किस्मत के मारे कलाकार
अगर आपके भीतर प्रतिभा है तो जरूरी नहीं कि उसे प्रोफेशन में ही तब्दील करें। कई बार दूसरे पेशों में रहते हुए अपनी प्रतिभा का शौक की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है और यकीन मानें, प्रतिभा का यह शौकिया उपयोग कभी बेकार नहीं जाता।
बंदे ने भविष्य में क्या-क्या तीर मारने हैं, यह 99.99 प्रतिशत इस पर निर्भर करता है कि उसने कब और कहां जन्म लिया। आप जीवन एक्सप्रेस में कब और किस स्टेशन से चढ रहे हैं, इसी से निर्धारित होता है कि आपको सीट कौन-सी मिलेगी। खिडकी वाली, बीच वाली, या पहले से लदे छह के साथ सातवें के रूप में अटकने वाली, या फिर टायलेट के सामने खडे होकर सफर काटना है।
अब मेरा उदाहरण ही लें। मेरी जयंती ज्येष्ठ कृष्ण पक्ष चतुर्दशी संवत 2025 विक्रमी तदनुसार 28 मई सन् 1968 ई. को मनाई जाती है। सितारगंज जैसी छोटी-सी जगह पर मैंने अवतार धारण किया। अगर कहीं मेरा जन्म 70-75 साल पहले पेशावर या स्यालकोट में हुआ होता तो मेरा नाम पृथ्वीराज कपूर या सोहराब मोदी के साथ आया करता और अगर मेरा अवतरण 49-50 साल पहले पाकिस्तान पंजाब के किसी शहर में हुआ होता तो मैं राजकपूर, दिलीप कुमार व देव आनंद की तिकडी बन चुका होता। यही नहीं, भगवान मुझे 25-30 साल पहले अमृतसर या इलाहाबाद में टपका देते तो सिनेमा में राजेश खन्ना और अमिताभ बच्चन ही नहीं, मेरे समेत तीन सुपर स्टार होते। परन्तु प्रभु की लीला देखें, मुझे आमिर खान, सलमान खान और शाहरुख खान के साथ भेजा। दुर्भाग्य यह कि एक तो मेरे नाम के साथ खान नहीं लगाया, दूजे सितारगंज में लैंड करवाया और तीजे अछा-खासा पढा-लिखा भी दिया। सो मुझे प्रोफेसर बनना पडा और अभिनेता बनने की तमन्ना दिल में घुटी की घुटी रह गई।
किंतु जहां तक अभिनय क्षमता का प्रश्न है, वह मुझमें इमामदस्ते से कूट-कूट कर भरी हुई है। तो मैं एक्टिंग का शौक कक्षाओं में पढाते समय रफा कर लेता हूं। हर रोज मेरा अंदाज जुदा होता है। सोमवार को मेरे मुख से संवाद पृथ्वीराज कपूर की तरह निकलते हैं, इससे पहले कि हमारा पीरियड खत्म हो जाए, इससे पहले कि कनीज जाकर घंटी बजा आए, इससे पहले कि अगली क्लास का लश्कर हमारे बुलंद दरवाजे पर आ खडा हो, अपनी किताब निकाली जाए और मा बदौलत को आज का सबक बा-आवाज-ए-बलंद पढकर सुनाया जाए।
मंगलवार को मेरा अंदाज दिलीप कुमाराना होता है, कौन कम्बख्त कहता है कि आज किलास नहीं लगेगी? कल पारो तमाम हुई थी, आज चंद्रमुखी का आगाज करना है। अभी मधुमती और धन्नो भी बाकी हैं। पता नहीं, तुम लोग इन हसीनाओं के पुरकशिश अफसानों का मुतालआ करने से इतना गुरेज क्यों करते हो? बुधवार को मुझमें राजकपूर की आत्मा उतर आती है, मैं क्या करूं जी, न तुम पढते हो, न नकल करते हो.. सब कुछ सीखा तुमने, न सीखी होशियारी.. सच है बीए वालों, हो तुम सब अनाडी..।
गुरुवार को मैं राजेश खन्नामय हो जाता हूं, .. पुष्पाऽऽऽ .. तेरी किताब कहां है रे! देख रो मत, आइ हेट टीयर्स।
शुक्रवार को स्टाइल अमिताभाना होती है, रिश्ते में तो हम तुम्हारे टीचर लगते हैं और नाम है.. शनिवार श्री गब्बर सिंह को समर्पित रहता है, अरे ओ.. कितनी कविताएं थीं? केवल पांच..वो पांच और तुम पचास.. फिर भी नहीं पढे.. बीए के छात्रों! क्या सोचकर आए थे, टीचर खुश होगा, साबासी देगा.. क्यूं? रविवार को मैं राजकुमार होता हूं। सुबह-सुबह एक पर्ची लिखकर बीवी के सिरहाने रख देता हूं, आप के पांव देखे, बहुत खूबसूरत हैं। इन्हें जमीन पर मत उतारिएगा। मैले हो जाएंगे।
सोचिए, ऐसा मल्टीस्टारर ऐक्टर कोई और हो सकता है? ऑस्कर-फिल्मफेयर में ऐसी कोई कैटेगरी नहीं है वरना अवॉर्ड लेकर मुझे भी रिटायर होना पडता।
उपर्युक्त विवरण से मुझे मामूली मिमिक्री आर्टिस्ट समझने की भूल न कर बैठें। मैं सर्वथा मौलिक ऐक्टर हूं। इधर अदाकारी के जौहर दिखाने का एक और फ्रंट खुल गया है। बीमा व लोन वालों की अनचाही कालें तो आती ही रहती हैं। झल्लाने के बजाय मैं यहां भी सात्विक अभिनय करने लगा हूं।
एक बार किसी बीमा कंपनी के अफसर रूपी इंद्र ने अपनी एजेंट रूपी मेनका से मेरा बीमा न कराने का तप भंग करवाने के लिए फोन करा दिया। मेनका दस मिनट तक अपनी रससिक्त वाणी में कंपनी की स्कीमों का विवेचन-विश्लेषण करती रही। इधर मैं रस वर्षा में आपादमस्तक सराबोर होता रहा। यह वर्षा थमी तो बिजनेस की तीखी धूप निकल आई, तो आपको कौन-सी स्कीम पसंद आई? मेनका बोली।
स्कीमें तो सारी खूबसूरत हैं, आपकी आवाज की तरह, मैंने पासा फेंका।
थैक्यू वेरी मच सर फॉर दिस नाइस कॉम्प्लीमेंट, पर आप कितना इन्वेस्ट करना चाहेंगे? मेनका और मुखर हो गई।
मेरा बस चले तो मैं सारी स्कीमें ले लूं, पर क्या करूं, अब मेरी उम्र बीमा कराने की रही नहीं, मैंने पहला पटाखा चला दिया।
बट सर! आपकी आवाज से तो नहीं लगता कि आप ओल्ड एज हैं.. क्या उम्र है आपकी? मेनका मायूस-सी हो गई।
इस मई में 81 का होने वाला हूं, मैंने दूसरा पटाखा फोडा।
लग नहीं रहा सर! आवाज तो जवानों जैसी है आपकी, मायूसी और बढ गई थी।
जी शुक्रिया आपको, तीसरा पटाखा फटा। मेनका बेचारी बस हूं भर करके रह गई। चलो! मैं न सही, पर मैं भगवान से प्रार्थना करूंगा कि तुम्हें ढेरों क्लाइंट्स मिलें। गॉड ब्लेस यू.. चौथा पटाखा अंतिम निकला।
एनी वे.. थैंक्यू सर, फोन बंद हो गया। इसी तरह एक उर्वशी को मैं तीन दिन तक टरकाता रहा कि मैं साहब का सर्वेट बोल रहा हूं और साहब मीटिंग में हैं.. बाथरूम में हैं.. शॉपिंग पर गए हैं.. आदि इत्यादि।
और एक बार तो एक उर्वशा बेचारा फोन करके फंस गया। मैंने रौद्र रूप का ऐसा अभिनय किया कि बस, यू नॉनसेंस.. डोंट यू हैव एनी अदर वर्क.. हाउ डेयर यू टु डिस्टर्ब मी.. आई विल टेक योर मैटर विद योर सीनियर।
बेचारा चिंचिया या, सॉरी सर
एक दफा एक दुष्ट आततायी फोन करके बोला, आपको फलां बीमा कंपनी की तरफ से 3,52,559 रुपये का बोनस एनाउंस हुआ है.. प्रसन्नता का सात्विक अभिनय करते हुए मैं गदगद होकर 40 मिनट तक खुद पर डोरे डलवाता रहा। और वह अति उत्साह में पगा छुरी चलाता रहा। अंत में जब उसे लगा कि मैं पूरी तरह हलाल हो चुका हूं तो वह छलिया मेरे खाते आदि से संबंधित गुप्त जानकारियां मांगने लगा।
मैंने एपीसोड समाप्त करने के उद्देश्य से उसे कहा, यह बोनस के पैसे मैंने आपको दान किए, आप ही रख लें।
वह फरेबी आश्चर्य से बोला, आपको साढे तीन लाख रुपये नहीं चाहिए?
मैंने शांत भाव से उत्तर दिया, नहीं मित्रवर, यह धन मैंने आपको दिया। आप मेरे दस्तखत करके खुद पैसे निकलवा लें। कोई पूछेगा तो मैं कह दूंगा कि यह मेरे ही दस्तखत हैं।
कपटी धूर्त को यकीन हो चला था कि यहां टेढी उंगली से भी घी नहीं निकलेगा। सो शस्त्र डालते हुए पूछा, वैसे आप हैं कौन?
मैंने मरे शिकार पर पैर रखकर फोटो खिंचाने वाले पुराने शिकारियों की तरह अकडे हुए अंदाज में बताया, मैं विजिलेंस ब्यूरो में डीएसपी तैनात हूं। दूसरी ओर से तत्काल भागने की धमक साफ सुनाई दी।
यह तो था वाचिक अभिनय। अब मैं प्रत्यक्ष अभिनय में भी सिद्धहस्त हो चुका हूं। तमाम अनचाहे- मनचाहे लोग मेरी कला के साक्षी हैं। मनचाहों को यह पता न लगने देना कि वे अंदर से कितने अनचाहे हैं और अनचाहों के सामने ऐसे पेश आना कि उनसे मनचाहा तो कोई है ही नहीं.. यह कोई मामूली काम नहीं। फिल्मी सितारे तो किसी के लिखे संवाद बोल भर देते हैं। यहां तो बंदा खुद ही एक्टर, डायरेक्टर, स्क्रिप्ट राइटर, कास्ट्यूम डिजाइनर.. और न जाने क्या-क्या है?
महापुरुष श्री श्री आनंद जी महाराज कह गए हैं कि जीवन एक रंगमंच है.. और हम सब रंगमंच की कठपुतलियां हैं। अत: अभिनय वैसे तो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। मुझे पता है.. मेरे जैसे असंख्य किस्मत के मारे कलाकार किन्हीं अपरिहार्य कारणों से अभिनय क्षेत्र में अपनी प्रतिभा के झंडे गाडने में असमर्थ रहे हैं..। चलिए.. नहीं तो न सही.. वास्तविक जीवन में वास्तविक अभिनय कीजिए .. यहां आप की अभिनय सनक को शांत करने के लिए असीमित संभावनाएं सामने मुंह बाए खडी हैं।
डॉ. राजेंद्र साहिल