एक शाम
यादों को कितना भी तहा कर बंद कर दें, लेकिन जब कभी तहें खुलती हैं तो वक्त की सलवटें एक-एक कर खुलने लगती हैं। लेकिन आगे चलते हुए एकाएक पीछे मुड़ कर देखने से कदम लड़खड़ा सकते हैं। व़क्त का तकाजा है कि बीते हुए कल को यादों में ही रहने दें, उन्हें लौटाने की कोशिश न करें। कुछ यही संदेश देती है यह कहानी भी।
जीवन को सुंदर ढंग से जीने की कला तो कोई हेमंत से सीखे। ऐसा भी नहीं कि विधु से शादी के बाद उसने जिंदगी को सुंदर मोड दिया हो। अच्छी जीवनसंगिनी मिलने से पहले भी वह जिंदादिल इंसान था। मगर शादी के बाद खुशियां बढ गई।
चलो कहीं बाहर चलते हैं। दिन भर तुम घर में और मैं दफ्तर में.., शाम तो हम दोनों साथ बिताएं, दफ्तर से लौटते ही हेमंत विधु से कहता।
विधु ने नौकरी नहीं की। वह दिन भर घर के कामों में व्यस्त रहती और हेमंत के घर लौटने की प्रतीक्षा करती। बच्चे बडे हो चुके थे तो उनकी जिम्मेदारियों से वह लगभग मुक्त थी।
शाम की उदासी मुझे भाती नहीं, जी चाहता है उदासी को चुरा कर इसमें खुशियां भर दूं.., विधु को बांहों में लेकर हेमंत कहता।
बच्चे बडे हो रहे हैं, उनका तो खयाल रखा करो। वैसे भी शाम में उदासी कहां होती है! इसमें चाहे जितने रंग भर दो, यह निखरती जाती है.., बांहों की कैद से निकलते हुए विधु कहती।
शाम की दीवानगी में डूबे हेमंत को देखकर विधु का मन कभी-कभी अतीत में गोते लगाने लगता। लेकिन यादों को झटक कर वह वर्तमान में लौट आती। स्मृति-पटल की दस्तक को अनसुना करना भी उसकी विवशता है। दरिया किनारे की वह शाम जब वह पुष्पकर के साथ घूमती वहां आ गई थी।
..विधु फिर अतीत में खो गई। अर्थशास्त्र विभाग के ऑनर्स के विद्यार्थियों ने गंगा के पार दियारा पर पिकनिक मनाने का प्रोग्राम बनाया था। लडकियां कुछ डर रही थीं पर लडके उत्साहित थे।
गंगा पार करने में तो देर हो जाएगी, मुझे डर लगता है, अनामिका ने कहा।
पूरी गंगा थोडे ही पार करेंगे। गंगा जहां सूख जाती है, वहां रेत भरी जमीन होती है, उसे ही दियारा कहते हैं। वहीं सभी पिकनिक मनाने जाते हैं, सौरभ ने लडकियों को समझाया।
लहराती गंगा को सभी नाव से झुक-झुक कर छू रहे थे। पटना यूनिवर्सिटी के विद्यार्थियों की उमंग देख कर गंगा भी मचल उठी थी।
ऐसे चुप रहकर भला पिकनिक मनाते हैं? नाव पर नाच नहीं सकते तो क्या, गा तो सकते हैं, पुष्पकर ने कहा तो सभी ने समवेत स्वर में सहमति जताई।
गाने का दौर शुरू हुआ तो फिर दियारा पर पहुंचकर ही रुका। इनके शोर से इठलाती गंगा छल-छल करती ताल से ताल मिलाने लगी। अंतिम वर्ष होने के कारण सभी अपनी जुदाई के दर्द को गंगा में बहा देना चाहते थे। अचानक विधु की नजर पुष्पकर से मिली जो अपलक उसे निहार रहा था। कुछ घबरा कर विधु ने पलकें झुका लीं। कुछ देर वह यूं ही इधर-उधर देखती रही, लेकिन चोर नजरों से उसने देखा तो पुष्पकर अभी भी उसे ही निहार रहा था।
दियारा पहुंचकर पहले कुछ लडकों ने दरियां बिछाई तो कुछ ने खाना बनाने की तैयारियां शुरू कर दीं। लडकियों ने भी साथ दिया। लडके सूखी लकडियां ले आए। सबने मिल कर खाना बनाया। खाना लाजवाब था या फिर संग का स्वाद मीठा था।
खाने के बाद अंत्याक्षरी शुरू हुई। लडकों और लडकियों के अलग-अलग ग्रुप बने। एक से बढ कर एक नए और पुराने फिल्मी गाने सबने अपने-अपने स्मृति-कोष से निकाले। दोनों समूहों ने मिल कर समां बांध दिया। प्रोफेसर भी दो समूहों में बंट गए। युवाओं के सुर में सुर मिला कर वे भी युवावस्था के दिनों में जा पहुंचे। चलो अब दियारा किनारे घूमा जाए। फिर भला ये दिन कहां लौटेंगे!
हां, हां, सभी चलते हैं, सुदक्षिणा ने कहा। शाम होने से पहले लौटना भी है, इसीलिए जल्दी चलना होगा, शरद ने कहा।
भाई, हम लोग तो यहीं गपशप करेंगे। तुम लोग जाओ लेकिन जल्दी लौट आना क्योंकि शाम तक लौटना भी है.., प्रोफेसर सिंह ने दरी पर लेटते हुए कहा।
मुझे तो सोच कर ही भय लगता है कि वह दिन दूर नहीं, जब गंगा हमसे रूठ कर दूर चली जाएगी। फिर दियारा ही दियारा रहेगा। आज हम नाव से यहां तक पहुंचे हैं फिर दियारे का महत्व कम हो जाएगा। किनारे से ही लोग दियारे को देखेंगे, और गंगा-जल कहीं दूर दिखाई देगा, एक साथी दार्शनिक भाव से बोल उठा।
मस्ती चल ही रही थी कि अचानक जोरों से रेत भरी आंधी आ गई। संभलने का मौका भी नहीं मिला। रेत ने सबकी आंखों पर हमला बोल दिया था। आंखें बंद किए सभी तेज आंधी में पत्ते की तरह इधर-उधर दौडने लगे। किसी को यह होश नहीं था कि कौन किस दिशा में दौड रहा है। आंखों में रेत भरी थी, लेकिन सभी चीख रहे थे। विधु ने दुपट्टे से अपना सिर ढका था। उसने सोचा भी नहीं था आंधी इस वेग से आएगी। वह भी किसी दिशा में भाग रही थी या रेत की आंधी उसे बहा ले जा रही थी। आंखें खोल नहीं सकती थी। आंधी के शोर में किसी दोस्त की आवाज भी नहीं सुनाई दे रही थी। भय से उसके हाथ-पांव कांपने लगे। कंठ सूख गया। थक गई तो किसी तरह एक ही जगह पर बैठ गई और मुंह छिपा लिया। एकाएक जैसे ही महसूस हुआ कि वह दूर आ गई है और अकेली है, सब्र का बांध टूट गया और वह जोरों से फूट कर रोने लगी।
काफी देर बाद आंधी का वेग कम हुआ, पर विधु इतनी डरी हुई थी कि आंखें नहीं खोल पा रही थी। थोडी देर बाद एकाएक उसे अपने कंधे पर किसी पुरुष के हाथों का स्पर्श महसूस हुआ। वह भय से चीख उठी।
डरो नहीं विधु, मैं हूं- पुष्पकर। देखो सभी इधर-उधर भागे हैं। एक-दूसरे को ढूंढ रहे हैं.., पुष्पकर ने उसके पास बैठते हुए कहा।
आंधी कम हो रही है, थोडी देर में पूरी थम जाएगी तो सभी आ जाएंगे, पुष्पकर ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा।
विधु की सिसकियां और बढ गई। उसका पूरा शरीर कांप रहा था। यह देख कर पुष्पकर ने उसे अपनी बांहों का सहारा दिया। उस निचाट बीहड में इतना बडा संबल पाकर विधु उससे लिपट गई। एकाएक वह घटा जो दोनों ने कभी सोचा भी नहीं था। आंधी और भय ने उन्हें इतना करीब ला दिया।
विधु घबराओ नहीं, मैं तुम्हारे साथ हूं, पुष्पकर ने उसे सीने से लगाते हुए कहा। बांहों का कसाव बढता गया। सांसें आपस में टकराने लगीं। मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूं विधु, तुम्हें हमेशा करीब देखना चाहता हूं, अधीरता से पुष्पकर ने कहा।
पुष्पकर की बांहों की जकडन में विधु बेसुध सी हो गई थी। प्रेम का एहसास जन्म ले चुका था। भावनाएं शब्दों में बदलतीं, तभी कुछ जोडी कदमों की आहट ने उन्हें छिटका दिया। पुष्पकर.. विधु.. कहां हो तुम लोग?
आवाजों ने विधु की सुधि लौटा दी थी। उसकी आंखों में अब रेत के साथ ही शर्म की लाली भी थी। काफी देर बाद उसने आंखें खोलीं और भरपूर नजरों से पुष्पकर को देखा। पुष्पकर की आंखें बोल रहीं थीं कि यह शाम उसे हमेशा याद रहेगी। विधु को याद आया कैसे क्लास में भी अकसर पुष्पकर उसे निहारता रहता था। आज वह कितनी अजीब सी स्थिति में उसकी बांहों में समा गई थी। आंधी खत्म हो गई थी और दोनों के मन में एक असीम शांति थी। लडके-लडकियों का एक झुंड पास आ गया था..। विदाई के पल सभी के लिए मुश्किल हो रहे थे और लौटते हुए सभी खामोश थे।
..डोर-बेल बजते ही विधु की विचार-तंद्रा टूटी। किसी काम से बाहर गए हेमंत लौट गए थे। दरवाज्ा खुलते ही बोले, विधु, चलो.. जल्दी तैयार हो जाओ, आज मेट्रो से दिल्ली घूमने चलते हैं। इतने दिनों से हम दिल्ली में हैं लेकिन मेट्रो में एक ही बार बैठे हैं, हेमंत ने कहा।
पहले चाय पी लो। फिर तैयारी करना, विधु ने किचन में जाते हुए कहा।
आज संडे है, शायद भीड कम हो, कमरे में जाते हुए हेमंत ने कहा।
संडे होने के बावजूद पार्किग में कहीं जगह नहीं मिली। अंत में कार पार्किग के बाहर छोड कर वे मेट्रो की ओर बढने लगे। हवा तेज थी। विधु का आंचल लहरा रहा था। बालों की लट बार-बार चेहरे पर आकर परेशान कर रही थी।
इन्हें खुला ही छोड दो न! तुम्हारे खुले बाल अच्छे लगते हैं, हेमंत ने पीछे से क्लचर हटा कर उसके बाल खोल दिए। मेट्रो से शहर कुछ ज्यादा ही खूबसूरत दिख रहा था। लोटस टेंपल, इस्कॉन को उन्होंने चमकती रोशनी में देखा। उसने अपने बालों को समेटना चाहा तो हेमंत ने रोक दिया। विधु एक बार फिर यादों में खो गई। वर्षो पहले पुष्पकर की कही बात उसे याद आने लगी, खुले बालों में तुम बहुत अच्छी लगती हो विधु, बालों से रेत झाडते हुए पुष्पकर ने उससे कहा था। आज उसे बार-बार पुष्पकर क्यों याद आ रहा है! लौटते वक्त उन्हें बैठने की जगह नहीं मिली तो खडे रहे। भीड नहीं थी, फिर भी हेमंत ने हिदायत दी, उतरते समय आराम से उतरना, हडबडाना नहीं।
अचानक विधु को महसूस हुआ कि कोई शख्स उसे अपलक निहार रहा है। ध्यान बंटने से वह लडखडा गई। तभी हेमंत ने उसे थाम लिया। विधु के मन में उत्सुकता जाग उठी कि वह व्यक्ति आखिर है कौन? उसने अस्त-व्यस्त हो आई साडी को चुपके से ठीक किया और खुले उलझे बालों को हाथ से सुलझाने की चेष्टा की। बातें करते-करते हेमंत कुछ दूर हुआ तो वह शख्स फिर दिखा।
पांच मिनट में हमारा स्टेशन आने वाला है, हेमंत ने उसे परेशान देख कर कहा।
इस बार विधु ने भी उस व्यक्ति को ध्यान से देखा। मस्तिष्क पर जोर नहीं देना पडा। उम्र की परतें इंसान पर जम जाती हों, लेकिन चेहरे के हाव-भाव तो वही रहते हैं। सामने बैठा इंसान वही था, जिसने उस दिन अपनी बांहों का सहारा दिया था। विधु को उसकी सांसों की गंध महसूस होने लगी। पहचान के भाव आते ही दोनों ओर से एक मुसकान झलकी।
विधु की आंखों में पहचान की झलक देख पुष्पकर सीट से उठने लगा। उसने सोचा, विधु से मिल ले। विधु भी क्षण भर आगे बढी।
विधु स्टेशन आ गया है। धीरे-धीरे बाहर निकलना, कहता हुआ हेमंत बाहर निकला। पीछे-पीछे विधु भी गई। बाहर जाकर वह मुडी तो दरवाजे पर पुष्पकर खडा था। तभी दरवाजा बंद हो गया।
आगे देख कर चलो वर्ना गिर जाओगी, हेमंत ने विधु का हाथ थाम लिया।
अनजाने में कही गई हेमंत की बात विधु को ठीक लगी। अतीत उसके वर्तमान को डिगा सकता है। मेरे हाथ थामे रहो और आराम से चलो। इतनी नर्वस क्यों हो जाती हो? हेमंत ने उसे सहारा देते हुए कहा।
दोनों चलते रहे। मेट्रो शायद कुछ स्टेशन आगे बढ चुकी होगी। इस शाम ने विधु के शांत मन में उथल-पुथल मचा दी थी। लेकिन जो आंधी अचानक जीवन में आई वह अब थम भी चुकी थी। वह मज्ाबूती से हेमंत का हाथ थाम उसके साथ आगे बढती गई। अब न कहीं रेत थी, न आंधी..।
लक्ष्मी रानी लाल