राधे जी पर व्यंग्य नहीं लिखूंगा
त्योहार सिर्फ मनाने ही नहीं, खुद अपने भीतर झांकने का मौका भी देते हैं हमें। ये हमें हमारी संस्कृति की महानता का बोध कराते हैं तो खुद अपनी क्षुद्रताओं का भी। अपनी असलियत से रूबरू होने का होली से बेहतर मौका भला क्या हो सकता है!
मेरे बच्चे होली से बहुत डरते हैं। खासतौर पर रंग वाले दिन तो घर से बाहर ही नहीं निकलते। बस खिडकियों से गलियारे का कोहराम देख-देख कर दहशत से दुबले होते रहते हैं। बस यों कहिए कि डर के मामले में वे मुझे गए हैं। मोहल्ले के राधे जी को दख-देखकर तो उन्हें बडा अजीब लगता है। इस बार उन्होंने मुझसे पूछ ही लिया, क्यों पापा, यह राधे अंकल सुबह से ही पूरे मोहल्ले में लाल-पीले हुए क्यों घूमते रहते हैं?
मैंने हंसकर कहा, बच्चों, राधे अंकल एक सांस्कृतिक धरोहर हैं। हमारे मोहल्ले में इन्हीं से यह होली का वर्तमान स्वरूप जीवित है, वरना अब तक तो इस त्योहार की पूरी परंपरा ही चौपट हो गई होती।
अब मेरे बडे बेटे की जिज्ञासा और आगे बढ चुकी थी। उसने पूछ ही लिया, यह सांस्कृतिक धरोहर क्या होती है?
ठीक-ठीक परिभाषा मुझे पता होती तब तो बताता, आखिरकार मुझे कहना पडा, बेटा ये तुम्हारे समझने की बातें नहीं है। बडे होगे तो सब जान जाओगे।
तभी छोटे की जिज्ञासा उभर आई, पापा इस बार राधे अंकल पर ही व्यंग्य लिख दीजिए।
मैंने उसके मुंह पर अंगुली रखते हुए दुनियादारी समझाई, बेटा बडे आदमियों पर व्यंग्य नहीं लिखा जाता। वे हमसे बडे हैं।
इसके पहले कि मेरी बात पूरी होती पडोसी चौधरी जी आ धमके, अमां यार, इस बार इस राधे के बच्चे पर व्यंग्य लिख ही मारो। पचास का हो गया, पर हुडदंग बच्चों की तरह मचा रहा है। सुबह से बत्तीसी निकाले बहू-बेटियों को घूरता फिरता है।
मैंने कहा, चौधरी जी दरअसल राधेलाल जी हमारे मोहल्ले की एक जीवित सांस्कृतिक धरोहर हैं।
तो क्या हुआ?
मैं संस्कृति पर व्यंग्य नहीं करता। इससे तो रही-सही परंपराएं भी मिट जाएंगी।
भैया इस राधे का संस्कृति से कोई मतलब नहीं, वह तो निहायत फूहडपन का बिंब है।
संस्कृति चाहे कितनी ही फूहड हो, उसका जीवित रहना जरूरी है, मैंने तर्क दिया।
तुमसे भी माथाफोडी करना पत्थर से दिल लगाने जैसा है। मेरा तो कहना यह था कि इस बार इस पर प्रहार कर ही डालते।
मैंने कहा, वे उम्र में मुझसे बडे हैं, उन पर व्यंग्य किया तो कल वे नाराज हो जाएंगे।
लेखक जिस परिवेश को जिएगा, वही तो लिखेगा। तभी रचनाएं यथार्थ के करीब पहुंच पाती हैं। लेकिन ज्यादा यथार्थ का वर्णन खुद लेखक के लिए हानिकारक होता है। अब आप ही बताइए राधेलाल जी ठहरे रसूखदार शख्स, अब मैं उन पर कैसे व्यंग्य लिखूं?
तो यों कहो न कि तुम उनसे डरते हो। लेखन में तुमसे ईमानदारी की क्या आशा की जा सकती है? एक बडबोला आदमी मोहल्ले में हो-हल्ला करता रहे और लेखक अपनी जिम्मेदारी से केवल इसलिए मुंह चुरा ले कि वह रसूखदार है.. मुझे पता है उसने तुमको डरा दिया है।
देखो चौधरी, मैं होली पर व्यंग्य लिख सकता हूं, पर राधे जी पर नहीं। वैसे भी उन्होंने ऐसा किया क्या है? जब तक कोई बुराई या विसंगति न हो, मैं कैसे लिख दूं?
अच्छा.. उसने किया क्या है? तुमने तो उसे ऐसा समझ लिया है जैसे वह एकदम पवित्रता की प्रतिमूर्ति हो। भैयाजी, उसने गई होली को मिसेज तिवारी के गालों पर रंग नहीं मला था क्या? वे बोले।
मैंने कहा, तो क्या हो गया? होली रंगों का त्योहार है, हंसी-मजाक तो चलेगी ही।
वाह साहब, कमाल हो गया। ऐसा करिए फिर आप भाभी जी को बुलाएं। मैं अभी उन्हें लगाता हूं ये रंग, उन्होंने रंग की पुडिया निकाल कर कहा।
मैं बिफरा, आप होश में तो हैं चौधरी जी! पता है मैं आपसे कितना छोटा हूं?
आपको शायद पता नहीं है, मिसेज तिवारी राधेलाल से बीस साल छोटी हैं। उसे शर्म नहीं आई और आप उस पर व्यंग्य भी नहीं लिख सकते, चौधरी जी बडे अधीर थे।
मैंने कहा, मोहल्ले की सत्यकथा मैं लिख नहीं सकता। आप चाहें तो देश-दुनिया पर लिखवा लें। भारत से लेकर अमेरिका तक के हुक्मरानों पर कुछ भी लिखवा लें। वैसे तो राधे जी ने तीन साल पहले होली के हुडदंग में अपने ही सारे कपडे उतार दिए थे।
हां-हां.. पर आपने तो तब भी नहीं लिखा था। लिखा तब जब मैंने मिसेज नागर को उनकी रजामंदी से ही गुलाल मला था।
वह बात भूल जाइए चौधरी जी। तब मैं आपको समझ नहीं पाया था और तब आप कौन सा मुझे घास डाल रहे थे। रहा सवाल राधे जी पर व्यंग्य लिखने का, तो आप लेखक बन जाइए, मैंने कहा।
चौधरी जी बल खाकर बोले, अरे यार क्यों लेखन को बदनाम करते हो। हिंदी साहित्य के लिए आप कलंक हैं, कलंक। ऐसा करते हुए आपको शर्म नहीं आती?
चौधरी साहब, करूं क्या? गृहस्थी की मजबूरियों ने लेखन को तोडकर रख दिया। वरना राधे जी की क्या मजाल थी कि वे भरी पिचकारी लिए मोहल्ले में धमाचौकडी मचाए रहते। अब तक उनकी पिचकारी मैं खुद छीन कर फेंक देता, लेकिन उनकी पहुंच ऊपर तक है। अब बताइए, भला मैं क्या खाकर व्यंग्य लिख सकता हूं उन पर? मैंने िकस्सा खोला।
चौधरी साहब ने अपने चेहरे पर ही व्यंग्य की धार चढाई और कहा, ऐसा करिए, चुल्लू भर पानी में डूब मरिए। डर के कारण जिंदा मक्खी निगल रहे हो। हमें लिखना नहीं आता, वरना हम तो कल ही इनके परखचे उडा देते।
आप कहें तो आपके नाम से मैं ही लिख दूं। आपका तो क्या बिगाड लेंगे वे, मैंने प्रस्ताव रखा।
अजी मेरे नाम से क्यों लिखेंगे? हमने क्या सुधार का ठेका ले रखा है? हर किसी से हम ही बुरे क्यों बनें? चौधरी साहब एकदम ढीले पड गए।
आप क्यों डरने लगे? आप तो बडे साहसी माने जाते हैं!
मैं डरने वाला नहीं हूं। मैं तो ठीक माली हालत में होता तो इसको समझा ही देता।
शंात रहिए चौधरी जी। असल में हम दोनों एक ही राह के राही हैं। आप या मैं, दोनों में से कोई भी राधे जी के खिलाफ खुद नहीं बोल सकता। तो क्या यह पूरी कॉलोनी में यों ही प्रदूषण फैलाता रहेगा। अमां भाई, वह चाहे जिसके घर में घुसकर गुल गपाडा करने लगता है।
मेरी तो समझ में नहीं आता कि इसकी कितनी पहुंच है। तभी तो सभी जगह इनका स्वागत होता है। लोग पकोडे तलते हैं और कॉफी पिलाते हैं। वरना आप और हमको भी कोई पूछता है? चौधरी साहब अब हकीकत के करीब आ चुके थे, तुम सही कर रहे हो शर्मा जी, हम इससे उबर कैसे सकते हैं? कोई रास्ता ढूंढो।
हमारी संस्कृति में तो जिसके पास प्रभु ताई हो, उसे कुछ कहना कठिन है।
गोली मारो इस संस्कृति को। क्या हम विद्रोह नहीं कर सकते। सच कहता हूं, पूरी कॉलोनी हमारे साथ हो लेगी। वैसे भी सरकार भय, भूख और भ्रष्टाचार मिटाने की कह रही है, चौधरी जी बोले।
तभी राधे लाल जी लाल-पीले बदरंग रूप तथा फटेहाल स्थिति में आ धमके। हम दोनों तो देखते ही रह गए। हाथों के तोते उड गए। मैं हडबडाकर उठ खडा हुआ।
चौधरी जी हाथ बांधे हुए खडे हो गए। राधेलाल जी ने बत्तीसी निकाली, क्यों चुप हो गए?
लिखिए मुझ पर व्यंग्य लिखिए। चुप क्यों हो गए? जिस थाली में खाते हो उसी में छिद्र करते हो। पता नहीं क्या हो गया है हमारी संस्कृति को। मैंने कहा, व्यंग्य लिखने का तो प्रश्न ही नहीं है राधेलाल जी। चौधरी साहब यह जरूर चाहते हैं कि आपकी जीवनी लिख दी जाए। आपका प्रेरणामय जीवन अनुकरणीय है- अत: प्रेरक प्रसंग लिखना चाहता था।
चौधरी साहब ने भी हां में हां मिलाई तो राधेलाल जी ने हाथ की पिचकारी की एक धार चौधरी जी पर मारकर कहा, कोई जरूरत नहीं है प्रेरक प्रसंग लिखने की भी। मेरा जीवन दुर्गुणों की खान है, तो भला जीवनी प्रेरक कैसे होगी? फिर मुझे अच्छी छवि की आवश्यकता भी नहीं है। राधेलाल जी ने चौधरी साहब से कहा, चलो होली खेलने का मूड हो तो तुम्हारे घर चलें। एक पिचकारी मिसेज चौधरी पर भी मार लेंगे। चौधरी साहब घिघियाए, वे तो मायके गई हुई हैं।
मुझे पता है आपने उन्हें क्यों भेजा है? कम-से-कम बारह महीने के इस एक त्योहार पर तो घर पर रखा करो भाई चौधरी जी।
फिर वे मुझसे मुखातिब हुए, अरे भाई एक गिलास पानी तो पिलवा दो।
मुझे भी कहना ही पडा, जी, मैं लाता हूं पानी। मिसेज तो मायके गई हुई हैं।
अब आपसे क्या खाक पिएं पानी। पूरे मोहल्ले की श्रीमतियां मायके चली गई। समझ नहीं आता कि मैं कहां जाऊं? यह कहकर राधेलाल जी दांत पीसते हुए बाहर निकल गए। मैंने और चौधरी जी ने राहत की सांस ली। मैंने एक बार फिर तय किया कि राधेजी पर तो व्यंग्य कभी नहीं लिखूंगा।
पूरन सरमा