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न सुनने का सुख

सुने जाने का अपना सुख है, लेकिन उससे बड़ा सुख न सुनने का है। हालांकि यह तभी तक संभव है, जब तक कि सामने वाले ने यह तय न कर रखा हो कि वह भी सुना कर ही रहेगा।

By Edited By: Published: Tue, 02 Jul 2013 02:33 PM (IST)Updated: Tue, 02 Jul 2013 02:33 PM (IST)
न सुनने का सुख

रविवार का दिन, खुशनुमा सुबह। मैं अपने फ्लैट की बैलकनी से सुबह का आनंद ले रहा था। सुबह की शीतल हवा छट्टी का आनंद बढा ही रही थी। सहसा श्रीमती जी ने आवाज दी, अजी सुनिए।

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आनंद में खलल पड गया। आदतन मैं सकते में आ गया। काश, मैंने यह आवाज न सुनी होती। या अपने अक्खड पडोसी की तरह सुन कर अनसुना करने का साहस जुटा सका होता। अनसुना करने का आनंद ही कुछ और है। न सुनने का सुख पुरातन व अभूतपूर्व है। सुनने और सुनाने की प्रक्रिया से शोर पैदा होता है। आधुनिक विज्ञानपरक सोच शोर को घातक मानती है। शोर, ध्वनि-प्रदूषण की श्रेणी में आता है। इसे न सुनना ही सुखकर है। कवि नीरज ने भी कहा है, शब्द शोर हैं तमाशा है,

मौन ही भावना की भाषा है।

अत: मेरा मानना है कि न सुनना न केवल प्राचीनकाल, अपितु आज भी सार्थक है। लेकिन, सुलझे हुए लोगों की धारणा है कि सुननी सबकी चाहिए। मैं इस धारणा का उल्लेख पत्‍‌नी जी के डर से नहीं कर रहा हूं। मैं तो पत्‍‌नीव्रत पति हूं। यद्यपि उनकी बात नहीं सुनने का साहस किसी साधारण पति में नहीं होता, सो मुझमें भी नहीं है। हालांकि नहीं सुनने पर किसी का जोर नहीं चलता। सुनने के लिए बाध्य हो जाना पडता है, चाहे कोई अपने कान में रुई के बडे-बडे फाहे ही क्यों न ठूंस ले। चीखकर, स्पीकर लगाकर, नारेबाजी करके .. बात सुनाने के तरीके बहुत हैं। कान दिए हैं तो सुनना नियति है, सुनना तो पडेगा। हां, नहीं सुनने की एक तरकीब है? सुनते हुए भी न सुनने का भाव! कान ही न धरा जाए। कान पर जूं न रेंगने दें। कुंभकर्णी नींद सोएं, निष्क्रिय भाव से, सोई हुई व्यवस्था की तरह। एक कान से सुन कर दूसरे से निकाल देना भी बहुप्रचलित विधि है। सरकार के बाबू लोग ऐसा ही करते हैं। अब सुन लेना गैर जरूरी होता जा रहा है। सुनते तो ईमानदार लोग हैं और ईमानदार मायनरिटी में चले गए हैं। वे व्यवस्था में मिसफिट हो जाते हैं। कुल मिलाकर अब ईमानदारों की जरूरत नहीं रही। एक बार में किसी का कहा सुन लेना अच्छे ओहदेदार की पहचान नहीं है। वे एक बार में नहीं सुनते। थ्रू प्रॉपर चैनल सुनने-सुनाने का रिवाज है। नीचे से ऊपर तक यह सुनने-सुनाने की प्रक्रिया निरर्थक नहीं। यह प्रक्रिया कारगर है, स-अर्थ है।

कुछ लोगों को अपनी बात सुनाने के लिए अदालत के दरवाजे खटखटाने पड जाते हैं। वहां सुनवाई की अपनी संस्कृति है। सुनवाई जारी रहती है, फिर भी नहीं होती। न सुनने का सुख यहां भी है। परपीडन रति इसे ही कहते हैं। दूसरों की परेशानी सुखद होती है।

अजी सुनते हो?, इस बार पत्‍‌नी जी की आवाज में आक्रोश था।

मैं अपने पडोसी की तरह अडियल बनने की कोशिश करने लगा और पत्‍‌नीव्रत भूल मन पुन: विचारमग्न हो गया। किसी ने ठीक कहा है-अच्छे श्रोता बनें। इसलिए कर्ता-धर्ता कान साफ करते रहते हैं ताकि और-और सुन सकें। बेचारे लोग चीखते रहते हैं। पूछताछ कार्यालयों में जिज्ञासु पूछते रहते हैं और कर्मचारी अनसुना करता रहता है। ओहदेदार की यही पहचान है। सुनाते रहना जरूरतमंद की मजबूरी। मैं एक बुजुर्ग को जानता हूं। रिटायरमेंट के बाद मिलने वाली राशि के चक्कर में संबंधित अधिकारियों को अपना दुखडा सुनाते रहते हैं। आजकल वे सच्जन बातचीत के दौरान एक तकियाकलाम प्रयोग करने लगे हैं, आप हमारी बात सुन रहे हैं कि नहीं?

अरे! कहां चले गए? सुनते हो कि नहीं।, पत्‍‌नी जी की कर्कश आवाज कानों में पडी। जो संभवत: दूर पडोस तक गई होगी। मैं फिर सहम गया, आया भई, सुन तो रहा हूं।

अजी ख्ाक सुन रहे हैं। सुनते हैं, लेकिन करते मन की हैं, पत्‍‌नी जी ने शिकायत भरी आवाज दी। मेरा साहित्यिक चिंतन डिलिंक होते-होते पुन: जारी हो गया। बडे-बूढों की सलाह है- सुनो सबकी, करो मन की। मन की करने में फायदा है। करने और न करने के दो विकल्प हैं। कोई कार्य किया भी जा सकता है और टाला भी जा सकता है। सब आपके बस में है। आज कर्ता कुर्सियों पर जमे हैं। उनके मन की भला कोई कैसे जान सकता है? उन्होंने अपनी शर्म को कुर्सियों के पांव तले दाब रखा है। वे करेंगे नहीं, पसरे रहेंगे। खडे होंगे चुनाव में और बैठेंगे अनशन पर। सब कुछ नियमबद्ध है।

एक बार अधिकारी नाराज हो जाएं, फिर देखो कमाल। चोटी का पसीना एडी से न बहे तो कहना। कराने के लिए दम चाहिए। दम है तो सोर्स भिडाओ। पता चलेगा। कहने को कर रहे हैं। लेकिन काम नहीं होगा। होगा तो केवल कागजों पर। इससे फायदा है। शुरू से कागज काला करने की ही शिक्षा मिली है, किए जा रहे हैं। फाइलें छोड दी जाती हैं। कागजी घोडे दौडने लगते हैं चहुंओर..!!

.. तभी दरवाजे पर दस्तक हुई। मैंने अनसुना कर दिया। भारतीय परिवारों में एक प्रचलित रिवाज है। घर के दरवाजे पर हुई दस्तक पत्‍‌नी ही सुनती है। मैंने भी यह ठेका पत्‍‌नी जी को ही दे रखा है। मैं तो कई बार दस्तक सुनकर चुपके से दरवाजे के लेंस से झांक भी लेता हूं और उचककर वापस सोफे में धंस जाता हूं। मैं दस्तक को अनसुना कर सोफे में गड्ड-मड्ड हो रहा था। उधर पत्‍‌नी जी मैदान-ए-किचन में दो चार हो रही थीं। पाटा-बेलन, कडाही-चम्मच जैसे हथियारों की खनक सुनाई दे रही थी। तभी दोबारा दस्तक हुई तो गुस्सा आया- जरूर कोई सेल्समैन है। मैंने पुन: अनसुना कर दिया। कुछ देर बाद फिर दस्तक हुई। मैंने जोर से कहा, बाद में आना।

प्रत्युत्तर में बाहर से खनकती हुई आवाज आई, दरवाजा खोलो। मैं हूं, महंगाई।

मैं चौंका.. काम वाली बाई। जरूर काम मांगने आई होगी। मैंने बैठे-बैठे कहा, हमें नहीं चाहिए कोई काम वाली बाई।

मेरी इस प्रतिक्रिया से दरवाजे पर जोर की आवाज हुई। स्वर और कर्कश हो गया, नहीं खोलोगे तो भी क्या फर्क पडता है! मुझे आने से कोई रोक नहीं सकता। मैं कोई काम वाली बाई नहीं, महंगाई हूं, महंगाई। आम जनता को प्याज के आंसू रुलाने वाली महंगाई। पेट्रोल-डीजल वाली महंगाई। दाल-राशन वाली महंगाई। सब्जी-भाजी वाली महंगाई। भ्रष्टाचार वाली महंगाई। मुझे कोई रोक नहीं सकता। न सरकार, न तुम।

क्या सरकार-सरकार बडबडा रहे हैं?, रौद्ररूपा पत्‍‌नी जी मेरे बाजू में आ खडी हुई। अब अनसुना करना भारी पडता। अत: नम्र भाव से बोला, क्या हुआ भागवान? जरा साहित्यिक चिंतन में लग गया था।

साहित्यिक चिंतन छोडो और रसोई की चिंता करो। गैस की खबरें पढ-पढकर लोगों के प्राण अटके पडे हैं, इधर आप फालतू के साहित्यिक चिंतन में भिडे हैं। मेरी चिंता तो खाली होते गैस सिलिंडर पर अटकी है।

आप चिंतित क्यों हो रही हैं? गैस की चिंता मुझ पर छोड दीजिए।

मुझे शेखी बघारते देख उन्होंने हाथ मटकाते हुए ताना कसा, आप तो रहने ही दो। बस कलम घिसते रहो। आपकी कोई न सुनेगा। पूरा देश गैस पीडित हुआ पडा है, आप चले अपनी सुनाने। साथ ही, कुकरी की किताब मेरे हाथ में पकडाते हुए बोलीं, ये लो, भरवें बैगन बनाने की विघि पढकर सुनाओ। मेरा चश्मा मिल नहीं रहा। मेरी कमीज की जेब में मोबाइल की घंटी बज रही थी। शायद कोई कुछ सुनाना चाहता था। उन्होंने उसे झट से निकाला और म्यूट पर डाल दिया। बोलीं, वाह विज्ञान का अविष्कार! इसे कहते हैं न सुनने का सुख।

मैं चौंक गया। मैं सुख-दुख की मिली-जुली मुद्रा में था। उन्हें मेरी हालत पर तरस आ गया। अत: मेरी नाक के अंतिम कोने तक सरक आई ऐनक को नाक की जड तक चढा दिया। मैंने अपनी गर्दन को एक विशेष अंदाज में ऊपर उठाया और ऐनक के बायफोकल लेंस से पत्‍‌नी जी को निहारा। उनसे नजरें चार हुई। इसके बाद उनकी नजर का तीर मेरे जिगर के पार होना ही था, सो हो गया।

राकेश सोहम्


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