरी, रंग चोखा आ जाएगा। इसी इरादे से ऑफिस से पहले निकल गया। घर पहुंचा तो कॉलोनी की महिलाओं की भीड देखकर खुद सरप्राइज हो गया। ड्राइंग रूम में बैठी सभी महिलाएं हंसी-मजाक में मशगूल थीं। मेरे इरादों पर पानी फिर गया। श्रीमती जी को कुछ देने-दिलाने के मामले में मैं हमेशा मात खाता रहा हूं। सरप्राइज देनी चाही वह भी बेकार गई। मुझे देखकर सभी चौंक गई। श्रीमती जी ने सबका प्रतिनिधित्व करते हुए मुंह बिचकाया, अरे! आप इतनी जल्दी आ गए।

हां, ऐसे ही.. मुझसे कोई सही जवाब देते नहीं बना। मेरा इरादा पूरे मुहल्ले को सरप्राइज देने का नहीं था। अत: सीधे अंदर वाले कमरे की ओर बढ गया। फॉलोथ्रू में श्रीमती जी आई और मुझे कैच करते हुए बोलीं, आप आ ही गए हैं तो जल्दी फ्रेश हो लीजिए और नाश्ते की प्लेटें लगा दीजिए।

मुझसे नहीं होगा, मैने विरोध करने की कोशिश की। लेकिन उन्होंने प्यार भरा दृष्टि-तीर मेरी ओर छोडते हुए मेरे विरोध को धराशायी कर दिया। ठीक है, पर ये हो क्या रहा है? मैंने सजी-संवरी श्रीमती जी को अपनी ओर खींचा। अजी क्या कर रहे हो! श्रीमती जी ने दूर छिटकते हुए स्पष्ट किया, आज बी.सी. है और मेरी लॉटरी खुली है।

कॉलोनी में सभी महिलाओं ने मिलकर एक मंडली बनाई है, जो हर माह आपस में पैसे इकट्ठे करके किसी एक सदस्य के नाम लॉटरी निकालती हैं। इसी बहाने महिलाओं की गोष्ठी हो जाती है और हंसी-मजाक भी।

खैर, मैं फ्रेश होकर रसोई की तरफ बढा। कुछ देर बाद श्रीमती जी अंदर आई और मैंने श्रीमती जी के कंधे से कंधा मिलाते हुए दम भरा, लीजिए मैडम, नाश्ता तैयार है। वे सीधे अलमारी की ओर बढ गई। मैंने उनका अनुसरण किया। उन्होंने अलमारी से हाल ही में खरीदी गई साडी निकाली।

फिर से साडी बदलोगी क्या? मैंने पूछा।

नहीं दिखाने जा रही हूं सबको। आठ हजार रुपये की साडी देखकर जल-भुन जाएंगी सब। श्रीमती जी की यह अदा देखकर मुझे फिल्म जला कर राख कर दूंगा का टाइटल याद हो आया।

उन्होंने ड्राइंग रूम की ओर जाते-जाते मुझे आदेशित भी किया, आप प्लेटों को ट्रे में सजाकर ड्राइंग रूम के दरवाजे में रख दीजिएगा, मैं ले लूंगी।

मैंने प्लेटें ट्रे में सजाई और निर्देशित स्थान पर पहुंच गया। बाहर महिलाओं में साडी की चर्चा जोरों पर थी।

साडी तो अच्छी है, किसी महिला ने कहा।

हां, ठीक ही है, दूसरी ने कहा ।

ठीक ही है ...क्या मतलब? मेरी श्रीमती जी का स्वर था।

साडी खराब नहीं है लेकिन ..

लेकिन क्या मैडम शर्मा? किसी अन्य का स्वर उभरा।

हमारी बर्तन मांजने वाली नौकरानी है न - रच्जो, ऐसी ही साडी उसने भी पहनी हुई थी। यह स्वर श्रीमती शर्मा का था।

बताइए ऐसी साडियां काम करने वाली नौकरानियां तक पहनने लगी हैं! किसी ने आग में घी डाला।

अजी, सुनिए। शायद श्रीमती जी का धैर्य टूट गया था। उन्होंने आवाज दी। घबराहट में मैं ट्रे सहित ड्राइंग रूम में प्रवेश कर गया।

क्या हुआ? मैंने संयत होकर पूछा। यह साडी आप वापस कर दीजिएगा।

दो बार पहनी जा चुकी साडी अब वापस नहीं होगी।

कुछ भी हो... मैं इसे नहीं पहनूंगी।

भाई साहब फेंक दीजिए यह साडी, श्रीमती शर्मा ने मुझे सलाह दी।

मुझे लगा, आज फिर आठ हजार का चूना लगने वाला है। एक अच्छी साडी संदूक की सलाखों के पीछे डाल दी जाएगी। मैंने देखा श्रीमती शर्मा का मुखमंडल खुशी से खिल उठा था। दूसरों को जलाने का सुख ऐसा ही होता है। मैंने बात का रुख बदला, अरे! आप लोग पहले नाश्ता तो कीजिए। यह सब तो बाद में होता रहेगा।

श्रीमती जी को हमारी बात जंची। उन्हें क्या पता था कि हवन में हाथ झुलस जाएंगे। इसी बीच मैंने गौर किया, श्रीमती शर्मा ने कान के खूबसूरत झुमके पहने हुए थे, जिन्हें वे जबरन हिला-हिलाकर दूसरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास कर रही थीं।

भाभी जी! आपके झुमके तो बडे खूबसूरत हैं। सोने के हैं क्या? मैंने श्रीमती शर्मा की ओर देखते हुए कहा।

वे फूलकर कुप्पा हो गई और चहकीं, हां, पूरे तीस हजार रुपये के हैं।

लेकिन देखो नीति, मैंने अपनी श्रीमती जी का ध्यान उस ओर दिलाया और कहा, बिलकुल ऐसे ही झुमके अपनी कपडे धोने वाली सुनीता ने भी पहन रखे थे कल।

कल!, श्रीमती जी चौंकीं किंतु उन्हें समझते देर न लगी। फिर समर्थन किया, कह रही थी कि झुमके पूरे तीस हजार के हैं।

श्रीमती शर्मा से रहा न गया। वे उठकर जाने का बहाना सोचने लगीं। अब ऐसे झुमके, ऐसे लोग भी पहनने लगे? हमारी श्रीमती ने दूसरा हमला किया। श्रीमती शर्मा सह न सकीं और उठते हुए बोली, अच्छा चलती हूं, बच्चे स्कूल से आ गए होंगे।

श्रीमती शर्मा के बाहर जाते ही मैंने एक सलाह और दी, भाभी जी झुमके फेंक दीजिएगा। सभी महिलाएं ठहाका लगाकर हंस पडी। श्रीमती जी अपनी जीत पर खुश थीं। उन्होंने हमें सप्रेम निहारा। हम निहाल हो गए।

राकेश सोहम्


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