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हमेशा नए हैं पुराण

पुराणों को इतिहास मानें या साहित्य, इसे लेकर बहुत बहसें हो चुकी हैं। साहित्य की दुनिया के भी कुछ विद्वान इन्हें वास्तविक मानते हैं, जबकि कुछ काल्पनिक। इस चर्चित विषय पर स्वामी तेजोमयानंद जी का दृष्टिकोण।

By Edited By: Published: Mon, 01 Oct 2012 04:19 PM (IST)Updated: Mon, 01 Oct 2012 04:19 PM (IST)
हमेशा नए हैं पुराण

पुराण साहित्य का वह वर्ग है, जिसे मिथक के नाम से भी जाना जाता है। जिन्होंने यह साहित्य नहीं पढा है, या थोडा सा पढा है, उनके मन में इस संबंध में बहुत सी गलत धारणाएं रही हैं। कुछ लोगों के अनुसार पुराण काल्पनिक कथाएं हैं। जब हम उन्हें पढते हैं तो मन में हमेशा यह प्रश्न उठता है कि ये कथाएं काल्पनिक हैं या सच्ची हैं?

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पहले हम मान कर चलें कि ये काल्पनिक नहीं है। वेदों को ठीक से समझने के लिए इतिहास और पुराणों का अध्ययन और उन्हें समझना बहुत जरूरी है। इसलिए कि उनमें जो विषयवस्तु है और उनका जो उद्देश्य है वह केवल परमात्मा है, जो सर्वोपरि सत्य है। उसे प्रकाशित करना ही इनका प्रयोजन है। पुराण का शाब्दिक अर्थ है-पुराना, और आत्मा को भी सबसे अधिक पुरातन कहा गया है। लेकिन पुराने के सामान्य अर्थ के अनुसार वह प्राचीन नहीं है। पुराने और नए के प्रति धारणा सदैव कालसापेक्ष होती है, लेकिन जब हम आत्मा को पुरातन कहते हैं, तब वहां काल का संदर्भ नहीं होता। वह ऐसा तत्व है जहां से काल की अवधारणा का उदय होता है। अत: यह पुरातन, परम आत्मतत्व, काल निरपेक्ष है। श्री शंकराचार्य पुराण शब्द को समझाते हुए कहते हैं कि पुराण है तो पुरातन, पर पुरातन होते हुए भी वह सर्वदा नवीन है। कोई चीज पुरानी और नई एक साथ कैसे हो सकती है? ऐसा होना उसी वस्तु के साथ संभव है जो समय के प्रभाव से मुक्त हो। काल से परे जो होगा उसका क्षय नहीं होगा। वह हमेशा ताजा, नया रहेगा। अत: पुराण का तात्विक अर्थ है-वह-जो सदैव नवीन है।

आध्यात्मिक शिक्षा : पुराणों में जिस सत्य का प्रकाशन है वही वेदों और उपनिषदों में भी वर्णित है, लेकिन पुराणों में इसी बात को कहने की शैली बहुत अनोखी है। अनेक कहानियां पुराणों में मिलती हैं। इनमें से कुछ ऐतिहासिक हैं, कुछ रूपक शैली में। लेकिन सभी में शिक्षा है। पुराणों में ही यह संकेत भी है कि कौन सी कथाएं प्रतीक हैं।

इतिहास और पुराण या मिथक में अंतर है, जो हमें स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए। इतिहास घटना प्रधान होता है, वह ऐसा साहित्य है जो वस्तुस्थिति को ज्यों का त्यों सामने रखता है, क्योंकि उसमें ऐतिहासिक तथ्यों और घटनाओं का, जिस प्रकार वे घटित हुई, वैसा ही लेखा-जोखा होता है। पुराण शिक्षाप्रधान होते हैं, शिक्षा देने के उद्देश्य से लिखे गए होते हैं। इतिहास के ग्रंथ में कोई काल्पनिक कहानी नहीं जोड सकता, लेकिन पुराणों में ऐसा सप्रयोजन किया जाता है। इसलिए जब हम उन्हें पढते हैं तब बस यही नहीं सोचते रहना चाहिए कि यह घटना सच्ची है या झूठी। वह कुछ भी हो सकती है। शेर, बाघ, बंदर या लोमडी की कहानी में यह पूछना निरर्थक है कि बंदर कैसे बोल सकते हैं? यह बात वहां विचारणीय है ही नहीं। प्रश्न तो बस यह है कि हम उस कहानी से क्या शिक्षा ग्रहण करते हैं।

पांच विषय : पुराणों में परम सत्य का उद्घाटन पांच मुख्य विषयों के विश्लेषण के माध्यम से किया गया है - सर्ग, प्रतिसर्ग, मन्वंतर, वंश और वंशानुचरित।

सर्ग : सर्ग के अंतर्गत मूलभूतों की सृष्टि का वर्णन है। मूलभूत अणु कच्चे माल जैसे कहे जा सकते हैं। इन्हीं मूलभूत अणुओं या पांच महाभूतों से समस्त व्यक्ति और वस्तु-जगत की अपने पूरे वैविध्य के साथ रचना हुई। यह दूसरी रचना प्रतिसर्ग या विसर्ग कहलाई।

प्रतिसर्ग : पूरा विश्व अनेक प्रकार के वैविध्य से संपन्न है। वस्तुजगत में वैविध्य है, प्राणियों में वैविध्य है। प्रत्येक प्राणी या वस्तु अन्य प्राणी या वस्तु से भिन्न है। प्रश्न यह है कि यह विभिन्नता आती कहां से है? यदि हम उनके आधारभूत उपकरणों को देखें तो वे एक से ही हैं, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी। हम सबके पास समान रूप से शरीर है, इंद्रियां हैं, मन है और बुद्धि है। लेकिन हम सब में कितना वैभिन्न्य है। कहा जाता है कि सृष्टि में जो अनेकता है वह तत्व और कर्म के अनुसार है। प्रत्येक व्यक्ति की प्रकृति और उसके कर्म इसका कारण है। इस प्रकार सर्ग और विसर्ग की इस व्याख्या से सर्वप्रथम सृष्टि की विविधता को समझना आवश्यक है। फिर इस वैविध्य के भीतर पंच महाभूत के रूप में जो समानता है, उसे जान लेना चाहिए। अब यह समान रूप से जो तत्व सबमें है वे कहां से आए। कहा गया है कि वे परमात्मा से, पुराण से निकले। इस प्रकार परम सत्य की ओर संकेत किया गया।

मन्वंतर : तीसरा विषय है मन्वंतर। जब हम संपूर्ण मानवता पर दृष्टि डालते हैं तो जो एक विशिष्ट प्रवृत्ति दिखाई देती है वह है प्रकृति के नियमों और अन्य सभी नियमों का तिरस्कार, उनका पालन न करने की प्रवृत्ति। अन्य प्राणी स्वभाव से प्रकृति के नियमों का पालन करते हैं, लेकिन मनुष्य को बताना पडता है कि उसे क्या करना चाहिए। मनुष्य को अपने धर्म को जानना चाहिए और उसके अनुसार अपना जीवन बनाना चाहिए। विश्वविद्यालय में धर्म के विभाग का कोई अध्यक्ष होता है, जिसके पास उस विभाग का अधिकार होता है। उसी प्रकार मनु विश्व के स्तर पर धर्म विभाग के अधिकारी हैं। युगों का वह चक्र, जिसमें एक मनु का शासन रहता है, मन्वंतर कहलाता है। हिंदू परंपरा के अनुसार, काल का विभाजन चार युगों में किया गया है-सत्य युग, त्रेता, द्वापर और कलियुग। चारों से मिलकर एक महायुग बनता है, जो कई लाख वर्षो का होता है। एक हजार महायुग जब बीतते हैं तब सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी का एक दिन पूरा होता है। इस एक दिन में चौदह मनु अपना कार्यकाल पूरा करते हैं। नए मनु शासन संभालते हैं तब पूरा दिव्य मंत्रिमंडल, विश्व संचालन के अधिकारी देवता, बदल जाते हैं। इसलिए प्रत्येक इंद्र, वरुण और अग्नि का कार्यकाल एक मन्वंतर के लिए होता है।

अपने निर्धारित समय में मनु देखते हैं कि संसार में सब लोग धर्म का पालन कर रहे हैं या नहीं और कभी-कभी धर्म की नए प्रकार से व्याख्या भी करते हैं। यह सब करने के लिए वे संत, साधु, भक्त और धर्म के अन्य व्याख्याकारों को संसार में भेजते हैं, जो हम सबको जीवन जीने की सही दीक्षा दे सके।

पुराणों में वर्णित, काल के इस विशाल प्रवाह के विषय में जब हम सोचते हैं, तो हमारी बुद्धि जड होने लगती है। हम इस अनंत काल प्रवाह के आरंभ, मध्य व अंत को, आकाश और भूत प्राणियों की इस असीम सृष्टि को समझने में असमर्थ सिद्ध होते हैं। शास्त्र यह भी कहते हैं कि पूरी सृष्टि ब्रह्म के एक सूक्ष्म अणु में है। इस प्रकार, सर्ग अर्थात् मूलभूत सृष्टि से और प्रतिसर्ग अर्थात् विशेष प्रकार की सृष्टि के वर्णन से परमात्मा की ओर ही संकेत किया जाता है। मन्वंतर के वर्णन में दिखाया गया है कि धर्म के अनुकरण से ही हमारा चित्त शुद्ध हो सकेगा और तभी हम आत्मा के अनुभव की साम‌र्थ्य पा सकेंगे।

वंश और वंशानुचरित : पुराणों का चौथा विषय है वंश। जिसका अर्थ है राजवंश। संसार पर शासन करने वाले दो राजवंश थे-सूर्यवंश और चंद्रवंश। इन वंशों में उत्पन्न राजाओं, संत ऋषियों और सामान्य लोगों के जीवन चरितों का वंशानुचरित में वर्णन है। इसका उद्देश्य यह था कि अच्छे लोगों से हम यह सीख सकें कि अपना जीवन कैसे जिएं और दुष्टों से, जिन्होंने अपना ही सर्वनाश कर लिया, हम सीखें कि कैसे अपना जीवन नहीं जिएं। कुछ ऐसे भी चरित्र हुए जो शुरू में दुष्ट प्रकृति के थे और विषयेंद्रिय भोग में समय बिताते थे, लेकिन बाद में साधु पुरुषों के सान्निध्य से वे महान बन गए। इसलिए हमें स्वयं के विषय में उदास नहीं होना चाहिए। यदि कोई दुष्ट और विषयभोगलिप्त व्यक्ति महान् बन सकता है तो हम भी महान बन सकते हैं, ऐसा विश्वास हममें विकसित होना चाहिए।


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