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ये दिल न होता बेचारा...

इंसान की अपनी मुश्किलें हैं और उसके दिल की अपनी। एक बेचारे दिल को कभी आवारा बताया गया तो कभी पागल और कभी बच्चा भी कह दिया गया। अब जब वह बच्चा ही है तो उसके किसी पर भी आ जाने का क्या! पता नहीं क्यों मुझे आज देवानंद की फिल्म

By Edited By: Published: Thu, 24 Sep 2015 02:45 PM (IST)Updated: Thu, 24 Sep 2015 02:45 PM (IST)
ये दिल न होता बेचारा...

इंसान की अपनी मुश्किलें हैं और उसके दिल की अपनी। एक बेचारे दिल को कभी आवारा बताया गया तो कभी पागल और कभी बच्चा भी कह दिया गया। अब जब वह बच्चा ही है तो उसके किसी पर भी आ जाने का क्या!

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पता नहीं क्यों मुझे आज देवानंद की फिल्म ज्वेल थीफ का गाना बहुत याद आ रहा है। अरे वही, ये दिल न होता बेचारा...। बडे लोगों की यही ख्ाासियत होती है। वे वक्त से बहुत आगे चलते हैं। इतना ही नहीं, आने वाले वक्त का मिजाज भी पहले ही ताड लेते हैं। तभी तो वे आगे चलते हैं और जमाना उनके पीछे-पीछे। कुछ चीजें सदाबहार होती हैं। पीढिय़ां बदल जाती हैं चीजें नहीं बदलतीं। इसीलिए इतनी तेज चलती दुनिया में भी लोगों का वक्त किसी मोड पर ठहरा रह जाता है। वे उम्र में तो बडे हो जाते हैं पर सोच में वहीं के वहीं ठहरे रहते हैं। थोडा और सरल कर दूं, वरना आपको लगेगा कि मैं इतनी देर से बस पहेलियां बुझा रहा हूं। आदमी पचास पार कर जाए पर अपने कॉलेज के जमाने से एक पल भी दूर नहीं हटता। जिसे छोडे उसे पच्चीस-तीस साल गुजर गए, उसकी बात करेगा तो ऐसे जैसे कल की ही बात हो और जनाब उस समय उनके हाव-भाव देखिए तो चेहरे पर पडी झुर्रियों और बालों में आई सफेदी के बाद भी जोश तरुणों वाला मिलेगा, जैसे कि उनका वक्त वहीं ठहरा हुआ है और ऐसे दो-चार दोस्त जुट जाएं तो सबसे पहले यही देखते हैं कि घर वाले उनकी बातें तो नहीं सुन रहे। हकीकत यह है कि उस जमाने के पेड-पौधे भी अब नई बिल्डिंग की भेंट चढ चुके होंगे। कई तो ऐसे मिलेंगे जो कॉलेज गेट पर पहुंचे नहीं कि दनादन अपनी पुरानी क्लासरूम या कैफेटेरिया की कुर्सी तक पहुंच जाएंगे। बाद में पता लगेगा कि आजकल घुटने में दर्द के नाते सुबह बाथरूम जाने में भी कष्ट झेलना पड रहा है उन्हें।

ख्ौर, यह सब मैंने वक्त के ठहरे होने को समझाने के लिए लिखा है। डिस्क्लेमर डाल दूं कि नई पीढी के फेसबुकिया बच्चे अपने दादा-दादी और मम्मी-पापा को बेवजह शक की निगाह से न देखें क्योंकि किसी के भीतर जज्बात होने का यह मतलब नहीं कि उसके अंदर गुनाह करने का दमखम भी है। वैसे जज्बात का सीधा रिश्ता दिल से है और ये दिल हमें ऐसे ही वक्त-बेवक्त कभी मुसीबत तो कभी उलझन में डालता रहता है।

वैसे आप मानें या न मानें, मुझे न जाने क्यों गुजरते वक्त के साथ अहसास होने लगा है कि लाइफ की अधिकतर समस्याएं इस बेचारे दिल से ही पैदा होती हैं। आदमी को जितना परेशान यह एक छोटा सा दिल करता है, उतना तो बॉस भी नहीं करता।

लोग सोचते हैं कि आदमी खाने-पीने, रुपये-पैसे, मकान-दुकान या बीवी-बच्चों के लिए परेशान है। यह सच नहीं है। हर तरह से संपन्न आदमी भी उतना ही परेशान है जितना वह जो रोटी, कपडा और मकान के जुगाड में सुबह से शाम तक कोल्हू के बैल की तरह पिला पडा है। जो रात-दिन ग्लैमर की दुनिया में कुलांचें भर रहे हैं और जिनके कदमों तले जमाना है, वे भी मस्त नहीं त्रस्त हैं तो भला सोच कर देखिए कि माजरा क्या है? अर्थात दिले नादां तुझे हुआ क्या है?

ईमानदारी से भीतर झांक कर देखें, हर मामले के पीछे बेचारा दिल ही नजर आएगा। कहने को ये दिल एक है, पर इसके अफसाने हजार हैं। एक सीन देखिए, जो कहता है, 'ये दिल तुम बिन कहीं लगता नहीं हम क्या करें? बडा मारक सीन है। आप कहीं भी चले जाएं और कुछ भी पा लें, पर ये दिल उस 'तुम के बिना कहीं लगेगा ही नहीं। खाने-पीने को एक से एक चीजें रखी हैं, मॉल में ख्ारीदारी कर रहे हैं, गाडी-बंगला सब मौजूद है, नहीं है तो बस वो 'तुम और दिल है कि कहीं लग ही नहीं रहा। भला यह भी कोई बात हुई? दुनिया परेशान है कि एक लग्जरी कार दरवाजे पर लग जाए और कार वाले का दिल है कि सब होते हुए भी नहीं लग रहा, क्योंकि उसके पास वह 'तुम नहीं है...।

इससे भी मजेदार बात यह कि हर केस में 'तुम स्टेबिल नहीं है। यह 'तुम वक्त के साथ बदलते रहने वाला फैक्टर है। मुझे गलत न समझ कर फेसबुक और व्हाट्स ऐप वाले एज में 'तुम को सही ढंग से देखें।

किसी स्टूडेंट से पूछेंगे तो वह कहेगा फ्रेंड्स तो बहुत हैं पर मेरे लिए तो 'तुम नौकरी है। वाकई बात में दम है एक स्टूडेंट का दिल जब तक नौकरी न मिल जाए, किसी चीज में लग ही नहीं सकता। वहीं मेहरा जी हैं जो नौकरी में लंबी पारी खेल चुके हैं और घर-परिवार की अधिकतर जिम्मेदारियां निपटा चुके हैं। उनके लिए 'तुम प्रमोशन है, जिसने उन्हें परेशान कर रखा है। किसी जमाने में नौकरी ही मेहरा जी के लिए 'तुम थी, आज प्रमोशन है। वही हाल स्टूडेंट का है जिसके लिए आज नौकरी 'तुम है, कल नौकरी मिलते ही गर्लफ्रेंड 'तुम हो जाएगी। असल में इस 'तुम का स्टेबिल न रहना ही दिल की ख्ाुराक है। एक शेर में सारी बात सिमट जाएगी -

वक्त रहता नहीं कहीं रुक कर

इसकी आदत भी आदमी सी है।

आदमी यहां जेंडर नहीं, ह्यूमन के लिए प्रयोग हुआ है। जैसे वक्त कहीं ठहर नहीं सकता, वैसे ही हमारा दिल भी किसी एक तुम पर कहीं रुका नहीं रह सकता। इसे आज ये तो कल वो चाहिए। तभी तो इस दिल के टुकडे हजार होते हैं और अफसाने भी ढेरों बनते हैं। ख्ौर जिस पर कोई कंट्रोल ही न हो, उससे पंगा क्या लेना। क्योंकि हम सभी जानते हैं, दिल है कि मानता नहीं। यह आसानी से मानना जानता और काबू में आ जाता तो ज्ञानियों, साधु-महात्माओं और मैंनेजमेंट गुरुओं की जरूरत ही क्यों पडती।

वैसे यह 'तुम कई बार जीवन में चमत्कार भी करता है, जब वह कहता है - तुम जो मिल गए हो तो ये लगता है कि जहान मिल गया है। ऐसे में पाने वाले को अपने 'तुम की ऐसी चाहत होती है कि उसके मिलते ही उसे लगता है उसके जीवन के सारे अभाव समाप्त हो गए हैं। इसे क्लीयर करने के लिए एक वजनदार शेर और लिख देता हूं -

सब कुछ ख्ाुदा से मांग लिया तुझको मांगकर

उठते नहीं हैं हाथ मेरे इस दुआ के बाद।

मुझे इस 'तुम के रिलेशनशिप में कुछ और बडी बातें नजर आईं, जो इस 'तुम को न पाने के बाद भी ख्ाुद को बेहद ख्ाूबसूरत सिचुएशन में ले जाकर बैठा देती हैं। जरा गौर करें इन शायर साहब की सोच पर -

जमाने भर के गम या इक तेरा गम

ये गम होगा तो कितने गम न होंगे।

एक तो देने वाले ने गम दिया और पाने वाले ने उसे उससे भी अधिक ख्ाूबसूरती से गले लगा लिया, यह कह कर कि यह तो मेरे लिए वरदान है। क्योंकि इसके रहने से बाकी तकलीफेंइतनी छोटी हो गई हैं कि अब मुझे उनकी कोई परवाह ही नहीं रही। जब लाइफ में इतनी पॉजिटिव थिंकिंग हो तो भला लोग शौक से गम क्यों न पालें!

लाइफ को जरा बारीकी से देखें। आख्िार सब कुछ के बाद भी लोग सोशल साइट्स और मेसेजेज पर घंटों मैग्नेट की तरह क्यों चिपके हुए हैं? मैं तो यह भी देख चुका हूं कि पार्क में खेलते-खेलते बच्चे के गुम हो जाने पर जिन्हें टेंशन नहीं होती, उन्हें पांच मिनट के लिए मोबाइल कहीं भूल जाने पर जबर्दस्त टेंशन हो जाती है। आजकल लोग चाय का कप बाद में देखते हैं, मोबाइल मेसेज पहले। इधर इंपार्टेंट मीटिंग चल रही है और उधर टेबल के नीचे उंगलियां स्टेटस अपडेट कर रही हैं। जरा सोचिए, यह सारा मामला 'ये दिल न होता बेचारा... का नहीं तो और किसका है? आज अगर हम परेशान हैं तो दिल नहीं तो किसकी वजह से?

हम दुनिया भर के मैनेजमेंट की बात करते हैं। कभी कहते हैं, घर का बजट कंट्रोल नहीं हो रहा तो कभी कहते हैं कि बच्चे पर से कंट्रोल खोता जा रहा है। कभी शहर की भीड-भाड और ट्रैफिक कंट्रोल की बात करते हैं तो कभी आपसी रिश्ते नहीं संभलते। काश! थोडा सा हमें अपने दिल को भी कंट्रोल करना आ जाए तो हमारे लाइफ की न जाने कितनी समस्याएं हल हो जाएं और हमें न कहना पडे - ये दिल न होता बेचारा.... हां कभी-कभी मुझे दार्शनिकता में कबीर का दोहा याद आ जाता है ऐसे मौके पर। जिन्होंने लिखा है -

गोधन गजधन बाजि धन और रतन धन खान

जब आवै संतोष धन सब धन धूरि समान।

जब दिल संतोष धन से भर जाता है तो अपने आप आदमी भरा-पूरा और छलका-छलका सा नजर आता है, वरना कहना पडता है, मन के मते न चालिए मन के मते हजार। क्योंकि दिल का तो काम ही है हमें और आपको पूरी उम्र बस परेशान रखना।

मुरली मनोहर श्रीवास्तव


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