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जीवन का सत्‍य

गायत्री देवी के जीवन में अकस्मात घटी एक दुर्घटना ने उनके जीवन की गति बदल दी थी। उनके पति डॉ. शशांक माथुर, जो शहर के जाने-माने फिजिशियन थे, अचानक एक दिन ब्रेन हैमरेज के शिकार हो गए।

By Edited By: Published: Thu, 29 Dec 2016 03:03 PM (IST)Updated: Thu, 29 Dec 2016 03:03 PM (IST)
जीवन का सत्‍य
कहानी के बारे में : जन्म यदि सच्चाई है तो मौत भी। जीवन से मोह तभी तक होता है, जब तक कोई मकसद होता है। मकसद खत्म होते ही जीने की इच्छा खत्म हो जाती है। कहानीकार के बारे में : लेखन के जरिये रिश्तों के उलझे गणित को समझने की कोशिश करती हैं रीता। पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित। सामाजिक विषयों व संबंधों में गहन रुचि। संप्रति : पटना में रहकर लेखन-कार्य। गायत्री देवी के जीवन में अकस्मात घटी एक दुर्घटना ने उनके जीवन की गति बदल दी थी। उनके पति डॉ. शशांक माथुर, जो शहर के जाने-माने फिजिशियन थे, अचानक एक दिन ब्रेन हैमरेज के शिकार हो गए। उन्हें तत्काल आइसीयू में भर्ती कराया गया। पूरे घर में मातम पसर गया था। दो दिन से वह जिंदगी और मौत के बीच झूल रहे थे। घर का हर सदस्य उनकी जिंदगी के लिए प्रार्थना कर रहा था। गायत्री देवी को तो इस दुर्घटना ने पूरी तरह झकझोर कर रख दिया। उनकी आंखों के सामने ही उनकी बसी-बसाई गृहस्थी उजडऩे के कगार पर थी और वह कुछ भी नहीं कर पा रही थीं। अब उन्हें सिर्फ भगवान का ही सहारा था। उन्होंने तत्काल ब्राह्म्णों को बुलवा कर महामृत्युंजय का जाप शुरू करवा दिया था। डॉ. शशांक अपने घर के एक मजबूत स्तंभ थे, जिन पर उनका पूरा परिवार टिका था। उन्होंने अपने जीवन में पैसा, शोहरत और मान-सम्मान सब कुछ अपने बलबूते हासिल किया था लेकिन हमेशा सजग रहे कि उनके पैसों का गलत उपयोग कर बच्चे कहीं रास्ते से भटक न जाएं। उन्होंने हमेशा अपने घर में नियम-कानून बना कर रखे। कठोर अनुशासन में पले उनके बेटे मयंक, नवीन और बेटी सुगंधा काफी आज्ञाकारी संतान थे। वे पिता से इतना डरते थे कि अपनी बातें उन तक पहुंचाने के लिए भी अपनी मां का सहारा लेते मगर खुद बोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। मां भी सिर्फ उनकी बातें पिता के सामने रखती थीं, चाह कर भी मनवा नहीं पातीं। गायत्री देवी का घर पर एकछत्र राज्य था, फिर भी पति के फैसले के विरुद्ध जाने की उनकी कभी हिम्मत न होती। उन्हें बच्चों पर इतना कठोर अनुशासन पसंद नहीं था पर अपने बच्चों की उन्नति देख कर चुप रहतीं। बडा लडका मयंक मेडिकल की पढाई पूरी कर डॉ. शशांक के साथ मिलकर उनका क्लिनिक संभाल रहा था। छोटा बेटा नवीन और बेटी सुगंधा भी रांची मेडिकल कॉलेज में पढ रहे थे। दो महीने पहले ही मयंक की शादी हुई थी। बहू भी पटना मेडिकल कॉलेज के फाइनल ईयर में थी। सब कुछ डॉ. शशांक की सोच के अनुसार हो रहा था कि अचानक यह विपदा आन पडी। डॉ. शशांक के इस तरह बीमार पडऩे से घर की चूल हिल गई थी। घर से लेकर हॉस्पिटल तक डॉ. शशांक को देखने और उनके विषय में जानने के लिए लोग आते रहते। गायत्री देवी का दिन-रात हॉस्पिटल में ही गुजरता, सभी आने-जाने वालों को एक ही बात बताते हुए कि कैसे डॉ. शंशाक बीमार हुए और उसके बाद क्या-क्या हुआ। बस थोडी देर के लिए घर आ पातीं, खाने और स्नान आदि के लिए। किसी तरह उनका बेटा मयंक पूरा क्लिनिक संभाल रहा था। बहू भी घर-हॉस्पिटल और अपनी पढाई के बीच उलझी रहती। घर की जिम्मेदारियां और खर्च का बोझ अब सीधे मयंक पर आ गया था। वह मां की सलाह से घर चलाता था। खैरियत यही थी कि डॉ. शशांक के सारे बैंक अकाउंट्स गायत्री देवी के साथ जॉइंट थे। खर्च काफी बढ गया था। तेजी से डॉ. शशांक के अकाउंट्स खाली हो रहे थे। तरह-तरह की उलझनों के कारण घर के लोगों की तत्परता डॉ. शशांक के लिए कम होने लगी थी। अब गायत्री देवी को हॉस्पिटल से ज्यादा घर की चिंता रहने लगी थी। उनके नहीं रहने से पूरा घर अस्त-व्यस्त हुआ जा रहा था। खर्च बेलगाम होने लगे थे। देखते-देखते पूरा महीना निकल गया, तब जाकर कहीं डॉ. शशांक को होश आया। पूरे परिवार में खुशी की लहर दौड गई मगर वह खुशी भी ज्यादा देर टिक नहीं सकी क्योंकि उनका आधा अंग लकवाग्रस्त हो गया था। एक बार फिर पूरा घर शोकाकुल हो उठा। अब ज्यादा दिनों तक गायत्री देवी घर बहू के सहारे नहीं छोड सकती थीं। घर संभालना बहू के वश की बात नहीं थी। तीज का पर्व भी करीब आ गया था। घर में चाहे जितनी परेशानियां रही हों, मगर धर्म-कर्म को तिलांजलि नहीं दी जा सकती। बहू का पहला तीज था, अपने लिए न सही, बहू के लिए तो नए कपडे, फल और मिठाइयां लेनी ही होंगी। चौबीस घंटे का निर्जल व्रत होता है। तीन-चार दिनों तक गायत्री देवी तीज के त्योहार में उलझी रहीं। पारण के दिन प्रसाद खाने और गायत्री देवी को आशीर्वाद देने पडोस की यमुना काकी आ गई थीं। गायत्री देवी के प्रणाम करते ही उन्होंने सदा सुहागन का आशीर्वाद दिया तो गायत्री देवी की आंखें भर आईं। 'हां काकी मुझे यही आशीर्वाद दीजिए। सावित्री की तरह ही यमराज के हाथों से छीन कर पति को लाई हूं। उनका जीवन बच गया, यही मेरा सबसे बडा सौभाग्य है।' महीने भर से ऊपर हो गया मगर डॉक्टर्स उन्हें घर ले जाने की इजाजत नहीं दे रहे थे। कभी-कभी उनकी हालत नाजुक हो जाती थी। गायत्री देवी की भी उम्र हो चली थी। घर और हॉस्पिटल के बीच की भागदौड उनके लिए भी संभव नही हो पाती थी। नवीन और सुनंदा को भी पटना में रोक कर नहीं रख सकती थीं। उनकी पढाई का नुकसान हो रहा था। डॉक्टर शशांक को हॉस्पिटल स्टाफ के सहारे छोड कर वह घर-परिवार की देखभाल में जुट गई थीं। अब तो पैसे की चिंता भी सताने लगी थी क्योंकि आमदनी कम और खर्च दुगने हो गए थे। अभी तक मयंक मां की सलाह से घर चला रहा था लेकिन बदलता समय उसे निरंकुश बनाने लगा था। दवाओं और हॉस्पिटल्स के बढते खर्च ने उसे मजबूर कर दिया कि वह डॉ. शशांक को हॉस्पिटल से घर ले आए। मां के मना करने के बावजूद वह उन्हें घर ले आया। अपने क्लिनिक में ही उनका बेड लगवा दिया। कुछ एक्सपट्र्स को हमेशा बुलाता रहता लेकिन यह लंबी प्रक्रिया थी, जिससे सभी ऊबने लगे थे। हमेशा पति के फैसले को मानने वाली गायत्री देवी ने बेटे के फैसले का भी विरोध नहीं किया क्योंकि अब सत्ता का पूरी तरह हस्तांतरण हो गया था। बेटे ने घर की बागडोर संभाल ली थी। फैसले के अधिकार भी उसी के हाथों में थे। डॉ. शशांक हॉस्पिटल में थे तो सारी जिम्मेदारियां हॉस्पिटल के स्टाफ की थीं। घर आने पर ये सभी जिम्मेदारियां गायत्री देवी पर आ गई थीं। डॉ. शशांक के खाने-पीने, नहलाने और दवाएं देने संबंधी सभी कार्य वह स्वयं करतीं। रोज फिजियोथेरेपिस्ट आकर उन्हें एक्सरसाइज करवाता। उनके हर काम को घर में प्राथमिकता दी जाती क्योंकि अभी तक कहीं न कहीं उनका दबदबा घर पर कायम था। इसी तरह छह महीने गुजर गए मगर उनकी स्थिति में कोई ज्यादा परिवर्तन नजर नहीं आ रहा था। घर के लोग अब उनसे काफी परेशान होने लगे थे। सभी की जिंदगी बाधित हो रही थी इसलिए घर में रहने के बावजूद उन्हें नौकरों के सहारे छोड दिया गया। डॉ. शशांक अब पूरी तरह अकेले हो गए। धीरे-धीरे रिश्तेदारों का आना-जाना भी कम हो गया। भूले-भटके ही कोई उनसे मिलने आता। कभी अपनी सफलता के मद में शशांक अपने मध्यवर्गीय नाते-रिश्तेदारों से गज भर की दूरी बनाए रखते थे। उनकी दुनिया सिर्फ अपने बच्चों और पत्नी तक ही सीमित थी। परिणाम यह हुआ कि आज उनके इस दुर्दिन में भाई-बहनों ने भी उनसे दूरी बना ली थी। घर के सभी लोग उन्हें नौकरों के सहारे छोड अपने-अपने कामों मेंं व्यस्त हो गए थे। जब घर के मालिक ही ध्यान नहीं देते हैं तो नौकरों का सेवा भाव भी समाप्त हो जाता है। डॉक्टर शशांक अपने एक-एक कामों के लिए चिल्लाते रह जाते। वह अकसर बुरी तरह शोर मचा कर घर वालों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश करते मगर बदले में घरवालों की उपेक्षा का ही सामना करना पडता। दस महीने गुजरते-गुजरते स्थिति यह हो गई कि घोर पीडा के क्षणों में भी पत्नी को पुकारते तो वह न आ पातीं। भुनभुनाते हुए वह किसी नौकर को भेज देतीं। 'जाकर जरा देखो तो क्यों शोर मचा रहे हैं।' जो बच्चे उनकी आहट से सहम जाते थे, अब उनकी बातें सुनकर भी अनसुनी कर देते, उन्हीं के सामने उनका उपहास करते। जब कभी डॉ. शशांक उन्हें डांटने की कोशिश करते, उनके लडख़डातेे शब्द और टेढा होता मुंह उन्हें हास्य का पात्र बना देता। उनका जीवन परिवार के लिए नगण्य हो गया था। उनका हर अकाउंट बिना उनकी अनुमति के खाली हो रहा था। बच्चों की अवज्ञा देख नौकर भी उनकी बातें अनसुनी करने लगे। यह सब बर्दाश्त करना उनके लिए बहुत मुश्किल था। डॉ. शशांक के जीवन में बढता अकेलापन कुंठा और अवसाद को जन्म दे रहा था, जिससे उनके शरीर के साथ-साथ मन भी अपाहिज हो रहा था। उन्होंने बचकानी हरकतें शुरू कर दी थीं। छोटी-छोटी बातों पर चीखते-चिल्लाते और हठ करते। उनकी पूरी दुनिया खाने-पीने और सोने तक सिमट कर रह गई थी। कहीं न कहीं परिवार की उपेक्षा उन्हें तोड रही थी। उन्हें वे दिन दिख रहे थे, जिन्हें कोई भी अपनी जिंदगी में देखना नहीं चाहता। कभी उद्विग्न होकर पत्नी की बांह पकड लेते तो वह तुरंत डपट देतीं, 'शर्म नहीं आती इस अवस्था में भी...।' पत्नी का ऐसा व्यवहार धीरे-धीरे उनके मस्तिष्क को विचार शून्य बना रहा था, जिसने उनकी सारी इच्छाओं का गला घोंट दिया था। हमेशा साफ-सुथरे और नए फैशन के शौकीन डॉक्टर शशांक के कपडे अब गीले भी हो जाते तो कोई देखने न आता। नाखून और बाल बढ गए थे मगर किसी को कोई परवाह न थी। धीरे-धीरे वह शांत हो गए, अब पहले की तरह चीखते-चिल्लाते नहीं। खाना मिलता तो खा लेते, न मिलता तो चुपचाप बैठे रहते। जीवन का मोह तभी ज्यादा होता है, जब जीने का कोई मकसद होता है। उनके जीने का मकसद ही उनका मजाक उडाने लगा था, उन्हें आहत करने लगा था, जिससे जीवन का मोह छूटने लगा। अब वह ज्यादातर लेटेे रहते। उनके शरीर पर जगह-जगह बेड सोर होने लगा था और अब कोई उनके पास बैठना नहीं चाहता। ....हमारे भीतर की कामना, ममता और आसक्ति ही हमें संसार से बांधती है। उनके मन से यह सब न जाने कब का लुप्त हो चुका था। दूसरी ओर गायत्री देवी ने पति के बिना जीवन को नए ढंग से जीना सीख लिया था। बच्चे अब जीवन में व्यवस्थित थे और घर की आर्थिक स्थिति भी पहले जैसी ही हो गई थी। लिहाजा गायत्री देवी का भी ज्यादातर समय शॉपिंग और घूमने-फिरने में गुजरने लगा था। वह अपने बच्चों के साथ खुश थीं। बेहद निर्ममता से पति को नौकरों के सहारे छोड कर उन्होंने अपने जीवन के उस महत्वपूर्ण अध्याय को एक तरह से समाप्त कर दिया था। डॉ. शशांक को बीमार पडे एक साल से ज्यादा हो गया था। एक बार फिर तीज का व्रत आ गया। हमेशा की तरह पारण के दिन यमुना काकी ने आकर गायत्री देवी को 'सदा सुहागन रहो' का आशीर्वाद दिया। इस बार गायत्री देवी खुश होने के बजाय भीगी आंखों के साथ बोलीं, 'नहीं काकी, अब यह आशीर्वाद मत दो। अब मुझसे उनका दर्द देखा नहीं जाता। अब बस, ईश्वर से प्रार्थना करो कि उनका कष्ट दूर हो और उन्हें मुक्ति मिल जाए।' डॉ. शशांक, जो अब तक यही सोच रहे थे कि आज के दिन तो पत्नी उनके कमरे में जरूर आएगी, दूसरे कमरे में बैठी पत्नी की सारी बातें सुन रहे थे। एकाएक संसार का विराट सत्य उनके सामने था। उन्हें हैरत हुई कि जो बीवी हमेशा उनकी लंबी उम्र की कामना करती थी, वही अब उनकी मृत्यु की इच्छा जता रही है। उनके चेहरे पर हलकी सी हंसी आई। वह सोचने लगे... वह बेचारी क्या जाने कि उनकी मौत तो बहुत पहले हो गई है। अब तो सिर्फ एक ढांचा भर बचा है। जिस संगिनी के साथ कभी उन्होंने अपने सुख-दुख बांटे थे, वही आज उनके प्रति विमुख है। इसीलिए तो संसार को असार कहा गया है। एक ओर उनकी जीवनसंगिनी जीवन में सुख-शांति की ओर बढ रही थी, दूसरी ओर वह दबे पांव मृत्यु की ओर बढ रहे थे। डॉ. शशांक की आंखों से आंसू बहने लगे। उन्होंने दोनों हाथ जोड लिए और छत की ओर देखने लगे...। रागिनी के चित्रों में रंग और आकृतियां जीवन की सहजता की ओर इशारा करते हैं। इनमें कोई अमूर्तता नहीं, जो करना चाहते हैं चित्र सादगी से संप्रेषित कर देते हैं। अब तक कई कला प्रदर्शनियों में हिस्सेदारी, कई पुरस्कार और सम्मान प्राप्त। संप्रति- गुडगांव (हरियाणा में)

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