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तलाश एक संस्मरण की

साहित्य रचना जितना मुश्किल है, उतना ही आसान भी। अगर कुछ और नहीं तो कम से कम संस्मरण विधा में तो हाथ आजमाया ही जा सकता है। हां, संस्मरण लिखने से पहले अनुभव के रूप में जो कुछ झेलना पड़े, उसकी जिम्मेदारी पूरी तरह आपकी।

By Edited By: Published: Thu, 03 Oct 2013 11:21 AM (IST)Updated: Thu, 03 Oct 2013 11:21 AM (IST)
तलाश एक संस्मरण की

कविता, कहानी, उपन्यास, व्यंग्य आदि पर जोर आजमाने और वीरतापूर्वक हार जाने के बाद मैंने सोचा, क्यों न एकाध संस्मरण ही लिख डालूं। मैंने कई रोचक संस्मरण पढ रखे थे, जैसे- मैं और खूंखार शेरनी, दुर्गम घाटी की यात्रा या बचपन का रोचक संस्मरण। बस मैंने संस्मरण लिखने की प्रक्रिया आरंभ कर दी। जिंदगी के हर क्षेत्र की सूक्ष्मदर्शी  से छानबीन शुरू की कि कहीं कोई रोचक संस्मरण पडा मिल जाए। शिकारी जीवन की पडताल की तो पता चला कि शिकार के नाम पर अब तक मैंने एक कपडाचोर चूहा ही मारा है। पहाडी यात्रा की तलाश की तो चक्कर आने लगे। दरअसल मैं शहर से अपने गांव सिर्फ इसलिए नहीं जा पाता कि रास्ते में एक छोटा सा पहाड पडता है। वहां बस के घूमने से एक यात्रा में ही मुझे इतनी उल्टियां  हो जाती हैं, जितनी श्रीमती जी को उन नौ महीनों में भी न हुई होंगी जब हमारे इकलौते साहबजादे धरती पर आने वाले थे। बचपन याद किया तो मूर्खताओं के अलावा कुछ याद न आया। मैं काफी परेशान रहा। कुछ लोगों से विचार-विमर्श किया पर बात बनी नहीं। एक दिन सुबह-सुबह शेव करता मैं एक संस्मरण की प्यास लिए विचारों के घने वन में विचरण कर रहा था कि तभी दरवाजा खटका। मैंने खटखटाहट को आने की इजाजत दी तो हाथ में ढेर सारे लिफाफे और मुंह में साढे आठ दांतों की मुस्कान लिए लल्लू जी अवतरित हो गए, हें-हें-हें नमस्कार भाई! नमस्कार!

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नमस्कार लल्लू जी! आइए!

शेव कर रहे हैं?

हां! भाई शेव कर रहे हैं, सेव खाने को तो मिल नहीं पाता तो शेव ही कर लें।

हें-हें-हें, भाई आपका भी जवाब नहीं। लल्लू जी मेरी साहित्यिक प्रतिभा के कायल हो गए। हमने उन्हें जल्दी फुटाने के लिए बात आगे बढाई, ये कार्ड लेकर कहां चले? बहन की शादी तय हो गई क्या?

अरे नहीं बंधु! बहन की शादी कहां! भाई ये तो हमारी संस्था के निमंत्रण पत्र हैं।

मेरी सांस में सांस आई। लल्लू जी एक कार्ड पकडाते हुए बोले, आप जानते ही हैं, हमारी संस्था हर मास एक पुस्तक पर बहस कराती है, इस बार नई बात होने जा रही है.. वह रुक गए। मुझे लगा, बोलना चाहिए। मैंने कहा, क्या? मेरे उत्तर से वह उत्साहित हुए, इस बार जिस पुस्तक पर बहस होगी, उसके लेखक भी हमारे बीच मौजूद रहेंगे।

अच्छा।

हां! इस बार की पुस्तक है खजूर के पार और लेखक श्री शर्मा जी हमारे बीच रहेंगे।

मैं उछल पडा, मूंछ कटते-कटते बची। मैं तो शर्मा जी का पुराना फैन हूं। कार्ड पढने लगा तो मेरी आंखें गोष्ठी के स्थान और अध्यक्ष पर अटक गई, लल्लू जी! साहित्यिक गोष्ठी का इस आउटडेटेड  नेता से क्या संबंध?

लल्लू जी अर्थपूर्ण ढंग से मुस्कुराए, नहीं समझे? चलिए हम समझा देते हैं। इसके कई फायदे हैं। एक तो इस वहां गोष्ठी कराने से अन्य नेता भी पकड में आ जाते हैं, जिससे अपना पोलिटिकल-एप्रोच बढता है। दूसरे अब कोई घास नहीं डालता। बेचारे भाषण न दे पाने की पीडा से परेशान रहते थे। अध्यक्ष बना देने से उन्हें बोलने का मौका मिल जाता है। श्रोताओं की संख्या बढाने के लिए गोष्ठी के बाद वे तगडा नाश्ता भी कराते हैं। हें हें हें.. समझा कीजिए। मुझे लगा, लल्लू जी जुगाडू ही नहीं, बुद्धिमान भी हैं। और हां! आप संस्मरण की बात कर रहे थे न! सो एक पंथ दो काज कर डालें। गोष्ठी का मजा लें और इतने बडे लेखक के सानिध्य का संस्मरण भी लिख डालें।

मैं फिर उछला। वाह! लल्लू जी वाह! क्या आइडिया है। इस बार उछलने से मेरी एक तरफ की मूंछ कुछ बेढंगी हो गई, लेकिन मैंने ख्ाुद को समझाया कि लोग कितनी दुर्गम यात्राएं, खूंखार शेरनियां झेल लेते हैं और तू मूंछ का बेढंगापन भी नहीं झेल सकता। मैंने लल्लू जी का हाथ थाम लिया, लल्लू जी! मैं आ रहा हूं, ठीक सात बजे! हें हें हें..

शाम को बजे छ: अपन  चल दिए नेता जी के घर की ओर! हवा में उमस थी। नालियों के पास सुअर किल्लोल कर रहे थे। चिडिया पेड पर बैठी थी, वगैरह। चूंकि मैं संस्मरण लिखने के मूड में था, इसलिए वातावरण को सूक्ष्म दृष्टि से देखता जा रहा था। खैर, मंजिल आ ही गई। बाहर लल्लू जी बरगलाए से घूम रहे थे। मुझे देखकर कुछ और बरगला गए। अंदर साहित्यिक प्राणियों को कई झुंडों में बतियाते पाया। एक परिचित व्यंग्यकार को देखकर उधर ही बढ गया। गौर किया कि व्यंग्यकार महोदय गले में स्टेथस्कोप लटकाए हुए हैं। शायद कोई मरीज देख सीधे चले आए थे। तभी लल्लू जी पास आए और उन्हें व्यंग्यकार ने थाम लिया, क्या मजाक है। मुझे आज तक खजूर के पार पढने को नहीं मिली! दोनों प्रतियों का आखिर क्या हुआ?

लल्लू जी, व्यंग्यकार की आक्रामक मुद्रा देख सकपकाए। थोडा संभलकर बोले, यार! तुमसे क्या छुपाना, इस बार धोखे से उपन्यास अच्छा आ गया था। सो कुछ दिन तक मैंने किराये पर घुमाया, फिर आधी कीमत में बेच दिया। पूरे चालीस रुपये का था। फिर बोले, अरे यार! तुमको बोलने के लिए उपन्यास पढना जरूरी है क्या? व्यंग्यकार मुझे चने के झाड पर चढते दिखे। बोले, नहीं यार! मैं तो यूं ही पूछ बैठा, अपन तो रेडीमेड वक्ता हैं। लल्लू जी जान बचाकर भागे। मैं दंग रह गया। चीजों की उपयोगिता कोई लल्लू जी से सीखे। तभी हलचल हुई। मुख्य अतिथि शर्मा जी दिखे। माल्यार्पण हुआ। फ्लैश चमके। हम गदगद हुए। फिर संचालक जी के कहने पर वक्ताओं के वक्तव्यों का क्रम शुरू हुआ। लगभग सभी उपन्यास छोड अन्य विषयों पर बोल रहे थे। मैंने दस वक्ताओं को झेला, फिर कानों का संबंध आसपास की हलचलों से कर दिया। बगल में बैठे व्यंग्यकार की ओर देखा तो उनको नोबल पुरस्कार देने का मन हो आया। उन्होंने स्टेथस्कोप की दोनों घुंडियां कब अपने कानों में लगा ली थीं, मैं देख ही नहीं पाया। इतने भाषणों के बावजूद उनके लगातार मुस्कुराने का रहस्य मैं समझ गया था। मैंने फिर अपने कानों का संबंध मंच से जोडा। एक वक्ता बोल रहे थे, मेरी समझ में गोदान के बाद कोई उपन्यास आया ही नहीं! यहां कितने प्रेमचंद- तुलसीदास हैं जो बिना छपे रह जाते हैं। संपादकों को जी भर के कोसने के बाद बोले, मैं चाहूंगा कि श्री शर्मा जी अपनी रचना प्रक्रिया के बारे में बताएं। शर्मा जी का धैर्य शायद घुटने को था, बोल पडे, अगर तब तक मैं अपनी रचना प्रक्रिया को भूल नहीं गया तो। लेकिन शर्मा जी के इस वाक्य पर संचालक महोदय ने कोई नोटिस नहीं लिया। वक्ताओं को बुलाते रहे। एक वक्ता खजूर के पार निकाल कर राजीव गांधी और जनतंत्र के बारे में समझा रहे थे। हमने लल्लू जी को पकडा, ये कौन है? लल्लू जी फुसफुसाए, अरे भाई, ये पीडब्ल्यूडी के एसडीओ  हैं। जरूरत पडने पर जीप दिलाते हैं और छुटपुट सप्लाई का काम भी संचालक महोदय को उनकी कृपा से मिलता है। अब इनको कैसे न बोलने दें? हम निरुत्तर हो गए। लाइन आई-गई, पर न श्रोता गए, न वक्ता चूके। तभी सुनाई पडा, अब शर्मा जी से सुनें उनके विचार। शर्मा जी बिना समय खोए माइक के पास आ गए और लगे बोलने, संचालक महोदय शायद अपने को बहुत होशियार समझते हैं। वे सोचते रहे कि मुझे सबसे बाद में बोलने का मौका देकर भीड को रोके रखेंगे, पर जो खुद को बहुत होशियार समझते हैं, वे दरअसल बहु.. वह थोडा रुके और संभले, बहुत नादान होते हैं। संचालक महोदय भावविभोर हुए। इतने बडे लेखक ने संचालन का नोटिस तो लिया। ख्ौर! शर्मा जी ने हर भारतीय की तरह, अपने विदेशी अनुभव सुनाना ही उचित समझा। उन्होंने जल्दी ही अध्यक्ष महोदय की व्यग्रता  ताड ली और उन्हें माइक सौंप कर अलग हट गए। अध्यक्ष जी बोले, बोलते रहे, पर क्या बोले, मैं समझ न पाया।

क्योंकि इसी बीच मेरी नजर घडी की सुइयों पर पड गई थी, जो रात के पौने बारह बजा रही थीं। फिर गोष्ठी समाप्त हुई। मुझे बस इतना याद है कि मैं हॉल से सीधा निकला और भागा। इस तरह एक संस्मरण तो मैंने पा लिया। घर पहुंच कर कैसे दरवाजा खुलवाया, इसके बाद मेरे और श्रीमती जी के बीच कौन-कौन से संवाद हुए, यह पूरा संस्मरण निश्चित रूप से गोष्ठी के संस्मरण से ज्यादा  रोचक है, लेकिन उसके बारे में फिर कभी बताऊंगा!

डॉ. हरीश निगम

डॉ. हरीश निगम


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